क्या आपको पता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी से रिटायर हुए और रुहेला के शासक के 82 वर्षीय पोते ने ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ जंग लड़ी थी ? मई 1857 से लेकर 7 मई 1858 तक रुहेल खंड पर ख़ान बहादुर ख़ान के नेतृत्व में भारतीय मूल के लोगों का शासन था ।
भारत में औपनिवेशिक आधिपत्य के विरुद्ध सबसे पहले 1857 में बग़ावत हुई थी । ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ विद्रोह में कई पूर्व शासकों ने हिस्सा लिया था । झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब, तात्या टोपे और बेग़म हज़रत महल उत्तरप्रदेश से ऐसे ही कुछ नाम हैं जिन्होंने बग़ावत में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था । लेकिन इन्हीं में 82 साल के ख़ान बहादुर ख़ान भी एक ऐसा नाम था जिसे बहुत कम लोग जानते हैं ।
ख़ान बहादुर ख़ान रुहिला के शासक हफ़ीज़ रहमत ख़ान के पोते थे ।
ख़ान बहादुर ख़ान ने रुहेलखंड में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । उनकी रियासत पर अंग्रेज़ सेना सबसे आख़िर में क़ब्ज़ा कर पाई थी ।
अवध के नवाब अंग्रेज़ सेना की देख भाल पर होने वाले ख़र्च की वजह से क़र्ज़ में डूब गए थे और इस क़र्ज़ को उतारने के लिए उन्होंने रुहेलखंड अंग्रेज़ों को दे दिया था । तब बरेली रुहेलखंड का मुख्यालय हुआ करता था । हफ़ीज़ रहमत ख़ान (सन 1774) के नेतृत्व में रुहेलखंड के पतन के बाद ये क्षेत्र अवध के नवाब के अधीन हो गया । रुहेलखंड पर क़ब्ज़े के बाद अंग्रेज़ सेना के लिए रुहिल्ला अफ़ग़ान और राजपूतों को बस में करना मुश्किल हो रहा था क्योंकि हफ़ीज़ रहमत ख़ान के शासन काल में वे ताक़तवर ज़मींदार थे । 1816 के दौरान बरेली में ईस्ट इंडिया कंपनी के चौकीदारी कर के ख़िलाफ़ विद्रोह हो गया। इस्लामिक विद्वान मुफ्ती ऐवाज़ की सरपरस्ती में मुस्लमानों और हिंदुओं ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगुल बजा दिया। बग़ावत के दौरान 21 अंग्रेंज़ सैनिक मारे गए लेकिन मुरादाबाद से और सैनिक मंगवाने के बाद बग़ावत पर नियंत्रण कर लिया गया। नयी कर नीतियों की वजह से पारंपरिक ज़मींदारी ख़त्म हो गई थीं । ज़मीदारों के अधिकारों में बदलाव और नयी भू- राजस्व नीतियों की वजह से रुहेलखंड में हालात और बिगड़ गए जिसकी वजह से बग़ावत का माहौल बन गया ।
ख़ान बहादुर ख़ान, रुहिल्ला-अवध युद्ध (सन 1774) के एक साल बाद पैदा हुए थे । युद्ध में उनके दादा हफीज़ रहमत ख़ान के हाथ से रुहेलखंड रुहिल्ला निकल गया था ।
ख़ान बहादुर ख़ान के शुरुआती जीवन के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं मिलती । उनके पिता का नाम नवाब ज़ुल्फ़िकार ख़ान था जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी से वेतन मिलता था । अरबी और फ़ारसी में शिक्षा प्राप्त करने के बाद ख़ान बहादुर ख़ान ने ईस्ट इंडिया में नौकरी करली और वहां से सदर अमीन (जज ) के पद से रिटायर हुए । रिटायर होने के बाद उन्हें दो पेंशनें मिल रही थीं, एक ईस्ट इंडिया कंपनी से और दूसरी हफ़ीज़ रहमत ख़ान के वंशज के रुप में । मई 1857 के शुरुआती दिनों में प्रशासन काफ़ी चौकस था और स्थिति पर क़ाबू पाने की कोशिश कर रहा था । 31 मई 1857 को भारतीय मूल के सैनिकों ने अंग्रेज़ कप्तान के घर पर धावा बोल कर उसे जला दिया । ख़तरे को देखते हुए अंग्रेज़ अधिकारी अपने परिवारों के साथ नैनीताल चले गए । अंग्रेज़ों के दस्तावेज़ों के मुताबिक़ अंग्रेज़ जजों, सिविल सर्जनों , प्रिंसपल (बरेली कॉलेज) जैसे सिविक प्राधिकरण के कई अधिकारियों की हत्या कर दी गई । इनमें भारतीय अधिकारी भी शामिल थे जो अंग्रेज़ों के वफ़ादार थे । भारतीय मूल के सैनिकों ने बख़्त ख़ान को अपना कमांडर नियुक्त किया जो तोपख़ाने का कमांडर हुआ करता था । बग़ावत के दो दिन पहले अंग्रेज़ कमिश्नर एलेक्ज़ेंडर शैक्सपियर ने ज़िले का प्रभार सौंपने के लिए ख़ान बहादुर ख़ान को बुलवाया लेकिन अपनी उम्र का हवाला देकर उन्होंने पेशकश ठुकरा दी । बख़्त ख़ान, शोभा राम और नौ महला के कई सय्यदों ने ख़ान बहादुर ख़ान को आंदोलन की बागडोर संभालने के लिए मनाने की कोशिश की । इस सिलसिले में कोतवाली में एक दरबार लगाया गया जिसमें शहर के जाने माने हिंदु-मुसलमानों ने शिरकत की । आंदोलन की बागडोर संभाल ने के बाद उन्होंने क़ानून व्यवस्था की स्थित बहाल करने की कोशिश की जो कंपनी प्रशासन के ख़त्म होने के बाद बिगड़ गई थी । उनकी देख रेख में नये प्रशासन की रुप- रेखा बनाई गई जिसके तहत शोबाराम को दीवान (वित्त) और नियाज़ अली को सेना का कमांडर नियुक्त किया गया ।
प्रो. आई. हुसैन की शोघ ऑर्टकल “ बरेली इन 1857, प्रोसीडिंग ऑफ़ द् इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस; वोल्यूम. 65 (2004)” के अनुसार ख़ान बहादुर ख़ान ने जज से लेकर नाज़िम (मेयर) तक की नियुक्तियां कीं और सभी का वेतन तय किया । वित्त विभाग में जहां ज़्यादातर हिंदू थे वहीं सचिवालय में मुसलमानों की संख्या अधिक थी । इस दौरान अन्य राजाओं और ज़मींदारों से कंपनी के शासन के खिलाफ़ लड़ाई में समर्थन की अपील की गई । ये बात ज़ोरदार तरीक़े से की गई कि इस्लाम और हिंदू धर्म ख़तरे में है क्योंकि कंपनी भारतीय लोगों को ज़बरदस्ती ईसाई बना रही है । बरेली में मुसलमानों को एक आदेश जारी कर गौकशी बंद करने को कहा गया । दो समुदायों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द बनाये रखने के लिए ये ज़रुरी था । आनेवाले महीनों में सेना को और पुनर्गठित किया गया जिसमें दीवान शोबाराम ने अहम भूमिका निभाई । नवंबर 1857 तक बरेली और पीलीभीत के अलावा नवगठित अधिराज्य पड़ौसी ज़िले बदायुं और शाहजहांपुर तक फैल गया जहां ख़ान बहादुर ने अपने सहायक नियुक्त किए । ख़ान बहादुर के पद को औपचारिक रुप से दिल्ली में बहादुर शाह ज़फ़र ने मान्यता दी । ख़ान बहादुर ख़ान ने हिमालय की तराई में हल्दवानी पर कब्ज़ा कर नैनीताल में औपनिवेशिक सेना का दिल्ली और अंबाला में उनके केंद्रों से संपर्क काटने की भी कोशिश की ।
रामपुर अंग्रेज़ो के साथ था और वह विद्रोहियों की बढ़ती ताक़त से चौकन्ना हो गया था । अप्रैल 1858 में बहादुर शाह जफ़र के पोते प्रिंस फ़ीरोज़ शाह ने ख़ान बहादुर ख़ान की सेना के साथ मिलकर मुरादाबाद शहर पर कब्ज़ा कर लिया जिसे कंपनी सरकार ने विद्रोह के बाद अपने वफ़ादार नवाब रामपुर को अस्थाई रुप से दे रखा था ।
औपनिवेशिक दस्तावेज़ों के अनुसार, सन 1858 के शुरु में बरेली बाग़ियों का मुख्यालय बन गया था । वहां नानसाहब, फ़र्रुख़ाबाद के नवाब बंगश, नवाब झज्जर और प्रिंस फ़ीरोज़ शाह मौजूद रहते थे । बतौर मुग़ल शहज़ादे फ़ीरोज़ शाह ने एक हुक्मनामा जारी कर कंपनी-शासन के ख़िलाफ़ लड़ाई में क्रांतिकारी अवध की बेगम, ख़ान बहादुर ख़ान और नानासाहब के बीच एकता की ज़रुरत पर ज़ोर दिया । इस बीच अंग्रेज़ो के एजेंटों ने बरेली में हिंदू और मुसलमानों के बीच झगड़ा करवा कर बांटो और राज करो की चाल अपनाने की कोशिश की । लेकिन ख़ान बहादुर ख़ान और उनके चीफ़ मिनिस्टर शोबाराम ने वक़्त रहते क़दम उठाकर ये चाल विफल करदी ।
अप्रैल सन 1858 के अंत तक अंग्रेज़ों की सेना मुरादाबाद पर फिर क़ब्ज़ा कर बरेली के पास पहुंच गईं । इसी तरह अगले दो हफ़्तों में कंपनी की सेना ने बदायुं और शाहजहांपुर पर भी क़ब्ज़ा कर लिया । 6 मई को ब्रिगेडियर जनरल जोन्स ने बरेली को घेर लिया और ख़ान बहादुर ख़ान के साथ आमने सामने युद्ध हुआ । इस युद्ध में क्रांतिकारियों को दो हिस्सों में बांट दिया गया था।
एक हिस्सा तोपों के साथ था और दूसरा हिस्सा ग़ाज़ी की पैदल सेना के साथ था । बग़ावत के बारे में चार्ल्स बॉल द्वारा लिखी गई डायरियों में ग़ाज़ी को “नफ़ीस इंसान, खिचड़ी दाढ़ीवाला, बूढ़ा आदमी,जो हरी पगड़ी पहनता था, बताया गया है जिसने अंग्रेज़ सेना से जमकर लोहा लिया । काफ़ी संख्या में लड़ाकों ने कंपनी की फ़ौज के दाएं विंग में घुस कर कई अंग्रेज़ अधिकारियों को ज़ख़्मी कर दिया।”ये युद्ध क्रांतिकारी हार गए और अगले दिन अंग्रेज़ सेना ने शहर पर कब्ज़ा कर लिया और ख़ान बहादुर ख़ान के सहायक शोबाराम को पकड़ लिया । इसके बाद ख़ान बहादुर ख़ान शाहजहांपुर के बाहरी इलाकों में चले गए और वहां थोड़े से सैनिकों के साथ अंग्रेज़ों की चौकी के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी । वह शाहजहांपुर के अपने सहायक अहमदुल्लाह के पास जाना चाहते थे जो अब भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ छापामार युद्ध कर रहे थे । लेकिन दुर्भाग्य से एक स्थानीय राजा ने विश्वासघात किया और वह मारे गए । अब ख़ान बहादुर ख़ान के पास बहुत ही कम सैनिक बचे थे । वह नेपाल की सीमा से लगे पीलीभीत के जंगलों में चले गए । अंत में नेपाली राजा जंगबहादुर के अधिकारियों की मदद से उन्हें बुटवाल (शिवालिक पहाड़ियों में नेपाली शहर) से पकड़कर ,दिसंबर 1859 में अंग्रेज़ों के हवाले कर दिया गया । उन पर बग़ावत के लिए मुक़दमा चला और उन्हें सन1857 में बरेली में अंग्रेज़ों की हत्या करने का दोषी पाया गया । सन 1860 में ख़ान बहादुर ख़ान को कोतवाली के सामने फांसी दी गई और ज़िला जेल के अहाते में उन्हें दफ़्न कर दिया गया ।
एच.आर. नेविल के डिस्ट्रिक गैज़ट बरेली (सन 1911) के अनुसार ख़ान बहादुर ख़ान के पास घुड़सेना में 4618 सिपाही, 24330 पैदल सैनिक और 40 बंदूक़ें थीं । उन्होंने और उनकी परिषद ने सिविल और राजस्व प्रशासन को सुचारु रुप से चलाने का भरसक प्रयास किया । कंपनी शासन की समाप्ति पर सिविल और राजस्व प्रशासन पूरी तरह बरबाद हो चुका था । अंग्रेज़ी पत्रिका द् फ़्रैंड ऑफ़ इंडिया (1859) के अनुसार “आम जनता की बग़ावत के पैदावार ख़ान बहादुर ने एक अर्द्ध सरकार स्थापित की । इस दौरान नियमित रुप से राजस्व लिया गया और शहरों की सुरक्षा की गई । “ ख़ान बहादुर ख़ान ने ख़ुद को मुग़ल बादशाह का प्रांतीय गवर्नर घोषित कर दिया था । कंपनी शासन से संपूर्ण आज़ादी साबित करने के लिए उन्होंने पुरानी मुग़ल टकसाल को भी फिर शुरु करने की कोशिश की।
गौतम गुप्त की किताब (2008) “1857: द् अपराइज़िंग ” में ख़ान बहादुर को एक योग्य और ईमानदार देशभक्त बताया है: “ख़ान बहादुर ख़ान 1857 के ग़दर से निकले एक असाधरण व्यक्तित्व थे। लंबी सफ़ेद दाढ़ी वाले ख़ान बहादुर ख़ान हालंकि बूढ़े थे और गठिया की वजह से झुक गए थे लेकिन युद्ध के मैदान में उन्होंने ग़ज़ब के साहस का परिचय दिया। वह अपने समय के सबसे योग्य बाग़ी देशभक्त थे।“
युद्ध का अंतिम नतीजा हालंकि निरर्थक रहा लेकिन उनके नेतृत्व में रुहेलखंड बहुत कम समय में ही अंग्रेज़ शासन से मुक्त हो गया। हिंदू और मुसलमानों ने कंधे से कंधा मिलाकर आज़ादी की जंग लड़ी। तेज़ी से विकसित होते शहर में आज सन 1857 के कुछ ही स्मारक बचे रह गए हैं। इनमें नौ-महला मस्जिद भी है जहां क्रांतिकारी मिला करते थे। मस्जिद की क़ब्रगाह में ज़्यादातर क्रांतिकारी दफ़्न हैं। मौजूदा स्मारक को 1907 में दोबारा बनाया गया था।
पुराने रोडवेज़ के सामने 1857 के एक क्रांतिकारी का मक़बरा है जिसे स्थानीय लोग हज़रत वासिल शहीद उर्फ़ हज़रत पहलवान के नाम से याद करते हैं। जन आक्रोश के डर से इन्हें परिवार की शाही कब्रगाह के बजाय ज़िले की जेल के अहाते में चुपचाप दफ़्न कर दिया गया था। उनके परिवार की क़ब्रगाह में एक समय उनके पिता और दादा के बड़े मक़बरे हुआ करते थे। 1956 में निगम बोर्ड के अध्यक्ष राम सिंह खन्ना की कोशिशों से उनकी क़ब्र के ऊपर एक चौबारा बनाया गया और एक तख़्ती लगाई गई जिस पर उनका नाम लिखा हुआ है।
आज 1857 के ग़दर के कई नेताओं को याद किया जाता है लेकिन रुहेलखंड के हीरो ख़ान बहादुर ख़ान आज भी गुमनामी के अंधेरे में खोए हुए हैं।
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