दिल्ली में कश्मीरी गेट अंतर्राज्यीय बस अड्डे से आगे, राष्ट्रीय राजमार्ग-1 पर, दाहिने तरफ़ यमुना किनारे एक भव्य गुरुद्वारा है। उस गुरूद्वारे के क़रीब एक इलाक़ा है, जहां आपको अधिकाँश तिब्बती मूल के लोग, उनके मठ, दुकानें, घर आदि दिखाई देंगे। दिलचस्प बात ये है, कि हफ़्ते के सातों दिन नौजवान लड़के-लड़कियां सस्ते दामों पर कपडे, बैग, चीनी, कोरियाई और तिब्बती खाने-पीने की चीज़ों की ख़रीदारी करते दिखाई देंगे। कम दोमों वाले रेस्टोरेंट और कैफ़े के बाहर लम्बी-लम्बी क़तारें भी दिखाई देंगी। ये इलाक़ा दिल्ली विश्वविद्यालय के नार्थ कैंपस से भी काफ़ी नज़दीक है।
ये है मजनू का टीला, जो तिब्बती कला, साज़ो सामान, खान-पान आदि के लिए दिल्लीवालों को बेहद पसंद है। नार्थ कैंपस और आम्बेडकर विश्वविद्यालय के पुराने छात्रों की यादों में यह आज भी बसा हुआ है। अरुणा नगर, न्यू अरुणा नगर और ओल्ड चंद्रवाल गाँव इसी इलाक़े में शामिल हैं। लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं, कि इसका इतिहास 16वीं शताब्दी से शुरू होता है। सिख इतिहास से भी इसका बहुत गहरा नाता रहा है।
मजनू के टीले के मूल इतिहास के बारे में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है, कि इसकी शुरुआत सोलहवीं शताब्दी में हुई थी। यह उस वक़्त की बात है जब भक्ति आन्दोलन अपने चरम पर था और दिल्ली में दूसरे लोधी सुल्तान सिकन्दर लोधी की हुकूमत थीI जहां आज मजनूं का टीला है, उन दिनों वहां एक टीला (छोटी-सी पहाड़ी) हुआ करती थी। वहां एक ईरानी सूफ़ी अब्दुल्लाह का डेरा था। वह दिन रात अध्यात्म की खोज में खोया रहता था और बेख़ुदी की हालत में रहता था। इसी लिए लोग उसे मजनू कहने लगे थे। यह भी बताया जाता है, कि रात दिन इबादत में गुज़ार ने के बावजूद वह यात्रियों को यमुना नदी पार करने में मदद भी करता था। सिख मान्यताओं के अनुसार,अपनी पहली उदासी के तहत दिल्ली-यात्रा के दौरान, सिखों के पहले गुरु नानक कुछ दिन यहीं ठहरे थे। जुलाई, सन 1505 में मजनूं से उनकी मुलाक़ात, मजनू की कश्ती में ही हुई थी। गुरु नानक ने मजनू को आशीर्वाद भी दिया था। वो मजनू की भक्ति से इतने प्रभावित हुए थे, कि उन्होंने घोषणा कर दी थी कि ये जगह आगे चलकर मजनूं के टीले के नाम से जानी जाएगी। ऐसा भी कहा जाता है, कि इसी गुरूद्वारे में एक बार गुरु नानक और मजनू दोनों ने किसी महंत के रोने की आवाज़ सुनी थी। दरअसल महंत का हाथी मर गया था। नानक की दुआ से उसका हाथी दोबारा जीवित हो गया था।
वक़्त के साथ जैसे-जैसे सिख धर्म का विस्तार हो रहा था, मजनू का टीला भी लोकप्रिय होता जा रहा था। स्थानीय कथाओं के अनुसार, छठे गुरु हर गोबिंद और सातवें गुरु हर राय के बेटे राम राय भी कुछ समय के लिए यहां ठहरे थे। इसी वजह से इस जगह का धार्मिक महत्व बढ़ने लगा था। लेकिन इस जगह को स्थाई धर्मस्थल का रूप अठारहवीं शताब्दी के अंत में मिल पाया। यह वह दौर था. जब मुग़ल सल्तनत का पतन हो रहा था और सिख साम्राज्य का उदय होने लगा था।
सन 1783 तक सिखों का प्रभाव दिल्ली के दरवाज़ों तक पहुंच चुका था। सिख जनरल बघेल सिंह धालीवाल कश्मीरी गेट के बाहर अपने तीस हज़ार सिख सैनिक ले कर पहुंच गया था। जिस जगह पर ये सैनिक जमा हुए थे, वो इलाक़ा आज तीस हज़ारी के नाम से मशहूर है। बघेल ने मुग़ल बादशाह शाह आलम-द्वितीय से समझौता कर लिया था, कि उस इलाक़े की तिजारत का साढे बारह फ़ीसदी सिखों को दिया जाएगा। साथ ही दिल्ली में जहां-जहां सिख गुरुओं के निशान दर्ज हैं, वहां पर गुरुद्वारों का निर्माण किया जाएगा। उसी समझौते के तहत पांच गुरुद्वारों- बंगला साहब, माता सुंदरी, रक़ाबगंज, शीशगंज और मजनू दा टीला का निर्माण हुआ।
फिर उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक दिल्ली पर अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा हो चुका था। उस दौरान मजनू के टीले का क्या हश्र हुआ था, किसी को नहीं मालूम। रिहाईशी इलाके के तौर पर इसका महत्व सन 1911 में, दिल्ली को ब्रिटिश हुकूमत की राजधानी की बनाने की घोषणा की बाद सामने आया। उस वक़्त यहाँ और इसके आसपास के इलाकों में दिल्ली की इमारतों का निर्माण करने वाले मज़दूर बसाए गए थे। हालांकि, 1931 तक, जब दिल्ली का औपचारिक राजधानी के तौर पर उद्घाटन हुआ, तब कई मज़दूर या तो यहाँ रहने लगे थे या वापस अपने गांव चले गए थे।
इसके ठीक सोलह साल बाद, सन 1947 में स्वतंत्रता के मिलने के साथ ही देश का विभाजन हुआ, तब दिल्ली के कई इलाक़ों में सीमा पार से आए शरणार्थी बसने लगे थे। इनमें उत्तर दिल्ली का मॉडल टाउन, हुमायूँ का मक़बरा और पुराना क़िला प्रमुख थे। कुछ शरणार्थियों ने इसके अलावा भी कई जगहों का रुख़ किया, जिनमें वर्तमान अरुणा नगर भी शामिल है, जो मजनू का टीले से बहुत नज़दीक है। दस साल बाद, सन 1959, नगर विकास मंत्रालय ने इसका एक रिहाईशी इलाक़े के तौर पर विकास करना शुरू किया था।
विकास का काम अभी शुरु ही हुआ था, कि भारत के पूर्वी इलाक़ों से तिब्बती लोग, यहाँ लगाए गए रिफ़्यूजी कैंप में रहने लगे। सन 1959 में, चीन ने तिब्बत पर क़ब्जा कर लिया था। तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी थी। उनके साथ कई तिब्बती भारत आ गए। यह सिलसिला, किसी हद तक आज भी जारी है। शुरुआत में तिब्बती लोग अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम लद्दाख़, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड राज्यों में चीन से लगे सीमावर्ती इलाक़ों में रह रहे थेI लेकिन सन 1962 के भारत-चीनी युद्ध के बाद तिब्बती लोग भारत के अन्य शहरों में आकर बसने लगे थे। दिल्ली की ख़ास अहमियत इसलिए रही कि यहां से, राजनीतिक शरण लेकर विदेश जाना आसान था।
जैसे-जैसे दिल्ली में तिब्ब्त्तियों की संख्या बढती चली गई, उनके रिफ़्यूजी कैंप, स्थाई बस्ती का रूप लेते गए। तिब्बती भाषा में आज भी इस इलाक़े को साम्येलिंग या चंगटाउन के नाम से जाना जाता है। तिब्बती लोग अपनी संस्कृति को संरक्षित करते हुए, गुज़र-बसर के लिए स्थानीय सामान और खाने-पीने की चीज़ों की दुकाने लगाने लगे। इस बस्ती की महक दिल्लीवालों तक पहुंचने लगी थी और सन 1990 के दशक में इसकी लोकप्रियता ख़ूब बढ़ने लगी थी। फिर तिब्बतियों ने जब कपड़ों का व्यवसाय भी शुरू कर दिया। उन कपड़ों की डिज़ाइनों पर तिब्बत की छाप साफ़ तौर पर दिखाई देती है।
मजनू के टीले की शौहरत धीरे-धीरे दिल्ली की सीमाएं पार करने लगी थी। मजनू के टीले का सबसे बड़ी कशिश थी छांग। छांग, दरअसल तिब्बत की शराब या वाइन है, जो चावल से बनती है। छांग की लोकप्रियता की वजह से मजनू के टीले को ‘छान्गबस्ती’ और या ‘छान्गिस्तान’ कहा जाने लगा था। छांग सस्ती थी और आसानी से उपलब्ध भी थी। इस वजह से बड़ी तादाद में नौजवान इस नशे की लत का शिकार भी होने लगे थे। छांग के बुरे प्रभाव को देखते हुए, स्थानीय समुदाय ने संयुक्त तौर पर यह तय किया, कि छांग को सिर्फ़ लोसर या तिब्बती नववर्ष के अवसर पर ही परोसा जाएगा। लेकिन तिब्बती खाने और उनके साथ चीनी तथा कोरियाई मसालों जो धूम मचाई थी, वह आज भी ज्यूं के त्यूं क़ायम है। बाद में यहाँ कई होटल, रेस्टोरेंट और कैफ़े भी खुल गए। महत्वपूर्ण बात ये है कि तिब्बतियों की नई नस्ल और बुज़ुर्ग पीढ़ी में, हर मामले में ज़बरदस्त तालमेल और संतुलन देखने को मिलता है।
सन 1998 में जब शीली दीक्षित, दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में, सत्ता में आईं थीं तो उन्होंने इस स्थान को एक नया नाम न्यू अरुणा नगर दे दिया था। लेकिन इसके बावजूद, आज भी ये मजनू का टीला के नाम से जाना जाता है। जो गुरुद्वारा बघेल सिंह के आदेश पर बनवाया गया था, उसमें संगमरमर का काम सन 1950 में हुआ। ये गुरुद्वारा बेसहारा लोगों को मुफ़्त में खाने-पीने, रहने और इलाज की सुविधाएं प्रदान करता है।
आज मजनू के टीले में रह रहे तिब्बती पूरी तरह भारतीय जीवन शैली में रच-बस गए हैं। लेकिन इसकी साथ, इस जगह की और इसके आसपास की, अरुणा नगर और ओल्ड चन्द्रवाल गाँव की बस्तियों के सुधार की जंग आज भी जारी है। मजनूं के टीले के आसपास विस्तार करने के नाम पर पर्यावरण के नियमों की लगातार अनदेखी की जाती रही है।
मजनू का टीला दिल्ली के सबसे मशहूर इलाक़ों में गिना जाता है, जिसका अंदाज़, खान-पान, बाज़ार की आज पूरी दुनिया में मशहूर है। यहां की बेतरतीब गलियों में, ज़िंदगी अपने हर रंग में चहल पहल करती दिखाई देती है।
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