दिल्ली में लाल क़िला और आगरा का क़िला भारत के दो सबसे महत्वपूर्ण मुग़ल क़िले हैं, जो भारतीय इतिहास की बड़ी घटनाओं और कई महत्वपूर्ण बदलाव के गवाह रहे हैं। लेकिन तीसरे क़िले भी मुगलों के लिए उतना ही महत्वपूर्ण था, लेकिन उसे उतनी अहमियत नहीं मिली जिसका वह हक़दार है। ये क़िला है लाहौर का शाही क़िला। चूंकि यह आज के पाकिस्तान में है, इसीलिए ज़्यादातर भारतीय इस बात से अनजान हैं, कि लाहौर में भी एक महान क़िला मौजूद है। लाहौर का क़िला ग्वालियर और चित्तौड़गढ़ की तरह ही भारत के सबसे महत्वपूर्ण क़िलों में से एक रहा है, और इसने मध्यकालीन भारतीय इतिहास को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
ये क़िला पुराने लाहौर शहर के उत्तरी छोर पर स्थित है। जो बात इसे उस ज़माने के अन्य क़िलों के बीच अनोखी बनाती है, वह यह है, कि यह हमलों और सत्ता का प्रतीक रहा है, जिसका सिलसिला मुग़लों से पहले और अंग्रेज़ों तक चला था!
कई दस्तावेज़ों में लाहौर क़िले के प्रारंभिक इतिहास के बारे में दावा किया गया है। सन 1959 में पाकिस्तान के पुरातत्व विभाग को खुदाई के दौरान, सन 1025 की कुछ कलाकृतियों के साथ सोने के सिक्के भी मिले थे। ऐसा दावा किया जाता है, कि महमूद गज़नवी (शासनकाल सन 998-1030 ) के युग के दौरान यह क़िला मिट्टी का बनवाया गया था। तब लाहौर को गज़नवी-साम्राज्य की पूर्वी राजधानी बनाया गया था। इसकी पुष्टि 11वीं सदी के मशहूर ईरानी विद्वान और इतिहासकार अल-बेरूनी के अभिलेखों में होती है।
12वीं सदी की शुरुआत में गज़नवी-साम्राज्य का पतन होने लगा था। चूंकि ये क़िला मध्य एशिया को भारतीय उप-महाद्वीप से जोड़ने वाले व्यापार मार्ग और व्यावसायिक रूप से एक ख़ुशहाल क्षेत्र पर स्थित था, इसीलिए इसे कई बार हमलावरों के हमले झेलने पड़े और इस दौरान इसे कई बार तोड़ दिया गया और कई बार दोबारा भी बनाया गया। मध्य एशिया के हमलावरों ने मिट्टी के क़िले पर हमला कर इसपर कब्ज़ा कर लिया था, लेकिन 16वीं शताब्दी के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में मुग़ल एक बड़ी ताक़त बनकर उभरकर आए, और उन्होंने इस क़िले पर कब्ज़ा कर लिया।
लाहौर किले के दोबारा बनाए जाने के साथ एक नए युग की शुरुआत हुई। तीसरे मुग़ल बादशाह अकबर ( सन1556-1605) की हुकूमत के दौरान मिट्टी की जगह इस क़िले को ईंटों से दोबारा बनाया गया। अकबर को विरोध का सामना करना पड़ रहा था, इसीलिए सन 1560 के दौरान उसने आगरा के बजाय लाहौर को अपनी राजधानी बनाने का फ़ैसला किया। दरअसल, काबुल का सूबेदार और अकबर का चचेरा भाई मिर्ज़ा मुहम्मद हकीम, अकबर को हराकर भारत में अपनी किस्मत आज़माना चाहता था। उसे कुछ कट्टरपंथियों का समर्थन हासिल था, जो अकबर की धार्मिक नीतियों से नाख़ुश थे। हालांकि अकबर और हकीम दोनों का कभी आमना-सामना नहीं हुआ, क्योंकि हकीम वापस भाग गया था। लेकिन इस घटना से अकबर को अपने उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों को एकजुट करने और मज़बूत बनाने के लिए एक सैन्य गढ़ की आवश्यकता महसूस हुई।
सन 1586 और सन 1598 के बीच लाहौर क़िला मुग़ल सल्तनत का ताक़तवर सत्ता केंद्र बन गया, जहां से अकबर ने कश्मीर, मुल्तान, सिंध, बलूचिस्तान और कंदहार के लिए अपने सैन्य अभियान चलाए। सन 1599 में लाहौर में एक सूबेदार को नियुक्त कर, अकबर ने आगरा को दोबारा अपनी राजधानी बना ली।
अकबर के जानशीन जहांगीर (शासनकाल 1605-1627) को अपनी हुकूमत के दौरान लाहौर क़िले के भीतर बमुश्किल किसी बड़े विरोध का सामना करना पड़ा। सन 1606-1608 के बीच क़िले में रहने के दौरान जहांगीर अपना समय या तो अपने दरबार लगाने में बिताता था या फिर काबुल और मुल्तान में शिकार खेलने जाता था। जहांगीर के बेटे ख़ुसरो और शाहजहां दोनों का क़िले से ख़ास रिश्ता था। जब जहांगीर ने सत्ता संभाली, तो ख़ुसरो ने बग़ावत कर दी, और पाचवें सिख गुरु अर्जन के आशीर्वाद से लाहौर क़िले की घेराबंदी कर दी। विद्रोह को कुचलने के साथ ही गुरु को लाहौर के क़िले में क़ैद कर दिया गया, जहां उनकी जान ले ली गई । क़िले के नज़दीक स्थित गुरुद्वारा डेरा साहिब गुरु के बलिदान की निशानी है।
शाहजहॉ का जन्म लाहौर क़िले में ही हुआ था। यह क़िला शानदार स्थापत्य कला का नमूना भी था। लेकिन यह क़िला शाहजहां (शासनकाल 1628-1657) और उनके विरोधी शहरयार के बीच लड़ाई का भी गवाह रहा। अगले उत्तराधिकारी की लड़ाई में शाहजहां ने जनवरी सन 1628 में अपने पिता जह़ॉगीर की पत्नी यानी अपनी सौतेली मॉ नूरजहां के समर्थन को हासिल किए शहरयार को हराया। उसके बाद, शाहजहॉ के नाम पर ख़ुतबा पढ़ा गया और उन्हें तख़्त का नया वारिस घोषित कर दिया गया।
लाहौर का क़िला सन 1651 में शाहजहां के बेटे दारा शिकोह का गढ़ बन गया था । दारा शिकोह, मुग़ल-सफ़विद युद्ध (सन1649-1653) के दौरान अपने सैनिकों को यहां से कंदहार ले गया था , जहां मुग़लों की शर्मनाक हार हुई थी। सन 1658 में सामूगढ़ की लड़ाई में हार के बाद फ़रार होते हुए दारा शिकोह यही रुका था। इसके बाद, भाई औरंगज़ेब ने दारा शिकोह को गिरफ़्तार करवा कर उसकी हत्या करवा दी थी।
सन 1707 में औरंगज़ेब की देहांत के बाद मुग़ल सलतनत का पतन शुरू हो गया और पहले की तरह इसपर हमले फिर होने लगे। इस पर मुग़लों, मराठों और अफ़ग़ान दुर्रानियों के कब्ज़े के बाद क़िला अंततः सन 1760 में सिखों के हाथों में आ गया। सन 1799 में क़िले पर महाराजा रणजीत सिंह का क़ब्ज़ा हो गया। रणजीत सिंह ने इसे अपना प्रमुख क़िला बना लिया। यहीं उनकी ताजपोशी भी हुई। उन्होंने यहां एक टकसाल भी बनाई, और उन्हें सरकार की उपाधि भी यहीं मिली थी।
अगले चार दशकों तक लाहौर का क़िला न केवल रणजीत सिंह का रणनीतिक आधार रहा, बल्कि आरामगाह भी रहा। सन 1813 में अफ़ग़ान शासक शाह शुजा की ये एक अस्थायी शरणस्थली भी रहा, जिसे सत्ता से बेदख़ल कर दिया गया था। यहीं दलीप सिंह का जन्म भी हुआ था। लेकिन रणजीत सिंह के देहांत के बाद अगले सिख शासक के लिए हुए संघर्ष के दौरान क़िले पर ख़ूब बमबारी हुई।
सन 1849 में सिखों को हराने के बाद अंग्रेज़ों ने लाहौर क़िले पर कब्ज़ा कर लिया, और सन 1924 तक उन्होंने इसका इस्तेमाल एक सैनिक छावनी की तरह किया। भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्ज़न के आदेश पर 20वीं शताब्दी की शुरुआत में इसकी मरम्मत का काम शुरु हुआ। सन 1947 में विभाजन के बाद लाहौर क़िला पाकिस्तान का हिस्सा बन गया।
यूनेस्को ने सन 1981 में इसे अपनी विश्व धरोहर की सूची में रख लिया। हाल के दिनों में ऐसे कई ऐतिहासिक स्मारकों की मरम्मत का शुरु हुआ है। बहरहाल, लाहौर का क़िला मुग़ल वास्तुकला की बेहतरीन मिसालों में से एक है। यहां आप लाल बलुआ-पत्थर से लेकर संगमरमर तक के विभिन्न प्रकार के कच्चे माल से बनी, 21 रचनाओं के ज़रिये, इस क़िले के इतिहास से रुबरु होते हैं।
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