नागालैंड की राजधानी कोहिमा अपने ख़ूबसूरत नज़ारों और शांतिपूर्ण माहौल के लिए मशहूर है, लेकिन यहां एक बार मित्र-देशों की सेना और शाही जापानी सेना के बीच भीषण लड़ाई भी हुई थी। दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) के बर्मा अभियान का हिस्सा रहे कोहिमा की लड़ाई को ‘ स्टेलनग्राद ऑफ़ द् ईस्ट ‘ के नाम से भी जाना जाता है, जहां अंग्रेज़ों ने सबसे भीषण युद्ध लड़ा था।
40 साल बाद पूर्व सैनिकों ने कोहिमा के युद्ध के मैदान को अपने मिलने-जुलने की जगह में तब्दील किया, जहां वे न सिर्फ़ अपनी समस्याओं का समाधान करते थे, बल्कि इस जगह के विकास के लिये उन्होंने ख़ुद को समर्पित भी किया ।
7 दिसंबर, सन 1941 को अमेरिकी नौसैनिक अड्डे पर्ल हार्बर पर हमले के साथ ही जापान पूरी तरह दूसरे विश्व युद्ध में कूद गया और उसने दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकांश हिस्से पर कब्जा कर लिया। इसके बाद बर्मा पर हमला हुआ। मार्च सन 1942 में रंगून पर क़ब्ज़ा करने के बाद, जापान ने प्रशांत-मोर्चे पर अधिक ध्यान केंद्रित किया, और फिर डेढ़ साल बाद उत्तर की दिशा में इम्फ़ाल और कोहिमा की ओर कूच किया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज के साथ मिलकर जापान का इरादा दीमापुर (अब नागालैंड में) से चीन के युन्नान प्रांत तक के मार्ग पर नियंत्रण करना था।
सन 1944 की गर्मियों के दौरान, अपने ‘यू गो ऑफेंस’ (अंग्रेज़ सेना के ख़िलाफ़ जापान की सैन्य मुहिम) के तहत जापानियों ने आज़ाद हिंद फ़ौज के साथ मिलकर राष्ट्रमंडल देशों के सैनिकों से लड़ाई लड़ी। बहुत कम लोग जानते हैं, कि स्थानीय नगा हेडहंटरों (दुश्मन का सिर काटनेवाले) ने भी युद्ध के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने न सिर्फ़ लड़ाई में हिस्सा लिया था, बल्कि घायल सैनिकों के उपचार में भी मदद की थी।
म्यांमार में चिंदविन नदी पार करने के बाद, जापानी फ़ौज की 20 मार्च, सन 1944 को इम्फ़ाल के उत्तरी मार्ग की पहरेदारी कर रहे भारतीय सैनिकों से लड़ाई हुई। इंफ़ाल पर क़ब्ज़ा करने के बाद, कोहिमा की लड़ाई 4 अप्रैल से 22 जून, 1944 के बीच तीन चरणों में लड़ी गई थी। इस दौरान उपायुक्त के बंगले और टेनिस कोर्ट, गैरिसन और अरादुरह पहाड़ियों में भीषण युद्ध हुआ।
लेकिन जापान अधिक समय तक टिक नहीं पाया। इंफ़ाल की तरफ़ बढ़ रहे जापानी सैनिकों को 1 मई, सन 1944 के दिन रोक दिया गया। इसके बाद मित्र-देशों की सेनाओं ने जवाबी हमले तेज़ कर दिये, जिसकी वजह से भुखमरी और बीमारी जैसे कई समस्याओं से जूझ रही जापानी सेना पीछे हटने लगी। ये बात कम ही लोग जानते हैं, कि जापानी स्थानीय लोगों और उनके क़ैदियों पर बेहद ज़ुल्म करते थे। इसीलिए वह युद्ध अपराधों के लिए कुख्यात थे। ऐसे ही युद्ध अपराध जापान ने यहां भी किये थे।
सन 1945 के आते-आते जापान ने हथियार डाल दिये, औऱ इस तरह लड़ाई ख़त्म हो गयी। कोहिमा युद्ध में राष्ट्रमंडल देशों और जापान के ढ़ाई लाख से अधिक सैनिक मारे गए, घायल हुए या फिर लापता हो गए। कोहिमा से जाते समय अंग्रेजों ने एक युद्ध क़ब्रिस्तान बनाया, जिसमें कई राष्ट्रमंडल सैनिकों और नागा लोगों की कब्रें भी थीं, जिन पर ये मशहूर पंक्तियां लिखी हुई है:
“जब तुम घर जाओ, तो उन्हें हमारे बारे में बताना, और कहना कि तुम्हारे कल के लिए हमने अपना आज न्योछावर किया”
युद्ध के बाद, सन 1947 में भारत को आज़ादी मिल गई और कोहिमा भारतीय संघ का हिस्सा बन गया। सन 1963 में कोहिमा नवगठित राज्य नागालैंड की राजधानी बन गया। लेकिन यहां एक बार फिर अलगाववादी आंदोलन और अंतर-जातीय संघर्षों शुरु हो गये, जो क़रीब चार दशक तक जारी रहे। दूसरी तरफ़ ब्रिटेन और जापान के बीच राजनैतिक और व्यावसायिक संबंध बनने लगे। जापानी शाही सेना की 31 वीं ब्रिगेड के आपूर्ति अधिकारी मसाओ हीराकुबो (1919-2008) युद्ध बाद ने लंदन में बस गए थे। वहॉ उन्होंने पूर्व अंग्रेज़ सैनिकों के साथ संपर्क स्थापित करना शुरु किया। दिलचस्प बात यह थी, कि उनमें से ज़्यादातर ब्रिटिश रेलवे बोर्ड में काम कर रहे थे।
इन आदान-प्रदानों के नतीजे में,सन 1983 में पूर्व सैनिक और प्रसिद्ध जापानी व्यवसायी रयोइची सासाकावा (1899-1995) ने ग्रेट ब्रिटेन सासाकावा फाउंडेशन का गठन किया गया। सासाकावा ने बर्मा युद्ध के पूर्व सैनिकों के लिए एक संगठन भी बनाया, जिसे “बर्मा कैम्पेन फैलोशिप ग्रुप “ के नाम से जाना जाता है।
एक तरफ़ जहां विश्व युद्ध और अलगाववादी आंदोलनों के घाव भर रहे थे, वहीं सन 1984 की शुरुआत में, कोहिमा में परिवर्तन की लहर तब शुरु हुई, जब मसाओ दोनों देशों के पूर्व सैनिकों का मेल-मिलाप करवाने के लिये यहां पहुंचे। अपने प्रवास के दौरान, वह कुछ वक़्त पहले स्थापित कोहिमा डिओसी के पादरी अब्राहम अलंजिमत्ताथिल (1933-1997) के संपर्क में आए। वैसे भी डिब्रूगढ़ डिओसी से अलग होने के बाद कोहिमा को एक नए गिरजाघर की ज़रूरत थी।
युद्धों में बरबाद हुए क्षेत्रों को फिर से जोड़ने में जापान और मित्र-दोशों के सहयोग की अपेक्षा के साथ मसाओ औऱ अब्राहम ने नये गिरजाघर के निर्माण के लिए हाथ मिलाया। आगे चलकर यह अंग्रेज़ और जापान सेना के पूर्व सैनिक के मिलने की जगह बन गया। युद्ध में मारे गए जापानी सैनिकों के परिवारों के साथ GBSF (ग्रेट ब्रिटेन सासाकावा फाउंडेशन) ने सन 1986 में गिरजाघर के निर्माण के लिए संयुक्त रूप से दान किया। इस तरह से सन 1991 में प्रसिद्ध मैरी हेल्प ऑफ़ क्रिश्चियन गिरजाघर की स्थापना हुई। कोहिमा कैथेड्रल नाम से यह गिरजाघर कोहिमा युद्ध कब्रिस्तान से 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। गिरजाघर में एक प्रार्थना जापानी भाषा में अंकित है:
“… हम ये सुनकर बहुत शुक्रगुज़ार हैं, कि कोहिमा में कैथोलिक कैथेड्रल बनाया जा रहा है, जहां हर सुबह युद्ध में मारे गये लोगों की याद में सामूहिक प्रार्थना होगी”।
दिलचस्प बात यह है, कि सन 1989 में जब चर्च बन रहा था,तब कोहिमा में ब्रिटेन और जापान के पूर्व सैनिकों के बीच पहली बार सुलह देखी गई जिसकी वजह, से दोनों देशों के बीच राजनैतिक संबंधों को और बढ़ावा मिला। तब से, इंफ़ाल, लंदन और रंगून के साथ-साथ कोहिमा भी पूर्व सैनिकों और उनके परिवारों का मिलन स्थल बन गया है। लेकिन यह सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं हुआ। सन 2002 में एक जापानी प्रतिनिधिमंडल कोहिमा पहुंचा , जिसके नेता केइको होम्स ने युद्ध के दौरान जापानी सेना द्वारा किए गए युद्ध अपराधों के लिए आधिकारिक तौर पर माफ़ी मांगी। सन 2012 में ब्रिटिश प्रिंस एंड्रयू ने कोहिमा से 12 किलोमीटर दूर किसामा में नागालैंड सरकार द्वारा संचालित “द्वितीय विश्व युद्ध संग्रहालय” में पत्थर की एक लाट का अनावरण किया। वह यहां नगा युद्ध के पूर्व सैनिकों से भी मिले थे ।
हाल ही के वर्षों में, ब्रिटेन और जापान के पूर्व सैनिकों और उनके परिवारों ने शिक्षा और संगीत जैसे कई क्षेत्रों में स्थानीय नागाओं के साथ मिलकर काम करने का फ़ैसला किया है, ताकि नागा युवाओं को उनके बेहतर भविष्य के लिए तैयार किया जा सके। ये सिलसिला आज भी जारी है।
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