अंग्रेज़ों ने अपनी नयी राजधानी, नयी दिल्ली में सन 1930 में देहली गोल्फ़ क्लब बनवाया था, जहां आज भी अंग्रेज़ों के अंदाज़ में गोल्फ़ का आनंद लिया जाता है। लेकिन क्या आपको पता है, कि इस गोल्फ़ क्लब परिसर में एक मक़बरा भी है, जो एक ऐसे व्यक्ति को समर्पित है, जिसका नाम उसी सदी के दो अलग-अलग लोगों के साथ जुड़ा हुआ है?
सन 1779 में लाल और पीले बलुआ पत्थर से बना लाल बंगला एक महिला लाल कुंवर को समर्पित है, जिसे लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। सवाल ये है, कि आख़िर कौन-सी लाल कुंवर की रुह यहां आराम फ़रमा रही है? आइए संक्षेप में जानते हैं, इन दोनों महिलाओं के बारे में।
अट्ठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में लाल कुंवर नौवें मुग़ल बादशाह जहांदार शाह (शासनकाल 1712-13) की रखैल थी और उनके साथ यात्रा करती थी। हालांकि उसके प्रारंभिक जीवन के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन कई दस्तावेज़ों में दावा किया गया है, कि वह मियां तानसेन के रिश्तेदार ख़सुरियत ख़ान की बेटी थी। ख़सुरियत ख़ान का संबंध कलावंत समुदाय से था। वह लोग गाते थे, और ढ़ोलक, सारंगी भी बजाते थे।
जहांदार शाह, उत्तराधिकारी को लेकर हुये एक छोटे से संघर्ष के बाद 27 फ़रवरी सन 1712 को दिल्ली के तख़्त पर बैठे। औरंगज़ेब के पोते जहांदार शाह को अयोग्य शासक माना जाता था। उसका शासनकाल मुसीबतों से भरा था, लेकिन वो संगीत, शराब और भौतिक सुखों से डूबा रहता था। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार, एक दिन जहांदार ने लाल कुंवर को अपने दरबार में गाते हुए सुना, और उसकी ख़ूबसूरती और आवाज़ पर इतना फ़िदा हो गया, कि उसने आधी रात तक, लाल कुंवर का गाना सुना, और बाद में अपनी प्रेमिका घोषित कर, उसे ‘इम्तियाज़ महल’ का ख़िताब भी दे दिया।
जहांदार, लाल कुंवर की ख़ूबसूरती पर इतना फ़िदा था, कि वह उसकी हर ख़्वाहिश पूरी करता था। इस बात को साबित करने के लिये कुछ दिलचस्प घटनाएं हैं । लाल कुंवर के भाई नयमत ख़ान (1670-1748) को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ख़याल गायकी का दिग्गज माना जाता था। लाल कुंवर के कहने पर उसे ‘सदरंग’ का ख़िताब दिया गया, और मुल्तान का सूबेदार बना दिया। जहांदार की दीवानगी की वजह से लाल कुंवर को वो जो चाहती थी, मिल जाता था और वह मुग़ल दरबार को अपनी उंगलियों पर नचाती थी। उसके कई रिश्तेदारों और जानकार लोगों को ख़िताबों और इनामों से नवाज़ा गया। इस तरह एक साधारण कलावंत समुदाय एक मालदार बन गया। लाल कुंवर इतनी प्रभावशाली थी, कि कई आधुनिक इतिहासकार उसकी तुलना नूरजहाँ (1577-1645) से करते हैं। नूरजहाँ भी पर्दे के पीछे रहकर शासन चलाती थी। नूरजहां ने भी अपने रिश्तेदारों को पदवी दिलाने में अपने रसूख़ का ख़ूब इस्तेमाल किया था । दिलचस्प बात यह है, कि लाल कुंवर का सालाना भत्ता लगभग 2 करोड़ रुपये था!
लाल कुंवर से जुड़े कुछ क़िस्से हैं, जिनकी वजह से मुग़लों की इज़्ज़त को ठेस पहुंची। एक दिन जहांदार और लाल कुंवर दिल्ली की सड़कों पर बैलगाड़ी में घूम रहे थे। उन दोनों ने ज़रूरत से ज़्यादा ही शराब पी ली थी। लाल कुंवर क़िले में पहुंचने के बाद अपने कमरे में चली गई, लेकिन नशे में धुत जहांदार बैलगाड़ी में ही पड़ा रहा। लाल कुंवर का इतना प्रभाव था, कि जहांदार उससे राजनीतिक मामलों पर सलाह लेता था, और उसकी अजीब-ओ-ग़रीब इच्छाओं को भी पूरा करता था। ऐसा ही एक वाक़्या है, कि एक बार लाल कुंवर ने फ़ैज़ नहर के दोनों किनारे पर लगे पेड़ों को सिर्फ़ इसीलिए कटवा दिया था, क्योंकि वह देखना चाहती थी. कि पेड़ों के बिना नहर कैसी दिखाई देगी ! तब दरियागंज के पास फ़ैज़ नहर हुआ करती थी।
जहांदार और लाल कुंवर के गहरे संबंधों की वजह से शाही परिवार में दरार पैदा हो गई थी। औरंगज़ेब की छोटी बेटी और जहांदार की चाची ज़ीनत-उन-निसा सहित कई रिश्तेदारों ने रख़ैल से महारानी बनीं लाल कुंवर से दूरी बना ली थी। इस बीच फ़र्रुख़सियर हर चीज़ पर गहरी नज़रे टिकाये हुये था। फ़र्रुख़सियर, जहांदार के भाई अज़ीम-उस-शान (1664-1712) का बेटा था। अज़ीम-उस-शान को जहांदार ने उत्तराधिकार के संघर्ष में क़त्ल कर दिया था। फ़र्रूख़सियर, जहांदार से अपने बाप की मौत का बदला लेना चाहता था, और वह सैयद भाईयों की मदद से तख़्त पर बैठने की ठान चुका था।
फ़र्रुख़सियर ने सबसे पहले, सन 1712 के अंत में, इलाहाबाद में जहांदार के सैनिकों से लड़ाई लड़ी, जिसमें उसे ज़बरदस्त जीत हासिल हुई। इससे चौकन्ना होकर जहांदार और लाल कुवंर, 10 जनवरी सन 1713 को आगरा के क़रीब समुगढ़ में फर्रुखसियर का सामना करने के लिए एक साथ आए। इस युद्ध के दौरान जहांदार ज़ख़्मी हो गया। लाल कुंवर अपने हाथी पर बैठकर, अपने प्रेमी को बचाने के लिए दौड़ी और दोनों वहां निकल भागने में कामयाब हो गए। लाल कुंवर, जहांदार की हालत बेहतर होने तक उसकी तीमारदारी करती रही। अब चूंकि मैदान साफ़ हो गया था, फर्रुख़सियर ने ख़ुद को बादशाह घोषित कर दिया। उसने जहांदार और लाल कुंवर को ढूंढ़कर उन्हें क़ैद कर लिया। दिल्ली पहुंचने पर फर्रुख़सियर ने जहांदार को मौत की सज़ा सुनाई और 11 फ़रवरी, सन 1713 को जहांदार को फांसी पर लटका दिया। बाद में जहांदार को हुमायूं के मक़बरे में दफ़ना दिया गया। लाल कुंवर के आगे के जीवन के बारे में कई अनुमान लगाये गये हैं। कुछ लोगों का दावा है, कि वह राजस्थान में जा बसी थी जबकि कुछ लोगों का दावा है, कि वह दिल्ली में नाचनेवालियों की कंपनी में काम करने लगी थी, जहां उसे वज़ीफ़ा भी मिलता था।
सत्रहवें मुग़ल बादशाह शाह आलम- द्वितीय की मां का नाम भी लाल कुंवर था। उनके और उनकी बेटी बेगम जान के बारे में बमुश्किल कोई प्रासंगिक जानकारी मिलती है। कहा जाता है, कि उन्हें सन 1780 में लाल बंगले के निर्माण के दौरान यहां दफ़नाया गया था। ब्रिटिश इतिहासकारों सहित कई दूसरे अनुमानों में उनको यहां दफ़न किये जाने का दावा किया गया है। विवादित मक़बरों के अलावा लाल बंगले में उन्नीसवें मुग़ल बादशाह अकबर- द्वितीय (1806-1837) के परिवार के तीन मक़बरे भी हैं। उनके दफ़न की तारीख आज भी विवाद क़ायम है।
इन दो महिलाओं के बारे में जानने के बाद, पता चलता है कि 18वीं सदी की शुरुआत की लाल कुंवर, मुग़ल साम्राज्य में बहुत प्रभावशाली थी, इसलिये उसे अपने दौर की “नूरजहां” कहा जाता है। लेकिन दूसरी तरफ़ कुछ इतिहासकार इस मक़बरे को दूसरी लाल कुंवर का मक़बरा मानते हैं। बहरहाल इस मामले में किसी नतीजे पर पहुंचना अभी बाक़ी है। दिलचस्प बात यह है, कि दोनों महिलाओं की मौत के बारे में कुछ स्पष्ट नहीं है। हालांकि मुग़ल काल में महिलाओं के लिए मक़बरे बनाने की रिवायत थी, लेकिन इतिहासकारों को अभी तक इस बात के सबूत नहीं मिल सके हैं, कि ये मक़बरा किसने बनवाया था, और यहां कौनसी लाल कुंवर दफ़्न है।
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