लाल देद – कश्मीर की एक बाग़ी जोगन कवयित्री

शिव व्याप्त हैं थल-थल में

तू हिन्दू औ’ मुसलमान में भेद न जान,

प्रबुद्ध है तो पहचान अपने आपको

साहिब से यही है तेरी पहचान ।

शब्द हैं कश्मीर की सबसे मशहूर कवयित्री लाल देद के । उनके ये शब्द दो टूक तो हैं ही, ईमानदारी से भी भरे हैं । ये एक ऐसी महिला का परिचय कराते हैं जिसने एक ऐसे समाज से हटकर अपनी पहचान बनाई जो रुढ़िवादी था और पूर्वाग्रहों से ग्रसित था । बाल्यकाल से ही इस आदि कवयित्री का मन सांसारिक बंधनों के प्रति विद्रोह करता रहा जिसकी चरम परिणति बाद में भावप्रवण ‘वाक्-साहित्य’ के रूप में हुई । उन्होंने आस्था और लिंग जाति के बीच पुल का काम किया । लाल देद को आज महान साहित्यिक हस्ती मानी जाती हैं जिन्होंने आधुनिक कश्मीरी भाषा को परिभाषित किया । कश्मीरियों की कई पीढ़ियों के लिए वह एक आध्यात्मिक शख़्सियत रहीं जिनकी कविताएं क़रीब 700 साल से ज़िंदा हैं ।

जिस जगह उन्होंने जन्म लिया था वो आज बदक़िस्मती से धर्मों में बंट चुकी है लेकिन फिर भी लाल देद हिंदू और मुसलमानों के दिलों मे बसी हुई हैं जो उन्हें लल्लेश्वरी और लल्ला आरिफ़ा के नाम से याद करते हैं । माना जाता है कि लाल देद का जन्म ब्राह्मण परिवार में सन 1301 और सन 1320 बीच कभी हुआ था । इसके बाद का दौर काफ़ी राजनीतिक उथल पुथल का था ।

1320 में मध्य एशिया के क़बायली सरदार ज़ुल्चु ने कश्मीर पर हमला बोल दिया। इस हमले में कश्मीर के अंतिम हिंदु राजा सहदेव हार गए । माना जाता है कि ज़ुल्चु ने हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया और बड़ी तादाद में हिंदुओं को ज़बरदस्ती मुसलमान बना दिया । उसके जाने के बाद रियासत बदहाली की हालत में थी । उसके बाद स्वात ( जो अब पाकिस्तान में है ) से शम्सुद्दीन शाह ने हमला कर शाह मीर राजवंश की स्थापना की जिसने दो शताब्दियों तक बे-रोक टोक शासन किया।

लाल देद ऐसे समय पली बढ़ी जब चारों तरफ़ उथल-पुथल का माहौल था । उनके वाख (कश्मीरी शैली में चार पंक्तियों में लिखी जाने वाली कविता ) से हमें उनके जीवन की झलक मिलती है । प्राथमिक शिक्षा के बाद बारह साल की उम्र में लाल देद की शादी हो गई थी और तब की रिवायत के अनुसार उनका नया नाम पद्मावती रखा गया । बदक़िस्मती से उनकी शादी ज़्यादा चली नहीं । उनकी सास का उनके साथ बर्ताव अच्छा नहीं था । कहानी क़िस्सों से पता चलता है कि उनकी सास न सिर्फ़ उन पर ज़ुल्म करती थीं बल्कि भूखा भी रखती थीं। उनकी सास उनकी प्लेट में पहले एक पत्थर रखती थीं, उसके बाद उस पर चावल डाल देती थीं जिससे देखने वालों को ऐसा लगे मानों उनकी प्लेट चावल से भरी है ।

ऐसा ही एक और क़िस्सा है । एक दिन लाल देद के परिवार ने ईश्वर की और कृपा पाने के लिए दावत रखी जिसमें पड़ोसियों को भी बुलाया गया । पड़ोसियों ने लाल देद से मज़ाक़ करते हुए पूछा, “ आज तुम्हें जो ज़ायक़ेदार खाना मिलेगा उसमें से हमें भी दोगी न?” इस पर लाल देद ने कहा, “वे राम को मारें या भेड़ को, लल्ला को तो खाने में पत्थर ही मिलेगा” लाल देद की यह बात आज कश्मीर में एक प्रसिद्ध कहावत बन चुकी है ।

लाल देद को पति की तरफ़ से भी कोई हमदर्दी नहीं मिली। वह भी अपनी मां के बहकावे में आ गया था । सास ने लाल देद पर कई तरह के आरोप लगाए थे और उनमें से एक ये भी था कि उसका किसी पराये मर्द के साथ संबंध थे । उनकी सास को ऐसा इसलिए लगा क्योंकि लाल देद हर रोज़ सुबह पास की नदी से पानी भरने जाती थीं लेकिन शाम तक ही वापस आती थीं । दरअसल मंदिर के पार एक शिव मंदिर था । लाल देद शिव मंदिर जाती थीं लेकिन सास को ये नहीं पता था । लाल देद शिव भक्त थीं ।

कुल मिलाकर लाल देद की ज़िंदगी में ख़ुशहाली नहीं थी। लेकिन अपनी उम्र बाक़ी औरतों की तरह ये सब बर्दाश्त करने की बजाय उन्होंने ससुराल छोड़ दिया ।

हँसता, छींकता, खांसता, जम्हाई लेता

नित्य-स्नान तीर्थों पर वही है करता,

वर्ष के वर्ष नग्न-निर्वसन वह रहता

वह तुम में है, तुम्हारे पास है रहता ।

ग्रहस्थ जीवन त्यागने के बाद लाल देद जोगन बन गईं, उन्होंने वस्त्र भी त्याग दिए जो उन्हें रस्म-ओ-रिवाज का दिया एक बोझ लगता था ।

वह अपने भीतर अंतरात्मा को खोजना चाहती थीं । वह निर्वस्त्र होकर घूम घूमकर अपने गीत गाने लगीं और लोग उन्हें पागल समझने लगे थे ।

गुरु ने बात एक ही कही

बाहर से तू भीतर क्यों न गई,

बस, बात यह हृदय को छू गई

और मैं निर्वस्त्र घूमने लगी।

इसी दौरान उनकी मुलाक़ात गुरु संत श्रीकांत से हुई जिन्होंने उनकी धार्मिक यात्रा में उनकी मदद की।

हज़ारों बार मैंने गुरु से पूछा

शून्य को कम से कम एक नाम देने के लिए कहा

लेकिन मैं हार गई

तुम उसे क्या नाम दे सकते हो

जहां से सारे नामों का जन्म हुआ हो?

लाल देद के वाख (गीत) कश्मीरी साहित्य की आरंभिक अभिव्यंजना माने जाते हैं ।

लाल देद के साहित्य से ही आधुनिक कश्मीरी भाषा की नींव डली । 

उनके समय में कश्मीर में अलग अलग जगह के लोग रहते थे जिनकी बौद्ध, नाथ योगिन, ब्राह्मण, सूफ़ी और तंत्र में आस्था थी । लाल देद के वाख में इन तमाम आस्थाओं की झलक मिलती है ।

लाल देद का पहला ज़िक्र तज़किरत-उल-आरेफ़ीन (सन 1587) में मिलता है जो श्रीनगर के संत मख़दूम साहब के भाई मुल्ला अली रैना ने कश्मीर घाटी के संतो पर लिखी थी ।

आज लाल देद के नाम से 250 से ज़्यादा गीत उपलबंध हैं जो कश्मीर के लोकप्रिय लोकगीतों का हिस्सा हैं ।

रणजीत होसकोटे ने लाल देद के साहित्य का अध्ययन किया है और उनके गीतों का अनुवाद भी किया है। उन्होंने उनके गीतों का एक संकलन भी तैयार किया है । उनके काम का ये पैना संकलन ये बताता है कि, “उनके कवित्त में जिसमें कवयित्री की छाप दिखती है, ये दर्शाती है कि कवयित्री की यात्रा की शुरुआत एक ऐसी घुम्मकड़ की तरह होती है जो ख़ुद को लेकर असमंजस से जूझ रही है और एक विरोधी और निष्ठुर माहौल में किसी आश्रय की तलाश में है लेकिन फिर वो एक जिज्ञासु की तरह उभरती है जिसने खुले आस्मां की छाँव में अपना ठौर खोज लिया है जो उसकी अपनी मनस्थिति का ही पर्याय है। “

धुल गया मैल जब मन-दर्पण से

अपने में ही उसे स्थित पाया

तब सर्वत्र दिखने लगा वह, और

व्यक्तित्व मेरा शून्य हो गया।

लाल देद एक बाग़ी महिला थीं जिन्होंने पारंपरिक सामाज और उसके रीति-रिवाजों को ख़ारिज कर दिया था । वह धार्मिक कट्टरपन की विरोधी थीं । उनकी कविताओं में बग़ावत है । लाल देद की लगभग सत्तर साल की उम्र में मृत्यु हो गई । उन्होंने अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ी है जो लोगों को अपने भीतर झांकने, सोचने और सामाजिक बंधनों से मुक्त होने की प्रेरणा देती है। आज भी कश्मीरी बोलने वाले लोग बग़ैर लल वाख़ का प्रयोग किए बिना बात नहीं कर सकते क्योंकि उनकी बातें, उनके उपदेश कहावतों और मुहावरों के रूप में आम बोलचाल का हिस्सा बन गए हैं । कश्मीरियों के जीवन, उत्सवों, शादियों और पर्वो पर लाल वाख़ का प्रभाव आज भी गीतों के रूप में दिखाई देता है । हालंकि पक्के तौर पर उनके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता । यह भी हो सकता है कि जिन गीतों को उनका बताया जा रहा है, वो भी शायद बाद में जोड़तोड़ के लिखे गए हों, लेकिन फिर भी इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि लाल देद ने समाज को वो आवाज़ दी जो आज भी शोधकर्ताओं और आम लोगों को प्रेरित करती है।

चाहे लोग हँसें या हज़ारों बोल कसें

मेरे मन/आत्मा को कभी खेद होगा नहीं,

मैं होऊं अगर सच्ची भक्तिन शंकर की

आईना मैला कभी धूल से होगा नहीं ।

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