जब भी हम महान भारतीय योद्धाओं और स्वतंत्रता सैनानियों की बात करते हैं, तो अमूमन उन वीर योद्धाओं का ज़िक्र करते ,हैं जिन्होंने ज़मीन पर लड़ाईयां लड़ी थीं| लेकिन ज़मीनी युद्ध के पहले यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियां के ख़िलाफ़ भारत ने समंदर में भी जंगें की थीं। समंदर में युद्ध करने वालों में केरल के मालाबार क्षेत्र के नौ-सेना-योद्धाओं का नाम सबसे पहले आता है, जिन्हें “कुन्याली मरक्कार” कहा जाता था। ऐसा कई इतिहासकार भी मानते हैं, कि इन्होनें स्वतंत्रता की लड़ाई का बिगुल सोलहवीं शताब्दी में ही बजा दिया था I
प्राचीन और मध्यकालीन युग में काली मिर्च को “काला सोना” माना जाता था, क्योंकि तब आज के ज़माने की तरह फ़्रिज नहीं हुआ करते थे और भोजन को ख़राब होने से बचाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता था। केरल के मालाबार क्षेत्र में काली मिर्च सबसे ज़्यादा होती थी, जहां से पूरी दुनिया में इसका निर्यात होता था। मालाबार और मिस्र के बीच सबसे ज़्यादा नफ़े वाले काली मिर्च के व्यापार पर मरक्कारों का नियंत्रण होता था, जो अरब व्यापारियों के वंशज थे। ये अरब व्यापारी 7वीं सदी में मिस्र से यहां आकर बस गए थे। वेनिस के व्यापारियों की वजह से काली मिर्च यूरोप में पहुंची थी। मालाबार में जो काली मिर्च चार डुकाट (वेनिस के सोने के सिक्के) में ख़रीदी जाती थी, वो लिस्बन (पुर्तगाल) में 80 डुकाट यानी बीस गुना अधिक दामों में बिकती थी। इसकी वजह से पुर्तगाली समंदर के रास्ते भारत पहुंचने के लिए बेताब रहते थे, ताकि काली मिर्च के व्यापार में बिचौलियों को ख़त्म किया जा सके।
सन 1498 में पुर्तगाल का नीविक वास्को डा गामा ने भारत के लिए नए व्यापार का मार्ग खोजा और कालीकट पहुंचा। उसी के बाद से व्यापार का तौर तरीक़ा बदल गया। इस समय केरल कई रियासतों में बंटा हुआ था और कोई केंद्रीय सत्ता नहीं होती थी। इन रियासतों में सबसे शक्तिशाली रियासत कालीकट थी, जहां ज़ामोरिन का शासन होता था।
हालांकि पुर्तगाली भारत व्यापार करने आए थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपने बड़े जहाज़ों और युद्धशस्त्रों की मदद से व्यापार पर एकाधिकार जमाना शुरु कर दिया। उन्होंने केरल में कालीकट से लेकर गुजरात तट पर दीव तक पूरे भारतीय पश्चिमी तट पर क़रीब क़रीब पूरा नियंत्रण कर लिया। इससे सबसे ज़यादा मरक्कारों व्यापारी प्रभावित हुए, क्योंकि अरब महासागर में व्यापार पर उनका नियंत्रण ख़त्म हो गया।
इस दौरान भारत के सत्ता केंद्रों ने समंदरों पर दोबारा नियंत्रण करने की कोशिशें कीं, लेकिन नाकाम रहे। इस कड़ी में दीव का युद्ध (सन1509) बहुत प्रसिद्ध है। मिस्र और गुजरात के सुल्तानों और कालीकट के ज़ामोरिन के संयुक्त नौ-सेना बेड़ों ने पुर्तगाली जहाज़ों से लोहा लिया लेकिन बुरी तरह हार गए। इसके बाद सत्ता सुंतलन पुर्तगालियों के पक्ष में चला गया। दीव के युद्ध के बाद पुर्तगालियों ने सन 1510 में बीजापुर सुल्तानों, गोवा, के बंदरगाह पर क़ब्ज़ा कर लिया। समुद्र व्यापार पर एकाधिकार के लिए उन्होंने गोवा से समुद्री मार्ग पर नाकेबंदी कर दी, जिसकी वजह से अरब व्यापारियों का जहाज़ों से सामान सीधे अरब भेजना बंद हो गया। उन्होंने जहाज़ों के लिए पास-व्यवस्था अनिवार्य कर दी और पास न होने पर जहाज़ों को ज़ब्त किया जाने लगा। पुर्तगाली मरक्कार व्यापारियों को पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहते थे।
आख़िरकार मालाबार की आंतरिक राजनीति में पुर्तगालियों के बढ़ते प्रभाव से तंग आकर कालीकट के ज़ामोरिन ने सन 1524 में मरक्कारों के साथ एक समझौता कर उन्हें व्यापार करने का औपचारिक अधिकार दे दिया जो इसके पहले पुर्तगालियों के दबाव की वजह से उनसे छीन लिया गया था। व्यापार के अलावा मरक्कारों को सशस्त्र प्रतिरोध करने की भी इजाज़त मिल गई। ज़ामोरिन ने मरक्कारों के नेता को ‘कुन्याली’ (कुंजाली) अथवा ‘अली के प्रिय’ का भी ख़िताब दिया।
कुट्टी अहमद अली-कुन्याली मरक्कार – प्रथम (1524-1538)
कुट्टी अहमद अली कुंजाली मरक्कार का ख़िताब पाने वाला पहला कमांडर था। उसने कुन्नूर में अपनी छावनी स्थापित की और तेज़ रफ़्तार से चलने वाले जहाज़ बनाए जिन्हें 30-40 नाविक चप्पू से चलाते थे।
इन जहाज़ों की मदद से कुट्टी अहमद अली ने पंतलयानी, कोल्लम और पोन्नानी में पुर्तगालियों को कई बार हराया, जिसकी वजह से कालीकट में पुर्तगालियों की ताक़त कम हो गई। इसके बाद कुन्याली मरक्कार ने श्रीलंका, मालदीव और पूर्वी भारत के समुद्र तटों की तरफ़ रुख़ किया और पुर्तगालियों को शिकस्त दी। लेकिन सन 1534 में कासीमेदू (मौजूदा समय में चेन्नई में रोयापुरम) की लड़ाई में पुर्तगालियों ने उसको पकड़कर उसकी हत्या की।
कुट्टी पोक्कर अली- कुन्याली मरक्कार – द्वितीय (1538-1570)
कुट्टी अहमद अली के पुत्र कुट्टी पोक्कर अली ने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाते हुए पुर्गालियों के ख़िलाफ़ छापामार युद्ध किया और कोरोमंडल तथा श्रीलंका में उन्हें (पुर्तगाली) को भारी नुक़सान पहुंचाया। इसके बाद पुर्तगालियों को पुन: व्यापार स्थापित करने के लिए मजबूरन सन 1540 में ज़ामोरिन के साथ संधि करनी पड़ी। कुट्टी अली ने उल्ला (मैंगलोर के पास) की रानी अब्बक्का चौटा के साथ गठबंधन किया, जो पुर्तागालियों के ख़िलाफ़ लड़ रहीं थीं। सन 1570 में कुट्टी अली की प्राकृतिक कारणों से मृत्यु हो गई।
पट्टू मरक्कार- कुन्याली मरक्कार -तृतीय (1570-1595)
कार्यभार संभालने के बाद पट्टू ने पुतुपत्तनम में एक नया क़िला और बंदरगाह बनाया, जिसका नाम मराक्कर कोट्टा रखा गया। ये मरक्कारों की नौ-सैनिक छावनी हुआ करती थी। उसने अपनी नौसेना के हथियारों में भी सुधार किया। उसके शासनकाल में ही कोरोंडल से पुर्तगालियों का पूरी तरह सफ़ाया हो गया और वे पुलिकट और संथम (मौजूदा समय में चेन्नई) तक ही सीमित होकर रह गए।
लेकिन दुखद बात ये है, कि मरक्कारों को कालीकट के ज़ामोरिन ने धोखा दे दिया। सन 1584 में ज़ामोरिन ने पुर्तगालियों के साथ एक संधि कर उन्हें बिना पास समुद्र मार्ग का इस्तेमाल करने की इजाज़त दे दी। चार साल बाद पुर्तगालियों ने ज़ामोरिन की इजाज़त से कालीकट में अपना अड्डा फिर बना लिया। सन 1595 में कुंजाली मरक्कार -तृतीय का निधन हो गया।
मोहम्मद अली- कुन्याली मरक्कार -चतुर्थ (1595-1600)
चार मरक्कारों में सबसे प्रसिद्ध मोहम्मद अली मरक्कार था। उसने मरक्कार कोट्टा को मज़बूत किया और उसका नाम कैप ऑफ़ गुड होप से लेकर चीन तक फैल गया था। कहा जाता है कि वह “लॉर्ड ऑफ़ इंडियन सीज़ (भारतीय समुंदरों का भगवान)” और “मप्पिला के राजा” के रुप में रहता था। कहा जाता है, कि उसने पुर्तगालियों को कई बार हराया था। मरक्कारों के ख़तरे को हमेशा के लिए ख़त्म करने के लिए पुर्तगालियों ने कालीकट के ज़ामोरिन के साथ हाथ मिला लिया और दोनों की संयुक्त सेना ने मरक्कार कोट्टा पर हमला बोल दिया। पुर्तगालियों ने जहां समुद्र से धावा बोला वहीं ज़ामोरिन ने ज़मीनी आक्रमण किया। आख़िरकार कुंजाली मरक्कार -चतुर्थ को आत्मसमर्पण करना पड़ा। मार्च सन1600 में उसे गोवा में पकड़ा गया और फांसी पर लटका दिया गया और उसका सम्मान के साथ अंतिम संस्कार भी नहीं किया।
मरक्कार की फांसी के समय उसका चचेरा भाई अली मरक्कार भी मौजूद था, जो उस समय 16 साल का था और पुर्तगालियों की क़ैद में था। फांसी लगने का दृश्य देखकर वह परेशान गया और किसी तरह गोवा से भागकर मालाबार पहुंचा, जहां उसने अपने समर्थकों को जमा किया, डच (नीदरलैंड) से संपर्क किया और ज़ामोरिन के साथ उनकी संधि (1604) करवाई। इसके बाद में उसने पुर्तगालियों के जहाज़ों और बंदरगाहों को लूट लिया। 17वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीय समुद्री परिदृश्य से पुर्तगालियों का पतन हो गया और डच का उदय हुआ। डच के बाद फ्रांस, डेनमार्क और अंग्रेज़ों का भारत में आगमन हुआ।
इस बीच स्थाई शासन के बावजूद पुर्तगालियों और कोचीन तथा त्रावणकोर जैसी छोटी रियासतों के साथ लगातार झड़पों की वजह से ज़ामोरिन का प्रभाव कम हो गया। उधर 18वीं शताब्दी तक तटीय नौपरिवहन पर मरक्कारों के हमले जारी रहे और फिर अंग्रेज़ों ने अपनी सैन्य शक्ति से मालाबार तट पर अपना प्रभाव जमा लिया। इस तरह मरक्कारों के हमले बंद हो गए और वे जहाज़ बनाने तथा व्यापार करने लगे।
बहरहाल, सालों के दौरान मरक्कार स्थानीय लोक-कथाओं, गीतों, फिल्मों और साहित्य में अमर हो गए। उनके नाम पर कई संस्थानों के नाम भी रखे गए। राष्ट्रीय सेवा अकादमी (पुणे) औऱ कई संस्थानों में मोहम्मद अली की अर्ध प्रतिमा लगी हुई है।
राज्य पुरातत्व विभाग ने कोझिकोड में मराक्करों के मकान को स्मारक में तब्दील कर दिया है। स्मारक में एक संग्रहालय भी है, जिससे मरक्कारों के इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है। कई लोगों के लिए ये पुर्तगालियों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का प्रतीक है। वहीँ इतिहासकार मानते हैं, कि ये पहले भारतीय थे, जिन्होंने यूरोपीय ताकतों से स्वतंत्रता के लिए लड़ने का बीड़ा उठाया थाI
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