महाराजा रणजीत सिंह को कोड़े लगाए जाने का सच

महाराजा रणजीत सिंह को कोड़े लगाए जाने का सच

महाराजा रणजीत सिंह को कोड़े लगाए जाने का सच

शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह से संबंधित इतिहास में यह एक बड़ी त्रासदी रही है, कि उन से संबंधित हर घटना-दुर्घटना और तथ्य को लेखकों तथा इतिहासकारों ने अपने-अपने ढंग से पेश किया है। यही वजह है, कि महाराजा रणजीत सिंह से जुड़े कई ऐतिहासिक तथ्य कहीं न कहीं अप्रमाणिक तथा अधूरे-से लगते हैं।

महाराजा रणजीत सिंह और उनकी रानी मोरां के बारे में लिखने वाले तक़रीबन सभी विद्वानों तथा इतिहासकारों ने दावे के साथ लिखा है, कि दरबारी नर्तकी मोरां से विवाह करने और उसके नाम पर सिक्का जारी करने के अपराध में, उस समय के श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार अकाली फूला सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह को धार्मिक सज़ा सुनाने के लिए श्री अकाल तख्त साहिब पर बुलाया था।

महाराजा के नम्रता सहित पेश होने पर अकाली फूला सिंह ने महाराजा को अकाल तख्त के समक्ष कोड़े लगाने की सज़ा सुनाई थी। जिसे महाराजा ने बिना कोई विरोध किए स्वीकार कर लिया। जत्थेदार ने अभी कोडे लगाने के लिए हाथ उठाया ही था, कि वहां उपस्थित संगत अचानक कहने लगी, कि महाराजा अपना अपराध स्वीकार कर स्वयं पेश हुए हैं, इसलिए इन्हें कोड़े न लगाए जाएं। जत्थेदार ने संगत के कहने पर महाराजा को कोड़े लगाने की सज़ा माफ़ कर दी।

लेकिन ऐतिहासिक नज़रिए से सबसे पहले जानने वाली बात यह है, कि महाराजा रणजीत सिंह के समय श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार का पद अस्तित्व में ही नहीं आया था। इसलिए अकाली फूला सिंह के श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। यहां तक कि सन 1920-21 से पहले तक श्री दरबार साहिब के इतिहास और श्री दरबार साहिब के प्रबंधों के संबंध में प्रकाशित होने वाली किसी भी पुस्तक या दस्तावेज़ में अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार या इस पद के बारे में कोई जानकारी या विवरण कहीं मौजूद नहीं है। सन 1900 से पहले श्री दरबार साहिब के संबंध में होने वाली प्रत्येक पुस्तक में श्री अकाल तख्त साहिब का नाम ‘अकाल बुंगा’ ही पढ़ने में आता है।

श्री दरबार साहिब में श्री गुरू ग्रंथ साहिब की हजूरी में महाराजा रणजीत सिंह तथा अन्य | लेखक

इसी प्रकार का भ्रम लेखकों के बीच श्री दरबार साहिब के सरबराह (मैनेजर) सरदार अरूण सिंह के पद को लेकर भी रहा है। इसी वजह से बहुत सारे लेखकों और विद्वानों ने जलियांवाला बाग़ क़त्ल-ए-आम के मुख्य दोषी ब्रिगेडियर जनरल रिनाल्ड एडवर्ड हैनरी डायर और अमृतसर की सिविल लाईन स्थित जेल के इंचार्ज कैप्टन ब्रिग्स को सिरोपा तथा नक़द इनाम भेंट करने के साथ-साथ बज-बज घाट पर अंग्रेज़ों से मुकाबला करते हुए शहीद होने वाले सिखों को ‘सिख’ न होने का फ़तवा देने वाले सरदार अरूण सिंह को भी श्री अकाल तख्त साहिब का जत्थेदार लिखते आ रहे हैं। असल में फूला सिंह बुड्ढा दल के जत्थेदार थे, तथा इस जत्थे के पास ही अकाल तख्त साहिब की सेवा की ज़िम्मेदारी थी। दूसरा अकाली फूला सिंह ने महाराजा को सज़ा सन 1815 में सुनाई गई थी, जबकि अमृतसर के सरहदी गांव मक्खनपुर की रहने वाली कश्मीरी मुसलमान नर्तकी मोरां से महाराजा ने विवाह सन 1802 में किया था। फिर उसकी फ़रमाईश पर उसके नाम पर मोरां शाही सिक्का सन 1803 में जारी किया था। इस सिक्के को आरसी की मोहर तथा अशरफ़ी भी कहा जाता था। यही नहीं, महाराजा ने मोरां से विवाह करने के बाद, कुछ अन्य मुसलमान नर्तकियों से भी विवाह कर उन्हें अपनी रानियां बनाया था।

मोरां और महाराजा रणजीत सिंह के चित्र

27 सितम्बर सन 1832 को अमृतसर की रहने वाली एक अन्य खूबसूरत नर्तकी गुल बेगम से सम्पूर्ण रीति-रिवाजों से विवाह कर उसको महारानी का दर्जा दिया। सिख राज्य के दरबारी इतिहासकार सोहन लाल सूरी के अनुसार विवाह के समय महाराजा की उम्र 52 वर्ष थी। इस विवाह समारोह में कई अंग्रेज़ अफ़सर और ख़ालसा दरबार के अहलकार भी शामिल हुए थे। सिख विद्वानों के अनुसार महाराजा रणजीत सिंह तथा नृतकी गुल बेगम का विवाह सिख और मुस्लिम रीति-रिवाज़ों के मुताबिक़ हुआ था। विवाह के बाद महाराजा ने गुल बेगम को रानी गुल बहार बेगम का नाम दिया।

अब ध्यान देने वाली बात यह है, कि अगर अकाली फूला सिंह ने वास्तव में महाराजा रणजीत सिंह को मुसलमान नर्तकी मोरां से विवाह करने के अपराध में कोड़े लगाने की सज़ा सुनाई थी, तो क्या महाराजा उस कथित भूल का पश्चाताप करने के बाद दुबारा वही गुस्ताख़ी कर सकते थे?

पंजाब विश्वविद्यालय पटियाला से प्रकाशित ‘अमृतसर-सिफ्ती दा घर’ में सरदार जीत सिंह सीतल इसी संदर्भ में लिखते हैं, कि सन 1800 में श्री अकाल तख्त साहिब का सम्पूर्ण प्रबंध निहंग सिंह अकाली फूला सिंह के हाथ में था। सन 1815 में जब अकाली फूला सिंह अपने साथियों सहित अमृतसर पधारे, तो बैसाखी मेले पर ग्यारह सौ रूपए चढ़ावे के इकट्ठे हुए थे। जिसमें उन्होंने एक हज़ार रूपए नक़द तथा एक घोड़ा लेने की जिद्द की थी। इस मामले को लेकर हुए झगड़े में 2-3 लोग मारे गए। जब यह जानकारी क़िला गोबिंदगढ़ में महाराजा रणजीत सिंह को दी गई, तो उन्होंने हकीम इमामउद्दीन को झगड़ा निपटाने के लिए भेजा और अकाली फूला सिंह को निश्चित भेंट लेने के लिए कहा गया। उक्त पुस्तक में बताया गया है, कि अकाली फूला सिंह ने मई सन 1820 में, सैलानी विलियम मूरक्रॉफ़्ट को बताया था, कि महाराजा रणजीत सिंह के कारण सिखों के दिलों में अंग्रेजों के प्रति नफ़रत उत्पन्न हो रही है। अपनी रंजिश निकालने के लिए फूला सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह को अकाल तख़्त के समक्ष कोड़े लगाने की सज़ा सुनाई। महाराजा ने श्री अकाल तख़्त का सम्मान बरक़रार रखने के लिए यह सज़ा स्वीकार कर ली। महाराजा को अकाल तख़्त के सामने र्निवस्त्र कर इमली के वृक्ष के साथ बांधा गया, परन्तु बाद में उन्हें बिना कोड़े लगाए छोड़ दिया गया।

श्री अकाल तख़्त साहिब के पास मौजूद इमली का पेड़ जिसके साथ बांधकर महाराजा रणजीत सिंह को कोड़े लगाने की सज़ा सुनाई गई थी। | लेखक

खैर, उक्त घटना की सच्चाई क्या रही होगी, इसके बारे में सिख विद्वानों और लेखकों को ख़ोज कर प्रामाणिक जानकारी अवश्य तलाशनी चाहिए। वहीं महाराजा रणजीत सिंह के जीवन से संबंधित घटनाओं तथा दुर्घटनाओं की सही जानकारियां प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर सामने लाना भी आवश्यक हैं, ताकि सिख राज्य से जुड़े इतिहास को लेकर किसी क़िस्म का कोई भ्रम न रहे।

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