कुदमुल रंगा राव: दलितों का मसीहा

“मैंने श्री रंगा राव से सामाजिक निष्ठा का मतलब समझा। वह मेरे लिए प्रेरणा स्रोत और मार्ग दर्शक की तरह थे। अछूतों के उद्धार के मामले में वह मेरे गुरु हैं।”

ये बात महात्मा गांधी ने 24 फ़रवरी सन 1935 को तब कही थी, जब वह मैंगलोर गए थे और दक्षिण भारत में दलित उत्थान आंदोलन के अग्र-दूत कुदमुल रंगा राव का ज़िक्र कर रहे थे। रंगा राव ने दलितों के उत्थान के लिए तीन दशकों तक काम किया था और इसके बाद ही सन 1932 में गांधी जी ने अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ सुधार आंदोलन शुरु किया था। राव सारस्वत ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए अनवरत काम किया। आज भी उन्हें मैंगलोर में बहुत ही सम्मान और आदर के साथ याद किया जाता है।

राव का जन्म 29 जून 1859 को दक्षिण कनारा गांव ( मौजूदा समय में केरल का कासरागोड ज़िला) में हुआ था। उन्होंने स्थानीय स्कूल में शिक्षा प्राप्त की और मैंगलोर में शिक्षक बनें। बाद में उन्होंने वक़ालत की परीक्षा पास की और ज़िला अदालत में वकील बन गए।

देश के अन्य हिस्सों की तरह ही मैंगलोर में भी सामाजिक-धार्मिक स्थितियां भिन्न नहीं थीं। पूरे देश में जाति व्यवस्था थी, जिसका सख़्ती से पालन किया जाता था और उसे सख़्ती से लागू किया जाता था। निम्न जाति के लोगों की दशा भयावह और क्रूर थी। उन्हें पंचमास कहकर बुलाया जाता था और सवर्ण जाति के लोग उन्हें हिंदू समाज से बाहर के लोग समझते थे। उन्हें अन्न के एक एक दाने या फिर एक ग़ज़ कपड़े के लिए भी कड़ी मशक़्कत करनी पड़ती थी। उस समय किसी दलित परिवार को भरपेट भोजन मिलना भी दुर्लभ था।

दलितों के साथ दुर्व्यव्हार किया जाता था और कभी-कभी उनके साथ क्रूरता भी बरती जाती थी। वे खुले मैदान में नारियल के पत्तों की बनी झोपड़ियों में रहते थे। उनके बच्चे मैले-कुचेले और गंदे रहते थे और उनका स्कूल जाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था।

उसी समय कलकत्ता में, यानी सन 1828 में, राजा राममोहन राय द्वारा शुरु किया गया ब्रह्मो समाज सुधार आंदोलन का ज़ोर था, जिसके तहत छुआ-छूत, अंधविश्वास, ग़रीबी, बाल विवाह के ख़िलाफ़ और विधवा-विवाह के पक्ष में मुहिम चल रही थी। इस आंदोलन ने कुदमुल रंगा राव जैसे पढ़े-लिखे युवाओं को प्रेरित किया, जो ख़ुद भी समाज में इस तरह के सुधार चाहते थे।

सन 1870 में राव ने अपने क़रीबी सहयोगी उल्लाल रघुनाथैया के साथ मिलकर कलकत्ता में ब्रह्मो समाज के नेताओं से, मैंगलोर में ब्रह्मो समाज की शाखा खोलने में मदद करने को कहा। इसके साथ ही मैंगलोर में सुधार का दौर शुरु हुआ। इसके अलावा संगठन ने हिंदुओं के बीच जातिगत-संबंधों में भी सुधार पर ध्यान दिया।

अब तक समाज के कमज़ोर वर्ग के लिए काम और क़ानूनी पेशे की वजह से राव को “ग़रीबों का वकील” कहा जाने लगा था। एक बार उन्होंने एक परेशान महिला, जिसे सवर्ण जाति के लोगों ने प्रताड़ित किया था, का मुक़दमा लड़ा था और जीता भी था, जिसकी वजह से सवर्ण जाति उनसे नाराज़ हो गई थी। लेकिन सन 1887-88 की एक दूसरी घटना ने उनके जीवन का रास्ता ही बदलकर रख दिया।

एक दलित, बाबू बेंदूर ने जैसे-तैसे कक्षा चार तक पढ़ाई कर ली थी और उसे ज़िला अदालत में एक क्लर्क की नौकरी मिल गई थी। उस समय दबे-कुचले वर्ग के किसी व्यक्ति का इस तरह के पद पर होना एक असंभव-सी बात थी। रुढ़िवादी हिंदुओं ने इसका विरोध किया और ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार को, उस अंग्रेज़ जज का तबादला करने पर राज़ी कर लिया था, जिसने बाबू बेंदूर को नियुक्त किया था।

उस अंग्रेज़ जज को लगा कि बाबू बेंदूर को जान का ख़तरा है इसलिए उसने राव से सलाह करने के बाद बाबू बेंदूर की नियुक्ति रद्द कर दी। लेकिन इस घटना से जज दुखी था और उसने राव से दलित शिक्षा और उनके सशक्तिकरण के मामला उठाने का आग्रह किया। इसके बाद राव वक़ालत छोड़कर, महज़ 38 साल की उम्र में दलितों के उद्धार और सुधार के लिए काम करने में जुट गए।

लेकिन राव के लिए ये काम उतना आसान नहीं था, जितना उन्होंने सोचा था । राव के परिवार को ज़ात बाहर कर दिया गया और उनकी बेटियों पर फ़ब्तियां कसी जाने लगीं। मनोवैज्ञानिक प्रताड़ना और धमकियों के बावजूद राव अपनी मुहिम पर डटे रहे।

उनके समय के ज़्यादातर समाज सुधारकों की तरह राव को भी लगता था, सामाजिक सशक्तिकरण और बदलाव के लिए शिक्षा ही एक कारगर ज़रिया है। इस दिशा में पहले क़दम के तहत राव ने “डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन” की स्थापना की और दलिक बच्चों के लिए स्कूल खोले। वह इन स्कूलों को “पंचम स्कूल” कहते थे। इस तरह का पहला स्कूल सन 1892 में मैंगलोर में उर्वा-चिलाम्बी में खोला गया था। इसकी शुरुआत घासफूस की एक झोंपड़ी से हुई थी जिसमें चंद बच्चे पढ़ते थे। दूसरा स्कूल मैंगलोर शहर में कोर्ट हिल्स में खोला गया। इसका व्यवसायिक प्रशिक्षण संस्थान, शहर के शेदीगुद्दे इलाक़े में ही था ।

सन 1892 और सन 1897 के बीच सात “पंचम स्कूल” और खोले गए, जिनमें तीन मैंगलोर में, दो उडुपी में और पास ही के शहर मुल्की तथा उल्लाल दोनों में एक-एक स्कूल खोला गया था। राव ने सन 1897 में दलित लड़कियों के लिए शेदीगुद्दी में एक अवास्य स्कूल भी खोला था।

लेकिन राव के सामने सबसे बड़ी चुनौती दलित परिवारों को उनके बच्चों को स्कूल भेजने पर राज़ी करने की थी। कहा जाता है कि राव दलित परिवारों का विश्वास जीतने के लिए उनके साथ भोजन करते थे और उनकी झोंपड़ी में सोते थे। उन्होंने कई बंधुवा मज़दूर बच्चों को भी मुक्त करवाया, ताकि वे स्कूल जा सकें।

आख़िरकार राव की मेहनत रंग लाई और दलित बच्चे उनके स्कूल आने लगे। उन्होंने एक बार कहा था, “जो दलित बच्चा मेरे स्कूल में पढ़ता है, उसे लोक सेवा की नौकरी करनी चाहिए और उसे हमारी गांव की सड़कों पर अपनी कार में घूमना चाहिए। उसकी कार से उड़ने वाली धूल जब उनके सिर पर गिरेगी, तब उन्हें लगेगा कि उनका जीवन सार्थक हो गया।” बाद में उनके ये शब्द उनके स्मारक पर लिखे गए।

ये सुनने में भले ही अविश्वस्नीय लगे, मगर प्राथमिक शिक्षा में उनके द्वारा की गई पहल शिक्षा के क्षेत्र में पथ-प्रदर्शक साबित हुईं। आज देश भर में स्कूलों में मिड-डे मील स्कीम चल रही है, जिससे हज़ारों बच्चों को फ़ायदा पहुंच रहा है, लेकिन राव ने इस तरह की स्कीम अपने समय में भी शुरु की थी। वह चाहते थे, कि भूख की वजह से बच्चे स्कूल से दूर न रहें और साथ ही वह चाहते थे, कि बच्चों को पौष्टिक भोजन मिले। वह दलित परिवारों को पैसा भी देते थे, ताकि वह अपने बच्चों को स्कूल भेजें। इस तरह की स्कीमें आजकल की सरकारें भी चला रही हैं।

लेकिन स्कूलों को चलाना आसान काम नहीं था और पैसा एक बड़ी समस्या थी। राव कमर कसकर धन जमा करने के लिए निकले और लोगों से चंदा मांगा। वह अनाज, सब्ज़ियां और आवश्यक वस्तुएं जमा करने के लिए सड़कों पर निकलते थे, ताकि अपने स्कूल में बच्चों के भोजन दे सकें।

राव के प्रयासों की वजह से ही, सन 1888 में ज़िला बोर्ड और मैंगलोर नगर परिषद में दलित समुदाय को आरक्षण मिल सका। इसकी वजह से आंगरा मास्टर और गोविंदा मास्टर को ज़िला बोर्ड तथा नगर परिषद में सदस्य नियुक्त किया गया।

आख़िरकार राष्ट्रीय स्तर पर राव के कामों पर लोगों का ध्यान गया। रवींद्रनाथ टैगोर, एनी बेसेंट, गोपाल कृष्ण गोखले और महात्मा गांधी जैसे मशहूर लोगों ने उनके कामों को सराहा और “डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन” का समर्थन किया। अमेरिकी उद्योगपति और फ़ोर्ड मोटर कम्पनी के संस्थापक हेनरी फ़ोर्ड ने भी राव के काम की सराहना करते हुए, उनकी संस्था को धनराशि दान की।

सन 1923 के आते-आते राव बहुत कमज़ोर हो गए थे और उनका स्वास्थ भी ठीक नहीं रहता था। ख़राब सेहत की वजह से उन्होंने “डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन” का काम इंडिया सोसाइटी के लोगों को सौंप दिया, जो इसी तरह के काम में जुटी थी। उन्होंने उनसे मिशन के संस्थानों को अपने हाथों में लेने का आग्रह किया। आज़ादी के बाद सन 1959 में मद्रास सरकार ने इसे अपने हाथ में ले लिया। राव की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ औपनिवेशिक सरकार ने उन्हें “राव बहादुर” के ख़िताब से नवाज़ा।

राव ने अपने जीवन और अपने कामोंसे समाज के सामने उदाहरण पेश किए। वह विधवा-विवाह और अंतर्जातीय- विवाह के हिमायती थे। उन्होंने सन 1912 में अपनी बेटी राधाबाई का विवाह एक ग़ैर-ब्रहमण पी.सुबारायन से करवाकर मिसाल भी पेश की।

राधाबाई अपने पिता से प्रेरित थीं और महिला अधिकार कार्यकर्ता तथा सामाज सुधारक के रुप में प्रसिद्ध थीं। सन 1923 में वह पहली महिला थीं, जो मद्रास विश्विद्यालय के सीनेट में चुनी गईं। उन्होंने तथा बेगम शाह नवाज़ ने सन 1930 में गोल मेज़ सम्मेलन में भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया था। सन 1938 में वह ब्रिटिश इंडिया की इम्पीरियल विधान परिषद के उच्च सदन राज्य परिषद में चुनी गईं थी।

हालांकि तब तक यानी 30,जनवरी 1928 को तक राधाबाई के पिता राव का निधन हो चुका था। सन 1924 में राव ने आर्य समाज में शामिल होकर सांसारिक मोह-माया त्याग दी थी। राव की इच्छानुसार, उनकी अर्थी को दलितों के टोटी समुदाय के लोगों ने कंधा दिया और उन्होंने ही उनकी चिता को अग्नि भी दी।

राव के पैतृक शहर में उनकी विरासत आज भी जीवित है। मैंगलोर और इसके आसपास के इलाक़ों में दलित परिवार राव को अपना रक्षक मानते हैं। दलित बच्चों में शिक्षा के प्रसार के उनके योगदान को सराहा जाता है, जिसकी वजह से वे आज समाज की मुख्यधारा में जुड़ सके हैं।

कई दलित संगठनों की मुहिम की वजह से मैंगलोर में टाउन हॉल का नाम राव के नाम पर रखा गया। लड़कियों का एक सरकारी हॉस्टल भी उनके नाम पर है और सरकारी तथा ग़ैर-सरकारी संगठन हर साल राव की जन्मशती मनाते हैं। इस दिन ब्रह्मो समाज शमशानघाट पर स्थित उनके स्मारक पर निर्वाचित प्रतिनिधि, सरकारी अधिकारी और अन्य लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

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