मारवाड़ के नागौर क्षेत्र की भूमि जो देश प्रेम, त्याग, शौर्य और बलिदान की अमर गाथाओं की वजह से दुनिया भर में मशहूर है, वहीं लोक कला, साहित्य, संस्कृति और स्थापत्य के क्षेत्र में भी सदा जानी जाती रही है। इसी ज़िले का लाडनूं शहर अपनी नैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और सामाजिक चेतना तथा आध्यात्मिक दृष्टि से भी काफ़ी समृद्ध रहा है। आईए, आज आपको इस क़स्बे की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि से रूबरू करवाते हैं।
लाडनूं ज़िला मुख्यालय नागौर से 100, जोधपुर से 250 और जयपुर से 210 किमी दूर, डेगाना-दिल्ली-जोधपुर रेल्वे मार्ग पर बसा हुआ है। यहाँ स्थित जैन सरस्वती प्रतिमा इस क़स्बे की विशेष पहचान है, इसके अलावा तेरापंथ के आचार्य तुलसी और महा प्रज्ञ की कर्म स्थली रही है। यह क़स्बा 8 पट्टियों और 48 गलियों में सुंदर तरीक़े से बसा हुआ है। जो कि अन्य क़स्बों मुक़ाबले अपनी अलग पहचान रखता है। मध्यकाल में विभिन्न सैनिक अभियानों का महत्वपूर्ण पड़ाव स्थल भी रहा है। समृद्धशाली इस क़स्बे को सेठाणा नाम से जाना जाता था। शहर की बड़ी झरोखेदार हवेलियां और संकरी गलियां आज भी अपनी जीवंतता की प्रतीक हैं। प्राचीन बावड़ी, कुएं और तालाब यहां के प्रमुख जल स्त्रोत रहे हैं। मोहिल (चौहान) शासकों ने यहां कई स्मारक बनवाए थे । इसी वजह से इस क्षेत्र को मोहलवाटी (लाडनू, चुरू) के नाम से भी जाना जाता है। बादशाह अकबर के समय यहां का राजस्व दो लाख और जहांगीर के समय तीन लाख 41 हज़ार रूपए था। यहां के ठिकाने को पालकी, सिरोपाव सम्मान, निशान, छड़ी के साथ लवाज़ में का अधिकार प्राप्त था। सन 1952 में मथुरादास माथुर यहां से पहले विधायक बने थे।
लाडनूं के बारे में सम्राट पृथ्वीराज चौहान के राज कवि चंदबरदाई के लिखे ग्रंथ पृथ्वीराज रासो के अलावा अनेक साहित्यकारों ने अपने लेखों में विस्तार से वर्णन किया है। विभिन्न पुरातात्त्विक सबूतों के आधार पर यह क़स्बा आठवीं से सोलहवीं सदी तक एक शानदार नगर रहा था। उस समय यह बूढ़ी चंदेरी, गंधर्व वन, महिपतिपुर, खडत्यावास के नाम से जाना जाता था। सच यह है, कि यह नगर और इसके आस-पास का क्षेत्र जैन संस्कृति का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है।
लाडनूं का समीपवर्ती क्षेत्र छापर-द्रोणपुर के नाम से भी जाना जाता है। महाभारत काल में यह शिशुपाल वंशीय डाहलिया पंवारों के अलावा जोहियों, मोहिल (चौहान), राठौड़-जोधा राजवंश के अधिन रहा था। इस क़स्बे का नाम आते ही यहां का प्राचीन इतिहास, इस पुण्य और वीर भूमि की महान गाथाएं, वीर-योद्धाओं का मातृ-सम्मान, मिट्टी के कण-कण में घुला मानवीय शौर्य, सजीव कला, मंडितगढ़, मंदिर, मठ, विहार, सभा मंडप, तोरण, झाली-झरोखे और अटालिकाएँ नज़रों के सामने घूमने लगती हैं। । यहां के प्राचीन और भव्य क़िले की प्राचीरों में चूने हुए ख़ामोश अवशेष, भूमि की परतों में दबी अनकही-कहानियां, यहां के लाडलों का जीवन चक्र, एक के बाद एक घटी यहां की ऐतिहासिक घटनाएं, जिन्हें याद करते ही सिहर उठता है तन-मन आत्म-गौरव से भर जाता है।। इस क़स्बे में श्री चारभुजानाथ, श्री दिगम्बर, श्वेताम्बर मंदिर के अलावा मस्जिदें, सुख आश्रम, बावड़ी, गढ़ के अवशेष, कलात्मक भव्य छतरियां, शिलालेख, संस्थाएं हैं। आचार्य तुलसी की जन्म-स्थली के रूप में यहां कला, ज्ञान और ध्यान की त्रिवेणी बहती है। जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय के अलावा यहां की जैन सरस्वती की प्रतिमा अद्वितीय है।
श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर
वैसे तो इस नगर में कई प्राचीन धरोहरें मौजूद हैं ,लेकिन इनमें से जैन कला और संस्कृति का स्थापत्य और पुरातत्व महत्व का श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर अतिशय क्षेत्र मुख्य धरोहर का केन्द्र है। चारों ओर बालू रेत के टीलों के बीच बसे इस प्राचीन नगर पर प्रतिहार, चौहान और राठौड़ वंशों का राज रहा है। ख़ासतौर से आठवीं से चौदहवीं शताब्दी तक यहां धर्म के साथ शिल्पकला की भी उन्नति भी हो रही थी। इस नगर के मध्य में स्थित प्राचीन काल का जैन मंदिर भारतीय स्थापत्य कला की अनुपम देन है। मंत्री अनिल पहाड़िया बताते हैं कि इस मंदिर में भगवान श्री शांतिनाथ अजितनाथ, ऋषभदेव, नेमीनाथ, पार्श्वनाथ, आदिनाथ, महावीर स्वामी, श्री चन्द्रसागर स्मारक सहित सताधिक जिनेन्द्र प्रतिमाएं, पांच विशाल जिनालयों की शोभा बढ़ा रही हैं। यहां जैन संस्कृति को ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने वाली सांस्कृतिक धरोहर स्थापित है।
यह मंदिर मूर्ति और स्थापत्य कला की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण और समृद्ध रहा है। लगभग 10 से 15 फ़ुट ज़मीन के आंदर एक प्राचीनतम मंदिर का विशाल हिस्सा आज भी मौजूद है। भूगर्भ में पत्थरों के तीन स्तम्भों पर खड़ा यह भूगर्भीय मंदिर आज भी आम लोगों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि यह मंदिर खुदाई में निकला था। इसी मंदिर के ऊपर पहली मंज़िल पर एक भव्य जिनालय का निर्माण करवाया गया। इस दौरान यहां से कई प्रकार के पूजा पत्र, मूर्तिया, स्तम्भ, शिलालेख, धातु के बर्तन सहित अन्य पुरातन महत्व की चीज़ें निकली थीं। इन पर अलग-अलग वर्ष और तिथि अंकित हैं। यहां की मुख्य देव प्रतिमा शांतिनाथ भगवान की पद्मासन युक्त संगमरमर से निर्मित इस प्रतिमा की वेदी के मण्डप की छत नक़्क़ाशी और सुक्ष्म कारीगरी की बेमिसाल देन है। इस पर विभिन्न मुद्राओं में स्त्री-पुरूष, नृत्य करती मूर्तियां उकेरी हुई हैं। इस भूगर्भीय मंदिर के चार कलापूर्ण प्रवेश-द्वार बने हुए हैं। पत्थर के स्तम्भों पर देव और देवियों की मूर्तियों के अलावा बेलबूंटे भी बने हुए हैं। इन खम्भों पर कई लेख भी अंकित हैं। लेकिन इनमें से एक ब्राह्मी लिपि और संस्कृत भाषा का माना जा रहा है। इस मंदिर की विश्व प्रसिद्ध जैन सरस्वती मूर्ति तोरण की चौकी पर पद्मासन मुद्रा में चतुर्भुजी लाजवाब है। इस मूर्ति पर संवत् 1219 (सन 1162) अंकित है।
इसके अलावा यहाँ 10वीं से 13वीं सदी तक की अनेक जिन प्रतिभाओं के साथ आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की अष्ट धातु प्रतिमा भी स्थापित की हुई है। मंदिर में दो स्तम्भों पर चरण पादुका चिन्ह के साथ एक लेख भी अंकित है। इस मंदिर का गगनचुम्बी शिखर दूर से ही नज़र आ जाता है। बारीक कलाकृति युक्त यह शिखर मंदिर की सुंदरता पर चार-चांद लगा रहा है। यह मंदिर जैन दर्शन सिद्धान्तों, जिनकल्याण, तीर्थ क्षेत्र, मुनि उपसर्ग आदि की सुंदर स्वर्णकारी और चित्रकारी से सुशोभित है। नगर में नसिया, राहू गेट, गौशाला, नीलकण्ठ महादेवरा, करंट बालाजी, रामद्वारा, दरगाह सहित अन्य कई जन-आस्था केंद्र हैं।साथ ही पर्यटक स्थल मौजूद हैं। लाडनूं 8 पट्यिों और 48 गलियों के सुंदर गृह विन्यास के रूप में भी जाना जाता है।
एपिग्राफ़िया इण्डिका पर दर्ज शिलालेख में ‘‘नागपत्तन’ का उल्लेख मिलता है:
सपादलक्षादथ नागपत्तनात् प्राचीदिशायां जलवर्जितं पुरम्।
लेख में राजा साधारण का वर्णन मिलता है। यह लेख संस्कृत भाषा में तिथि भाद्रपदवदि 3 शुक्रवार विक्रम संवत 1373 (सन 1316) का है। इसमें राजा साधारण द्वारा सपादलक्ष प्रदेश की राजधानी नागपत (नागौर) से साढ़े सात योजन की दूरी पर स्थित लाडनू नामक स्थान पर एक बावड़ी खुदवाने और उसकी प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख हुआ है। साथ ही हरितान प्रदेश के नगर ढ़िल्ली (दिल्ली) के शासकों की नामावली भी दी गई है। एक जैन प्रतिमा पर संवत 1303 ( सन 1246) उकेरे हुए हैं।
लाडनूं जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा में तेरापंथ धर्मसंघ में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसी पंथ के नवें आचार्य श्री तुलसी के समय संघ का सर्वतोमुखी विकास के साथ नए आयाम जुड़े थे। इनमें से मुख्य रूप से जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय की वजह से दुनिया के नक़्शे पर उभर कर आया है। क़स्बे में रंगाई-छपाई उद्योग के तहत चुनड़ी, लहरिया, पोमचा आदि विधाओं को नए आयाम मिले हैं। इसके अलावा रबर-टायर उद्योग, रसगुल्ला मिठाई, पत्थर उद्योग के अलावा सौंप चुरी का व्यवसाय भी यहां की पहचान बने हुए हैं। लाडनूं की प्राचीन हवेलियों में बड़े चौक रखने की परम्परा रही है। भवन समन्वय शैली के तहत हिन्दू, मुस्लिम, राठौड़ आदि शैलियों का अद्भूत मिश्रण है। राठौड़ जोधा खांप शासकों की कलात्मक भव्य छतरियाँ कला की दृष्टि से अमूल्य धरोहर हैं। यह क़स्बा सेठाणा के अलावा थली प्रदेश का प्रवेश-द्वार भी कहलाता है। नगर प्रहरी वीर रमणी सुरजन (सुरजा), संत गोविन्ददास महाराज और आचार्य महा प्रज्ञ की भी साधना स्थली रही है। प्राचीन भारत के प्रमुख व्यापारिक राजमार्ग पर स्थित होने के कारण लाडनूं सैदव जोधपुर, अजमेर और नागौर की राजसत्ताओं के नियंत्रण में रहा था। इस शहर की प्राचीनता और इतिहास से संबंधित कई धारणाएं आज भी आम लोगों में प्रचलित हैं।
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