कर्नाटक का कूर्ग अपनी खुशनुमा पहाड़ियों, कॉफ़ी-बाग़ान और प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए मशहूर है। मगर इसका एक ऐसा भी पहलू है, जिसके बारे में आज भी बहुत लोग नहीं जानते। वो है इसका शाही इतिहास।कुल मिलाकर कर्नाटक राज्य होयसला, विजयनगरम, वुडियार और मैसूर सल्तनत जैसे साम्राज्यों का गवाह तो रहा ही है, इसके साथ ही यहां एकऐसा साम्राज्य भी रहा है जिसने लगभग दो शताब्दियों तक कूर्ग और उसके आसपास के क्षेत्र में शासन किया…वह था हलेरी साम्राज्य और इसके विस्तार की छाप हमें मदिकेरी क़िले में दिखाई देती है।
कोडागु ज़िले के मदिकेरी ताल्लुक़ में स्टूअर्ट हिल पर मौजूद मदिकेरी क़िले का निर्माण सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में हलेरी शासकों ने करवाया था।अपने जीवन-काल में इस क़िले ने, आगे चलकर, भीतर और बाहर कई बदलाव देखे।पहले मैसूर सुल्तानों ने बाद में अंग्रेज़ों ने इसकी मरम्मत करवाई और यहां कई नए भवन बनवाए। कई लोग ये नहीं जानते हैं, कि इस क़िले के इर्द-गिर्द भारत के इतिहास के भी कई महत्वपूर्ण अंश दर्ज हुए हैं जिनकी शुरुआत हलेरी साम्राज्य के विस्तार से शुरू होती है।
हलेरी साम्राज्य के शुरूआती दौर के बारे में अधिकतर जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि कुछ दस्तावेज़ों से पता चलता है, कि इनकी शुरुआत सोलहवीं सदी के अंत से तब होती है, जब सन 1556 में तालिकोट के युद्ध के बाद विजयनगरम साम्राज्य समाप्त हुआ। उस दौरान उनके नायक सामंतों का स्वतंत्र रूप से विस्तार हुआ और ये दक्षिण भारत के कई हिस्सों में फैल गए थे। इनमें से एक थे केलाड़ी नायक जो वर्तमान कर्नाटक के शिमोगा ज़िले से अपना राज चलाते थे। उनके शासक सदाशिव नायक (सन 1530 से सन 1566 तक) के भांजे, वीर राजा को एक साम्राज्य स्थापित करने की बड़ी तमन्ना थी।
स्थानीय कथाओं के अनुसार वीर राजा की ये तमन्ना उन्हें कोडागु (कूर्ग) की पहाड़ियों की ओर ले गई, जहां उन दिनों स्थानीय पोलिगर राजाओं का राज था। वीर राजा एक जादुई शक्तियों वाले साधू के भेस में हलेरी गाँव में बस गए थे। रफ़्ता-रफ़्ता उन्होंने वहां के लोगों का विश्वास जीता और फिर उन्होंने उन्हीं लोगों की सहायता से सन 1583 में पोलिगर राजाओं को पराजित करके हलेरी साम्राज्य की नींव रखी।
हलेरी साम्राज्य की कड़ी के तीसरे शासक मुद्दु राजा-प्रथम(सन 1633 से 1687 तक) तक पहुंचीI माना जाता है, कि एक बार जब वो शिकार पर जा रहे थे, तब उन्हें एक पहाड़ी पर एक ख़रगोश, उनके शिकारी कुत्तों का पीछा करता दिखाई दिया। इसे अच्छा शकुन मानते हुए, उन्होंने उसी पहाड़ी पर अपने राज्य की राजधानी बनाने का निर्णय लिया और सन 1681 में यहाँ पर एक मिट्टी का क़िला बनवाया। हलेरी साम्राज्य की राजधानी हलेरी से इसी पहाड़ी पर स्थानांतरित कर दी गई। क़िले और इसके आसपास के क्षेत्र को पहले ‘मुद्दु राजा केरी’ कहा जाता था जो आगे चलकर ‘मुद्दुराकेरे’ और अंत में ‘मदिकेरी’ कहलाया जाने लगा था।
जहां एक तरफ़ हलेरी साम्राज्य फल-फूल रहा था, वहीं पड़ोस की मैसूर रियासत में वुडियार साम्राज्य अपने पैर फैला रहा था। उसका सेनापति हैदर अली कूर्ग पर चढ़ाई करने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रहा था। लेकिन मदिकेरी क़िले और कोडागु की भौगौलिक स्थिति उसे ऐसा करने से हमेशा रोकती रही। हलेरी के सैनिक छापेमारी युद्ध के ज़रिए मैसूर की कोशिशों को बार-बार नाकाम कर रहे थे। अट्ठारहवीं शताब्दी का मध्य आते-आते हैदर अली एक प्रभावशाली शासक के तौर पर उभरा और मैसूर अब एक सल्तनत का रूप ले चुका था। अंग्रेजों को पहली जंग (1767-1769) में शिकस्त देने के बाद, हैदर अपने बेटे टीपू सुल्तान के साथ अपने राज्य का भी विस्तार कर रहा था। उसकी ये मुहीम एक बार फिर मदिकेरी क़िले के दरवाज़ों तक जा पहुंची। इस बार उनकी क़िस्मत चमकी और सन 1780 में मदिकेरी क़िला टीपू के क़ब्ज़े में आ गया और ये क़रीब आठ साल सल्तनत-ए-मैसूर के अंतर्गत रहा। इस दौरान हलेरी शासक अंग्रेज़ों की शरण में रहे। टीपू ने इस क़िले को ग्रेनाइट और पत्थरों से दोबारा बनवाया और इसका नाम ‘जाफ़राबाद’ रखा गया।
लेकिन सन 1780 के दशक के अंत में अंग्रेज़ों के सामने टीपू की ताक़त कमज़ोर पड़ने लगी।नौवें हलेरी राजा डोड्डा वीर राजेन्द्र ( सन 1780 से 1809 तक) ने मौक़े का फ़ायदा उठाकर उनसे मदद की गुहार लगाईं। दोनों ने संयुक्त रूप से तीसरे एंग्लों-मैसूर युद्ध (1790-1792)में टीपू को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। कूर्ग अब वापस हलेरी शासकों के हाथ आ गया। लेकिन अब कूर्ग अंग्रेज़ों के संरक्षण में था और राजा को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ रही थी। कूर्ग ने चौथे एंग्लों-मैसूर युद्ध (1799) के दौरान टीपू के ख़िलाफ़, अंग्रेज़ों के अभियान में, कंपनी के सैनिकों को अपने राज्य से गुज़रने में भी मदद की थी।
भले ही अब हैदर और टीपू का वजूद कहीं नहीं था। मैसूर का नया वुडियार राजा अब अंग्रेज़ों का मोहताज हो चुका था। मगर कूर्ग का दरबार अंग्रेज़ों के संरक्षण मे होने के बावजूद अपनी आपसी रंजिशों से जूझ रहा था। वहां की प्रजा पर भी इसका हर प्रकार से बुरा असर पड़ रहा था। मई सन 1807 में दोड्डा की रानी महादेवम्मा की मृत्यु हो गई, जिसकी वजह से दरबार में उथल-पथल मच गई। इस दौरान शाही परिवार के कुछ सदस्यों को दोड्डा ने या तो मरवा दिया या फिर ग़ायब करवा दिया। दोड्डा का छोटा भाई लिंगा राजा-द्वितीय, पहले तो भागने में सफल रहा था, लेकिन दो साल बाद सन 1809 में वापस आ गया। उसने दोड्डा की बड़ी बेटी देवम्माजी से सत्ता छीन ली। देवम्माजी ने अपने पिता के बाद राज गद्दी संभाली थी।
सत्ता के डावाडोल होने का सिलसिला अपने चरम पर तब पहुंचा, जब सन 1820 में चिक्का वीर राजेन्द्र तख़्त पर बैठा। वह न केवल ऐश-ओ-आराम में डूबा रहता था, बल्कि नाराज़ होने पर किसी को भी सख़्त सज़ा या मरवा देता था। अपने राज्य की महिलाओं के प्रति उसके रवैये को कोई पसंद नहीं करता था। लेकिन उसको ख़ुद नहीं पता था, कि उसका यही व्यवहार, उसके ख़िलाफ़ जाएगा। उसने देवम्माजी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे लिंगा ने घर में नज़रबंद कर रखा था। लेकिन अपने पति चिन्ना बसवा के प्रति वफ़ादार देवम्माजी ने एक रात वहां तैनात पहरेदारों को नशीली दवा पिला कर बेहोश कर दिया और कूर्ग से भागने में सफल रही। लिंगा के कुछ सैनिकों को मारने के बाद देवम्माजी और उसके पति ने कंपनी के संरक्षण में, मैसूर में शरण ले ली।
देवम्माजी से कूर्ग के शाही दरबार और उसकी प्रजा की दयनीय स्थिति को समझने के बाद, अंग्रेजों ने पहले चिक्का को शान्तिपूर्वक समझाना मुनासिब समझा। जनवरी सन 1834 में मद्रास के गवर्नर सर एफ़.एडम ने चिक्का को पत्र लिखकर चेतावनी दी और अच्छी सरकार चलाने के तौर-तरीक़े भी समझाए। इसके अलावा मैसूर में अंग्रेज़ अफ़सर जे.ए. कैसामेजर ने राज्य में सुधार लागू करने के लिए चिक्का से मुलाक़ात की। लेकिन दोनों कोशिशों के बावजूद चिक्का का रवैया नहीं बदला। इस वजह से अंग्रेज़ों ने मामला अपने हाथों में लेकर कूर्ग पर हमला करने का फ़ैसला किया। फ़रवरी सन 1834 में ब्रिगेडियर जनरल लिंडसे के नेतृत्व में 7 हज़ार सैनिक कूर्ग रवाना हो गए। लगभग दो महीने तक चली लड़ाई ,6 अप्रैल सन 1834 को समाप्त हुई। अंग्रेज़ों ने मदिकेरी क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस तरह लगभग दो शताब्दियों तक शासन करने वाले हलेरी राजवंश का अंत हो गया। चिक्का और उसका ख़ानदान वाराणसी और फिर लन्दन चला गया। वहीं उसका निधन हो गया और उसकी बेटी गोरम्मा, ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की देखरेख में रहने लगी थी। वहीँ कूर्ग अब धीरे-धीरे ब्रिटिश शासन के अनुकूल बनता जा रहा था।
मदिकेरी क़िले पर क़ब्ज़ा करने के बाद, अंग्रेजों ने किले और इसके आसपास के क्षेत्र को मेरकैरा और कोडागु को कूर्ग का नाम दिया। सन 1850 के दशक में अंग्रेज़ों ने मदिकेरी क़िले के भीतर मौजूद विदर्भ मंदिर के ढाँचे पर सेंट मार्क्स चर्च का निर्माण करवा दिया। इसके साथ ही वहाँ एक क़ैदख़ाना, एक पुस्तकालय और कई प्रशासनिक भवनों का निर्माण भी करवाया।सन 1858 में जब भारत की सत्ता ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश सरकार के हाथों आई, तब से ये क़िला सरकार का प्रशासनिक मुख्यालय बन गया था। सन 1933 में यहां एक घंटाघर भी बनवाया गया।
सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, मदिकेरी क़िला नए राज्य कर्नाटक की देखरेख में आ गया। इनमें मौजूद सरकारी भवनों में आज भी कामकाज हो रहा है। सेंट मार्क्स चर्च, सन 1971 तक एक प्रमुख चर्च ही रहा। बाद में इसे संग्रहालय का रूप दे दिया गया। इस संग्रहालय में, क़िले के निर्माण से लेकर अंग्रेज़ों के राज तक की कई कलाकृतियाँ और हथियार आदि देखे जा सकते हैं। यहाँ का पुस्तकालय आज सार्वजनिक पुस्तकालय है। क़िले के भीतर के क़ैदख़ाने को अब ज़िला जेल में तब्दील कर दिया गया है। बाकी इमारतों के पुनर्निर्माण का कार्य अभी जारी है। आज मदिकेरी क़िला, हलेरी साम्राज्य की आख़िरी निशानी और कर्नाटक के शाही इतिहास के, नुमाइंदे के तौर पर कूर्ग की शान बढा रहा है।
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