भारत के भूले हुए मदारी

आजकल न तो वह सड़कों पर दिखाई देते हैं और न ही उनकी आवाज़ें ज़्यादा सुनाई पड़ती हैं लेकिन एक ज़माना था जब मदारी आमतौर पर गलियों में मिल जाया करते थे। इसके अलावा बच्चों की कहानियों और हिंदी फ़िल्मों में भी मदारियों से मुलाक़ात हो जाती थी। गली-कूचों में आमतौर पर बंदरों और भालुओं का तमाशा दिखानेवालों को देसी नाम दिया गया था-मदारी। बहुत कम लोगों को पता होगा कि मदारी शब्द का रिश्ता इतिहास से जुड़ा है। सूफ़ी-संत शाह मदार 14वीं सदी में सीरिया से भारत आए थे। उनके अनुयाइयों को मदारी कहा जाता था। शाह मदार के अनुयाइयों ने कैसे ख़ुद का विकास किया, अंग्रेज़ हुकुमत के ख़िलाफ़ हथियार उठाए और गली-कूचों में तमाशा दिखानेवालों को अपना नाम दे दिया….उनकी पूरी कहानी बड़ी दिलचस्प है।

14वीं शताब्दी के सूफ़ी-संत हज़रत सैयद बदीउद्दीन जिन्हें शाह मदार के नाम से भी जाना जाता था। उनके आरंभिक इतिहास के बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनकी दरगाह ज़िला कानपुर(उत्तर प्रदेश) के मकनपुर में है।

दस्तावेज़ों से हमे पता चलता है कि उनका जन्म सीरिया के अलेप्पो शहर में हुआ था और सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुगलक के शासनकाल में कभी भारत आये थे, सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुगलक ने 1351 और 1388 ईस्वी के बीच शासन किया था। शाह मदार ने भारत में, सूरत, अजमेर, कालपी (उत्तर प्रदेश), जौनपुर जैसे कई स्थानों की यात्रा की, अंत में कानपुर के वर्तमान जिले में मकनपुर में आधार स्थापित किया, जहाँ उन्होंने एक खानकाह (धार्मिक सभा) स्थापित की। समय के साथ उनके अनुयायियों को मदारिस (उनके शीर्षक शाह मदार ’के बाद) के रूप में जाना जाने लगा। 1436 ईस्वी में उनका निधन हो गया, और खानकाह उनकी कब्र के साथ एक दरगाह बन गया, जहां तीर्थयात्री आए थे।

शाह मदार की स्थापित की गई सूफ़ी-पद्धति, उत्तर भारत की चिश्तिया सूफ़ी-पद्धति और दक्कन की नियामतउल्लाह सूफ़ी-पद्धति से काफ़ी अलग है। शाह मदार की सूफ़ी-पद्धति नागा साधू-संनियायों से बहुत मिलती जुलती थी। मदारी भी अपने शरीर पर राख मलते थे और भांग-गांजा पीते थे। नागा साधू-संतों की तरह मदारिया भी आग पर चलते थे और कई तरह के जादू दिखाते थे। जिनको यह सब हुनर नहीं आते थे, वह बंदरों और भालुओं से करतब करवाते थे। नतीजा यह हुआ कि सदियों बाद, मदारिया शब्द मदारी हो गया और इसका का उपयोग, गली-कूचों में करतब और तमाशा दिखानेवाले लोगों के लिए होने लगा।

मदारिया-सिलसिला, मुग़ल शहंशाह अकबर के ज़माने में सबसे ज़्यादा शक्तिशाली और प्रभावशाली हो गया था क्योंकि अकबर, ख़ानक़ाहों और दरगाहों की मदद के मामले में फ़राग़ दिली के लिए मशहूर था। अकबर ने माकनपुर की मुख्य दरगाह सहित अन्य तमाम मदारिया दरगाहों को ज़मीनें और वज़ीफ़े दिए। मदारिया-सिलसिला इतना महत्वपूर्ण हो गया था कि उसे मुग़ल दरबार की सरपरस्ती लगातार मिलती रही। यहां तक कि सरपरस्ती का यह सिलसिला शहंशाह आलमगीर-द्वितीय( 1699-1759) तक जारी रहा। उसके बाद बंगाल और अवध के नवाबों के ज़माने में भी यह सिलसिला जारी रहा।

सन 1770 में मदारिया-सिलसिले की ख़ास पहचान तक बनी जब उन्होंने अंग्रेज़ों और ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ़, फ़क़ीर-संनियासी बग़ावत में हिस्सा लिया। हालांकि इतिहास की किताबों में इस बग़ावत के बारे में बहुत कम लिखा गया है,लेकिन यह एक बहुत महत्वपूर्ण आंदोलन था और जिसका प्रभाव बहुत लोगों पर पड़ा था। उस समय मंजू शाह नाम के फ़क़ीर, मदारिया-सिलसिले के मुख्या थे और माकनपुर में ही रहते थे। उन्होंने अपने मदारिया अनुयाइयों को, बक्सर की जंग(1764) में, अवध की सेना के साथ,अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लड़ने के लिए भेज दिया था।हालांकि उस युद्ध में अंग्रेज़ों की जीत हुई और पूरे बंगाल पर उनका क़ब्ज़ा हो गया। उसीके बाद ज़बरदस्त कुप्रबंध और शोषण का सिलसिला शुरू हुआ। उसी के नतीजे में सन 1770 में आए भयानक अकाल में, बंगाल की एक तिहाई आबादी ख़त्म हो गई थी।

मंजू शाह ने, हिंदू संन्यासियों के साथ मिलकर,अंग्रेज़ों के विरुद्ध गोरीला-जंग शुरू कर दी। वह जंग सन 1771 से लेकर सन 1786 यानी पूरे पंद्रह वर्षों तक जारी रही। उस बग़ावत को “फ़क़ीर-संन्यासी विद्रोह ” के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह के दौरान हथियारबंद संन्यासी अंग्रेज़ों की कचहेरियों, अंग्रेज़ पहरेदार सिपाहियों और अंग्रेज़ों के दूसरे ठिकानों पर घात लगाकर हमले करते थे।उसके बाद जंगलों में छुप जाते थे ।यह विद्रोह सन 1786 तक जारी रहा । इसी जंग में मंजू शाह बुरी तरह घायल होकर वापस माकनपुर की दरगाह आ गए थे। दो साल बाद सन 1788 में वहीं उनका देहांत हो गया था। कुछ साल बाद मंजू शाह के विद्रोह से प्रभावित होकर फ़क़ीरों के दूसरे गुटों ने भी,उत्तरी बंगाल में, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हथियार उठा लिए । इस विद्रोह को “ पागल पंथियों का विद्रोह “ के नाम से जाना गया।

उत्तर भारत के कई हिस्सों में मदारिया-सिलसिला आज भी जारी है। हर साल उर्स के मौक़े पर शाह मदार की दरगाह पर हज़ारों की संख्या में श्रद्धालू जमा होते हैं।

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