भारत का संविधान 26 नवंबर 1949 को निर्वाचित संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था। हमारी पहली संविधान सभा की कुल सदस्यता 389 थी। हालाँकि यह विधानसभा पुरुष-प्रधान थी, इसमें 15 शक्तिशाली महिलाएँ भी शामिल थीं। और उनमें से एक थी बंगाल की लीला रॉय।
लीला रॉय एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी थीं, जिन्होंने शिक्षा संस्थानों का नेतृत्व किया था। वह स्वतंत्रता संग्राम की बहादुर सिपाही थीं और जेल भी गईं थीं। वह लेखिका थीं और जनता की आवाज़ बन गई थीं। उन्होंने महिला-मुक्ति के लिये संघर्ष किया। वह एक समाज सुधारक भी थीं और सन 1946 के नवाखली के भयानक दंगों में उन्हेंने अद्भुत राहत कार्य भी किया था। अविभाजित बंगाल में वह एक ऐसी ताक़त बन चुकी थीं जिसकी अंदेखी नहीं की जा सकती थी। सुनिये लीला रॉय की कहानी…..
लीला रॉय का जन्म 2 अक्तूबर 1900 को, सिल्हट (अब बांग्लादेश में) के एक उच्च-मध्य वर्ग परिवार में हुआ था। पहले उनका नाम लीलाबती नाग था। उनके पिता ढ़ाका ज़िले के डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद से रिटायर हुये थे। लीला की शिक्षा बंगाल में हुई जो तब राजनीतिक और राष्ट्रवादी आंदोलन का केंद्र था। लड़कपन से ही वह स्वामी विवेकानंद, सिस्टर नवेदिता और राबिंद्रनाथ टैगोर से प्रभावित रहीं थी। कुछ ही समय बाद उन्होंने समकालीन स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी पहचान बना ली थी।
लीला ने सन 1921 में, बेथुन कालेज से बी.ए. किया और वह उसी साल अखिल भारतीय नारी मताधिकार समिति की सहायक सचिव बन गईं और महिलाओं के अधिकारों की मांग उठाने के लिये बैठकों का आयोजन करने लगीं। इसी समिति की वजह से वह पहली बार नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सम्पर्क में आईं थीं। उस समय नेताजी,1921-22 में, उत्तरी बंगाल में आयी बाढ़ के पीढ़ितों के लिये राहत कार्य का नेतृत्व कर रहे थे। लीला की टीम ने चंदा जमा करके नेताजी की ख़ूब मदद की । वह दोनों नहीं जानते थे कि यहीं से उस भागीदारी की शुरूआत होनेवाली थी जो जीवन भर चलती रही।
बी.ए. करने के बाद लिला ने ढ़ाका विश्व विद्यालय के ख़िलाफ़ भी विरोध का आयोजन किया, क्योंकि वहां सिर्फ़ लड़कों को ही प्रवेश मिलता था। विश्व विद्यालस को उनकी मांग के आगे झुकना पड़ा और उसने लड़कियों को भी प्रवेश देना आरंभ कर दिया। इस तरह 1923 में लीला ढ़ाका विश्व विद्यालय से एम.ए.पास करनेवाला पहली महिला बनीं।
इसी वर्ष उन्होंने अपनी सहेलियों के साथ मिल कर दिपाली संघ का गठन किया जिसका उद्देश्य शिक्षा का प्रचार और जीवन के अन्य क्षेत्रों में महिलाओं का चौतरफ़ा विकास करना था। दिपाली संघ ने कई स्कूल खोले जो महिलों के लिये राजनीतिक विचार-विमर्श और क्रांतिकारी विचारधारा के प्रचार के मुख्य केंद्र बन गये। लीला नहीं चाहती थीं कि आज़ादी की लड़ाई में, महिलायें पीछे रहकर काम करें बल्कि वह चाहती थीं कि महिलायें अगली पंक्ति में आकर लड़ाई लड़ें। कुछ ही समय में दिपाली संघ के, केवल ढ़ाका में, पांच सौ से ज़्यादा सदस्य बन गये थे। कुछ समय बाद, सन 1926 में ढ़ाका और कलकत्ता में दिपाली संघ की छात्राओं के लिये एक शाखा भी बन गई जिसका नाम दिपाली छात्रा संघ रखा गया। लीली रॉय ने कलकत्ता में छात्राओं और कामकाजी महिलाओं के रहने के लिये एक छात्रा-भवन भी बनवाया।
उन्होंने अपने आपको पूरी तरह सामाजिक कामों में झोंक दिया था और युवतियों को, व्यवसायिक कुशलता विकसित करने के लिये प्रोसाहित किया। उन्होंने महिलाओं के लिये एक आत्मरक्षा फ़ंड भी शुरू किया जो महिलाओं के लिये आत्मरक्षा के पाठयक्रम भी चलाता था। यह देश में अपनी तरह का पहला प्रयास था। कुछ वर्षों में उन्होंने महिलाओं के लिये कई स्कूल और शिक्षा संस्थान भी खोले। सन 1926 में लीला, श्री संघ नाम के क्रांतिकारी ग्रुप की कार्यकारिणी में शामिल होनेवाली पहली महिला बन गईं। यह ग्रुप अनिल रॉय ने बनाया था। बाद में लीला की शादी अनिल रॉय से ही हुई। उन्हीं की कोशिशों से ढ़ाका महिला सत्यग्रह संघ बनाया गया था जिसने नमक आंदोलन या दांडी सत्यग्रह में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था।
महिलाओं के अपने डर और विचारों को एक मंच देने के लिये उन्होंने बांग्ला भाषा में जयश्री पत्रिका नाम से एक मासिक पत्रिका भी शुरू की। पत्रिका का नाम उन्हें रबिंद्रनाथल टेगौर ने सुझाया था। लेखकों ने हर तरह के विषयों पर क़लम चलाई और क़बाइली क़ानूनों को चनौती दी। लीला ने लिंगभेद के आधार पर बनाये गये नियमों का जमकर विरोध किया और बंगाल में नारीवाद की हिमायती बन गईं। अपने इसी प्रयास में उन्होंने एक बार महात्मा गांधी को भी चनौती दे डाली ।
गांधीजी ने एक बार अपनी साप्ताहिक पत्रिका हरिजन में लिखा था, “मेरे विचार से महिला और पुरुष दोनों के लिये यह अपमानजनक होगा कि महिला अपने चूल्हा-चक्की की रक्षा के लिये, चूल्हा-चक्की को छोड़ कर, कंधे पर बंदूक़ रखले..अपने जीवन साथी से अपना असली काम छोड़ने के लिये कहने का पाप पुरुष के मत्थे जायगा।“ लीला रॉय ने, “महिला का असली काम चूल्हा-चक्की….” पर अपनी बात बड़ी सख़्ती से रखी। उन्होंने लिखा, “महिला और पुरूष के बीच घर और बाहर की दुनिया का रचा गया नक़ली विभाजन बिल्कुल अनावश्यक है। काम के स्थान चाहे वह घर में हों या घर के बाहर, महिला और पुरुष दोनों का उन पर समान अधिकार होना चाहिये। और अपने स्वभाव और ज़रूरत के हिसाब से, दोनों को अपनी इच्छा से काम करने के बराबर अधिकार होने चाहिये।”
लीला ने सिविल नाफ़रमानी आंदोलन में हिस्सा लिया। उन्हें छह साल की सज़ा दी गई। उन्होंने सन 1931 से लेकर सन 1937 का समय जेल में काटा। लेकिन उससे उनके जज़्बे में कोई कमी नहीं आई। जैसे ही वह जेल से बाहर आईँ, वह कांग्रेस में शामिल हो गईं। उसके अगले साल उन्होंने बंगाल प्रदेश कांग्रेस महिला संघ का गठन कर लिया। सन 1938 में उन्हें राष्ट्रीय योजना आयोग की उप-समिति का सदस्य मनोनीत किया गया। तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस का अध्यक्ष थे।
सन 1939 में लीला ने अनिल रॉय से विवाह कर लिया। जब सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस से इस्तिफ़ा दे कर फ़ारवर्ड ब्लाक पार्टी बनाई तो रॉय दम्पति भी उनके साथ चले गये। सन 1940 में जब बोस जेल गये तो लीला को फ़ारवर्ड ब्लाक की साप्ताहिक पत्रिका का संपादक बनाया गया। भारत छोड़ने से पहले सुभाष चंद्र बोस ने पार्टी की गतिविधियों की कमान लीला और अनिल रॉय को सौंप दी। अंगरेज़ भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, ब्रिटेन विरोधी गतिविधियों में हिस्सा लेने की वजह से दोनों को चार साल यानी सन 1942 से सन 1946 तक के लिये जेल भेज दिया गया।
जेल से छूटने के बाद, वह बंगाल के एक सामान्य-क्षेत्र से संविधान सभा के लिये चुनी गईं। लेकिन कुछ ही महिने बाद उन्होंने भारत के बंटवारे के विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बजाय उन्होंने नवाखली के दंगों में राहत कार्य करना पसंद किया। यह काम उन्होंने गांधीजी से अलग हटकर किया था, लेकिन फिर भी गांधीजी ने उनके काम की सराहना की थी। सन 1946 में, कलकत्ता में हुये ख़ूनख़राबे में, लीला ने हिंदू और मुसलमान दोनों की जान बचाने के लिये अदभुत साहस का परिचय दिया था।
आज़ादी मिलने के बाद उन्होंने कलकत्ता में बेसहारा और लावारिस महिलाओं के लिये महिला गृह खोले, उन्होंने पूर्वी बंगाल से आये विस्थापितों की भी बहुत मदद की। उन्होंने विस्थापितों को बसाने के लिये भरकस कोशिशें कीं। उन्होंन अनाधिकृत व्यक्ति बेदख़ल बिल-1951 का जमकर विरोध किया और उसके विरोध में धरने और प्रदर्शन आयोजित किये। उनके लगातार संघर्ष की वजह से बिल में रद्दोबदल किये गये और उसे विस्थापितों का पुनर्वास और अनाधिकृत क़ब्ज़ेवाली ज़मीन से व्यक्ति की बेदख़ली क़ानून 1951 के रूप में पारित किया गया ।
सन 1960 में वह, फ़ारवर्ड ब्लाक (सुभाष गुट) और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी मिलकर बनी नयी पार्टी की अध्यक्ष बनीं लेकिन वह उसके कामकाज से ख़ुश नहीं थीं। सन 1968 में तीव्र मस्तिष्क आघात की वजह से दो साल तक कोमा में रहने के बाद, 11 जून 1970 को उनका देहांत हो गया। उनकी मृत्यू के बाद लोकसभा में उन्हें श्रद्धांजलि दी गई और तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुये कहा था,“श्रीमती लीला रॉय ने गंभीर ख़तरे उठाकर और जान जोखिम में डालकर देश की सेवा की। उनकी देशभक्ति और साहस की वजह से उन्हें व्यापक रूप से सम्मान मिला।” सन 2008 में संसद के सेंट्रल हाल में, लीला रॉय के चित्र का अनावरण किया गया। 10 जनवरी 2009 को कोलकता के देशप्रिय पार्क में उनकी प्रतिमा का भी अनावरण किया गया।
लीला रॉय ने बंगाल की नई नस्लों को राजनीति में हिस्सा लेने और अपने अधिकारों के लिये लड़ने की प्रेरणा दी। वह कभी ऐसी ज़िम्मेदारियां लेने से पीछे नहीं हटें जो कभी सिर्फ़ पुरुषों के लिये सीमित थीं। जो स्कूल उन्होंने शुरू किये थे, वह आज भी ढ़ाका में सबसे अच्छे स्कूल माने जाते हैं और जयश्री पत्रिका आज भी उसके सैंकड़ों पाठकों को भिजवाई जाती है। उनकी भली और भावना से लबालब आत्मा को वर्षों तक नहीं भुलाया जा सकेगा।
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