लोदी वंश के गुमनाम और लावारिस मक़बरे

भारतीय उपमहाद्वीप की समृद्ध और नाटकीय कहानी का गवाह रहा है एक शहर जिसे दिल्ली कहते हैं। यहां कई राजवंश आए और गए, शहंशाहों ने अपने प्रताप या प्रकोप से इस पर हुक़ुमत की और हमलावरों ने यहां ख़ून-ख़राबा किया और लूटपाट कर के चले गए। आज जब दिल्ली 21वीं सदी के आगे भविष्य की तरफ़ बढ़ रही है, इन तमाम घटनाओं के निशान आज भी दिल्ली के चप्पे चप्पे में देखे जा सकते हैं। एक तरफ़ जहां क़ुतुब मीनार, हुमांयू का मक़बरा और लाल क़िला जैसे 800 साल पुराने स्मारक लोगों की ज़बान पर हैं, वहीं सैकड़ों ऐसे भी स्मारक हैं जो गुमनामी के अंधेरे में खोए हुए हैं।

इन्हीं स्मारकों में से एक है तीन बुर्ज जो दक्षिण दिल्ली के मोहम्मदपुर गांव में अगस्त क्रांति भवन के पास सफ़दरजंग एंक्लेव और अफ़्रीका एवन्यू के व्यस्त चौराहे पर है। हालंकि इस स्मारक की कोई देखरेख नहीं होती है और काफ़ी हद तक ये जर्जर भी हो चुका है लेकिन फिर भी ये लोगों को अपनी तरफ़ आकृष्ट कर लेता है। इस विशाल स्मारक के तीन बुर्ज इसकी ख़ासियत हैं और इसी से इसका नाम तीन बुर्ज पड़ा है।

इस्लामिक शैली का ये स्मारक बलुआ पत्थरों का बना हुआ है। इसमें तीन ख़ाने हैं जो एक दूसरे से लगे हुए हैं और प्रत्येक ख़ाने के ऊपर एक गुंबद है। बीच का अर्ध गोलाकार गुंबद सबसे बड़ा है जबकि दोनों गुंबद छोटे और सपाट हैं। स्मारक के अंदर नौ क़ब्रे हैं लेकिन ये किसकी हैं, ये पता नहीं चलता।

सवाल ये है कि “तीन बुर्ज” किसने बनाया और इसका मक़सद क्या था?

जिस तरह स्मारक के मालिकों की पहचान गुम है वैसे ही ये सवाल भी रहस्य से घिरे हुए हैं। यहां तक कि भारतीय पुरातत्व विभाग के पास भी इसका कोई जवाब नहीं है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने तीन बुर्ज को संरक्षित स्मारकों की सूची में रखा है लेकिन स्मारक में लगी पट्टिका से सिर्फ़ इतना ही पता चलता है कि ये स्मारक संभवत: “दिल्ली की लोदी राजशाही” का रहा होगा।

ऐसा कोई ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं मिलता जिससे पता चले कि इसका निर्माण किसने करवाया था और क्या ये वाक़ई लोदी शासनकाल का ही है। इन सवालों के जवाब हमें स्मारक में ही तलाशने होंगे।

तीन बुर्ज की वास्तुकला शैली लोदी शासनकाल में बनी मस्जिदों से काफ़ी मेल खाती है

दिल्ली में लोदी शासनकाल की शुरुआत 1451 में बाहलुल ख़ान लोदी से शुरु होकर 1526 में इब्राहीम लोदी पर ख़त्म होती है जिसे मुग़ल साम्राज के संस्थापक बाबर ने हराया था। ये स्मारक लोदी का है, इस तर्क को इस बात से भी बल मिलता है कि इसकी ऊंचाई काफ़ी है और ये मोहम्मदपुर में है जो लोदियों के ग्रीष्म महल मेहरोली/मुनीरका का विस्तार हुआ करता था।

संभवत: तीन बुर्ज कभी मस्जिद रहा होगा लेकिन क़ब्रों से लगता है कि बाद में इसका इस्तेमाल मक़बरे के रुप में किया जाने लगा होगा। स्मारक की भव्यता और मध्य गुंबद के आकार को देखकर कहा जा सकता है कि ये क़ब्रें लोदी समुदाय के संभ्रांत लोगों की हैं।

बाक़ी लोदी स्मारकों की तरह तीन बुर्ज की भी वास्तुकला में मुग़लकालीन स्मारकों की ना तो भव्यता दिखती है और न ही नफ़ासत। लोदियों ने विशाल और प्रभावशाली स्मारक नहीं बनवाए क्योंकि सैयद राजवंश से ख़ज़ाने में कुछ ख़ास नहीं मिला था। लोदी के पहले दिल्ली पर सैयद राजवंश का शासन हुआ करता था।

लोदियों ने शाही महल, बाग़, क़िले, चौकियां, राजधानी शहर, मस्जिदें या मदरसे नहीं बनवाए क्योंकि उनका सारा ध्यान मक़बरे बनवाने पर था और इसीलिए दिल्ली में उनके शासनकाल को मक़बरा-काल कहा जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि लोदी और सैयद के शासनकाल की वास्तुकला वित्तीय दिवालियेपन को दर्शाती है।

दिल्ली की वास्तुकला निधि में लोदी का प्रसिद्ध योगदान लोदी गार्डन में बने मक़बरे हैं। 90 एकड़ में फैले ख़ूबसूरत लोदी गार्डन में कुछ मध्यकालीन स्मारक हैं जिसमें सैयद राजवंश, सिकंदर लोदी के मक़बरे, शीशा गुंबद, सिकंदर लोदी के समय का मक़बरा और बड़ा गुंबद काफ़ी प्रसिद्ध हैं। बड़ा गुंबद परिसर में एक मस्जिद और सिकंदर लोदी की आरामगाह है।

सैयदों और लोदियों ने दो अलग अलग तरह से मक़बरे बनाए थे। पहले प्रकार में मक़बरे अष्टकोन में बने हैं जिनमें घनुषाकार के रास्ते हैं। इन मक़बरों की ऊंचाई एक मंज़िल तक है। दूसरे प्रकार के मक़बरे चौकोर हैं और उनमें रास्ते नहीं हैं तथा इनकी ऊंचाई दो या तीन मंज़िला है। तीन बुर्ज दूसरी श्रेणी में आता है।

बड़े मक़बरे लोदी वास्तुकला की विशेषता है जिन्हें लोदी गार्डन में देखा जा सकता है। दूसरी विशेषता इनकी समान ऊंचाई है। तीन बुर्ज की ऊंचाई बाक़ी लोदी मक़बरों की तरह ही है। इसके अलावा सभी मक़बरों का रंग भूरे जैसा है। ये मक़बरे अरावली पर्वतों से लाए पत्थरों से बनाए गए हैं इसलिए नके रंग भूरे हैं। तीन बुर्ज का भी रंग ऐसा ही है।

लोदी-युग में शासकों के लिए अष्टाकार और दरबार के उच्च अधिकारियों के लिए चौकोर मक़बरे बनवाए जाते थे। तीन बुर्ज चौकोर है इसलिए कहा जा सकता है कि इसके अंदर की कब्रें दरबार के अधिकारियों की हैं।

वजूद का संघर्ष

तीन बुर्ज अपनी पूरी शान के साथ मौजूद तो है लेकिन बढ़ती आबादी की वजह से अलग थलग पड़ गया है । 15वीं शताब्दी में जब इसे बनाया गया होगा तब यह बहुत चमतकृत करने वाला रहा होगा। उस समय इसके आसपास आबादी नहीं कही होगी। तब इसे दूर से देखा जाता रहा होगा।

क़रीब 325 साल पहले मुनीरका के गांव के किसान इसके पास ख़ाली ज़मीन में आकर बस गए थे ताकि वे अपने खेतों के क़रीब रह सकें। यहीं से तीन बुर्ज का पतन शुरु हुआ क्योंकि मोहम्मदपुर गांव फैलने लगा था और अतिक्रमण भी शुरु हो गया था जिससे मक़बरे को नुक़सान पहुंचना ही था।

आधुनिक युग में कच्ची बस्तियों और रिहायशी इलाकों का अतिक्रमण मक़बरे की दीवारों तक पहुंच गया है। कई जगह तो अतिक्रमण मक़बरे से बस कुछ इंच की दूरी पर हैं। ये अतिक्रमण आश्चर्यजनक हैं क्योंकि ये मक़बरा भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षित 174 स्मारको में आता है। क़ानून के अनुसार इन संरक्षित स्मारकों के आसपास 100 मीटर के दायरे में निर्माण नहीं होना चाहिये ।

तीन बुर्ज दिल्ली के इतिहास का ख़ामोश मगर गौरवशाली हिस्सा है जो दिल्ली से लुटयन दिल्ली तक फैला हुआ है। मगर अफ़सोस कि तीन बुर्ज बेनाम क़ब्रों की तरह देश की राजधानी में गुमनाम खड़ा है।

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