खम्बात और उसका सुनहरा युग 

गुजरात में पश्चिम में भावनगर ज़िला, पूर्व में भरूच और उत्तर में खम्बात के बीच है खम्बात की खाड़ी। ये सदियों से व्यापार का केंद्र रहा है और यहां कई संस्कृतियां एक साथ रही हैं। यहां तक कि भारत में क्रिकेट पहली बार शायद यहीं खेला गया था।

खम्बात क्षेत्र और इससे लगी खाड़ी का ये नाम कैसे पड़ा, इसे लेकर बहुत सी कहानियां हैं। इस बात के सबूत उपलब्ध हैं कि ये सिंधु घाटी सभ्यता के समय से आबादी हुआ करती थी और यहां व्यापार भी होता था। सिंधु घाटी सभ्यता के समय भी ये क्षेत्र अस्तित्व में था, जिसका उल्लेख आठवीं शताब्दी में रचित ग्रंथ “कुमारिका खंड” में मिलता है। इस ग्रंथ के अनुसार खम्बात नाम प्राकृत भाषा में “खंभैथा” और संस्कृत भाषा में “स्तंभतीर्थ” का बिगड़ा रुप है। इन दोनों शब्दों का संबंध भगवान शिव की पूजा से है, जिसे “स्तंभेश्वर” अथवा “स्तंभ का भगवान” भी कहा जाता है।

एक स्थानीय कथा के अनुसार राजा अभिकुमार को शिव की एक प्रतिमा ने चेतावनी दी थी, कि उसका शहर धूल और रेत में दब जाएगा। चेतावनी सही निकली और उसकी आधी बस्तियां धूल और रेत में दब गईं, लेकिन चूंकि उसे पहले से ही चेतावनी मिल चुकी थी, उसने लोगों और क़ीमती सामान को खाड़ी में खड़े जहाज़ पर चढ़वा दिया और इस तरह बहुत कुछ बचा लिया गया। सम्मान और आभार व्यक्त करने के लिए उसने विनाश की चेतावनी देने वाली शिव की प्रतिमा भी जहाज़ में रखवा दी। प्रतिमा के अलावा उसने स्तंभ की तरह दिखने वाली वो चौकी भी जहाज़ पर चढ़वा दी, जिस पर शिव की प्रतिमा रखी हुई थी। जब शहर दोबारा बस गया, तो लोग उस स्तंभ की पूजा करने लगे और इस तरह इसका नाम खंबावती पड़ गया।

सिंधु घाटी सभ्यता जब लोथल, धोलावीरा और खंभात में अपने शीर्ष पर थी, तब खंबाट पत्थर के मनके तराशने के एक बड़े केंद्र के रुप विकसित हुआ। खंबात से क़रीब दो सौ कि.मी. दूर राजपीपला पहाड़ियां और रतनपुर में कच्चे माल की भरमार थी, जिनमें लोहे की मात्रा अधिक थी तथा खंबात सदियों तक मनकों और मछली पालन उद्योग के लिए मशहूर रहा था।

जैसे-जैसे खम्बात का बंदरगाह बढ़ता गया, लोथल और धोलवीरा में व्यापार करने और रहने के लिए बड़ी संख्या में लोग आने लगे। जब लोगों की आवाजाही बढ़ने लगी, व्यापारी और यात्री खम्बात के बारे में लिखने लगे। ये दस्तावेज़ आज भी मौजूद हैं, जिससे हमें इस क्षेत्र के बारे में और जानकारी मिलती है। सन 850 में फारस (ईरान) के व्यापारी, यात्री और लेखक सुलैमान ने खम्बात का ज़िक्र किया था। सन 913 में अरबी इतिहासकार और यात्री अल-मसूदी यहां आया था। उसने अपने लेख में दावा किया था कि बग़दाद ( इराक़) में लोग खम्बात में बनी चप्पलों या खड़ाऊ के ख़ूबसूरती की तारीफ़ करते थे।

सन 942 में चालुक्य शासकों ने समृद्ध बंदरगाह सहित खम्बात के आसपास के क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया। 10वीं सदी में उन्होंने अपने शासनकाल के दौरान राष्ट्रकूटों के भरूच बंदरगाह को टक्कर देने के लिए खंबात को एक संपन्न बंदरगाह के रुप में विकसित किया गया। 12वीं शताब्दी के में राजा सिद्धिराज जयसिंह के राजकाल के दौरान, कई हिन्दू , जैन, मुसलमान और यहाँ तक पारसी समुदाय के व्यापारी यहाँ पर बसने लगे और पश्चिमी तट के फायदेमंद व्यापार पर अपना योगदान देते गए. अन्हिलपुर पाटन, आगरा और दिल्ली जैसे व्यापारिक केंद्रों से यहां ख़ूब व्यापार होने लगा। विभिन्न क्षेत्रों और देशों से आये मसाले यहाँ पर भी ढोए जाते थे , और यहीं से पश्चिमी देशों की ओर रवाना कर दिए जाते थे.

1290 में मशहूर यात्री मार्को पोलो ने खम्बात में अपने पैर जमाये, जहां उसने इसको एक महान देश की प्रमुख नगरी का दर्जा दिया था, जो अपने हाथी के दांत की वस्तुओं और गहनों के लिए मशहूर था. मोरक्को का इब्न बत्तूता जब मुहम्मद बिन तुगलक से पीछा छुडाने की फ़िराक में जब 1341 में यहाँ आया, तब उसने इस जगह को रेशम, वास्तुकला और छींटदार कपड़ों के लिए मशहूर बताया. इसके अलावा यह इसलिए भी प्रसिद्ध है क्योंकि यहां दूसरे देश के लोग भी आकर बसते हैं। उसने समुद्री डाकुओं और बाहरी हमलों से निपटने के लिए की गई कड़ी सुरक्षा व्यवस्था का भी उल्लेख किया है।

1515 में पुर्तगाल के प्रसिद्ध यात्री दुआर्टे बरबोसा ने भी खंबात की वास्तुकला जहां पक्के और शानदार घर, छतो पर टाइल और स्वच्छ गलियों और यहां के निवासियों के उदार स्वभाव का उल्लेख किया है।

आस्थाओं के मिलन का केंद्र

खम्बात में इथियोपिया से आये संत बाबा ग़ौर की भी एक विरासत है जो यहां 15वीं सदी में एक राक्षस से लड़ने के लिए मक्का से आया था। अपना मक़सद पूरा करने के बाद पास ही रत्नापुर (मौजूदा समय में भरूच ज़िला) में बस गया। यहां उसने सफेदी-पीले और नारंगी रंग अक़ीक़ पत्थर बनाने की शुरुआत की, जो यहाँ पहले नहीं बनते थे । स्थानीय लोगों ने बाबा के सम्मान में इस इसका नाम “बाबाग़ौरी” पत्थर रखा दिया । हर साल श्रावण में यहां एक वार्षिक उत्सव भी होता है जिसमें मोती-पत्थर बनाने वाले बड़ी तादाद में शामिल होते हैं| बाबा ग़ौरी को सिद्दी क़बीले के संत के रुप में पूजा जाता है। सिद्दी कबीला जो कभी यहां बसता था।

1573 में जब मुग़ल बादशाह अकबर ने गुजरात पर फ़तह हासिल की थी, तब वो पुर्तगालियों के कब्जाए इलाकों दीव दमन और दादरा नगर हवेली के बहुत करीब पहुँच गया था. उसी दौरान, अकबर ने दीव के कप्तान एरेस टेलेस को दीव में मुग़ल मस्जिद और अकबर के नाम पर सिक्के जारी करने के लिए कहा. बिना किसी हलचल के, ये फरमान स्वीकार कर ली गयी. मगर फिर पुर्तगालियों ने इससे सहूलियत लेते हुए , अपने पादरियों का एक जत्था अकबर के मुग़ल दरबार के लिए रवाना किया. ये जत्था तीन दफा 1576 से 1596 तक रहा और तीसरी बार आने के दौरान, अकबर ने उन पादरियों को खम्बात में मुगल के संरक्षण के बीचों-बीच रहकर इसाई धर्म के प्रचार करने की अनुमति दी. ये किस्सा रिव फ़ादर फ़ेलिक्स द्वारा रचित “मुग़ल फ़रमान्स, परवानाज़ एंड सनद्स इशूड इन फ़ेवर ऑफ जेसुइट मिशनरीज़-(1615)” में दर्ज है |

खम्बात का सुनहरा युग

चूंकि खम्बात (जिसे अब कैंबे भी कहा जाता है) समृद्ध शहर अहमदाबाद के क़रीब था, इसलिए 16वीं सदी के दौरान ये सूरत के बाद गुजरात के सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाहों में से एक हो गया, जहां ना सिर्फ़ अंग्रेज़ों ने बल्कि डच ने भी एक कारख़ाना लगया था। सन 1509 से पुर्तगाली यहां व्यापार करने लगे थे। पुर्तगालियों का व्यापार अंग्रेज़ों और डच को हस्थांतरित होने और चांदी की टकसाल अहमदाबाद से सूरत में लग जाने के बाद होने के बाद, सूरत में अधिक व्यापार होने लगा, जलीय गतिविधियों की वजह से खाड़ी का बंदरगाह का बरबाद होने लगा था और इसलिए धीरे-धीरेखंबात का सुनहरा युग ख़त्म होने लगा। इसके बावजूद ये एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह और मुग़ल साम्राज्य का भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय नौसेनिक मुख्यालय बना रहा।

18वीं सदी के मध्य में मुग़ल साम्राज्य बिखरने लगा और मराठों के हमले बढ़ने लगे। ऐसे समय आसफ़ जाह पहला मुग़ल गवर्नर था जिसने मुग़लों से ख़ुद को आज़ाद कर हैदराबाद का एक अलग प्रांत बनाया। इसकी देखादेखी, गुजरात के अंतिम गवर्नर मिर्ज़ा जाफ़र मोमिन ख़ान-प्रथम ने भी, सन 1730 में ख़ुद को आज़ाद घोषित कर कैंबे सल्तनत स्थापित कर ली।

जीत और क्रिकेट

पश्चिमी तट पर जब यूरोप के साथ व्यापार बढ़ गया तब, ऐसा दावा किया गया कि भारत में सन 1731 में खम्बात में पहली बार क्रिकेट खेला गया। लेफ़्टिनेंट क्लेमेंट डाउनिंग (सन 1737) ने अपनी किताब कंपेनडियस हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन वॉर्स विद एनएकांउट ऑफ़ द राइज़, प्रोग्रेस, स्ट्रेंथ एंड फ़ोर्सेस ऑफ़ एंग्रिया द पायरेट में दावा किया है कि क्रिकेट नाविकों के बीचखेला गया था और देखनेवाले क़ुली (कोली समुदाय) थे। ये दावा जे. एस. कॉटन द्वारा निकाली गयी मैगजीन “एथेनोईयम” (1905) और कलकत्ता फुटबॉल और क्रिकेट क्लब में 1871 के एक मोनोग्राफ चित्र में भी किया गया है.

19वीं सदी के अंतिम दशकों में खम्बात पर कभी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तो कभी मराठा साम्राज्य का कब्ज़ा होने लगा।आख़िरकार सन 1802 में बसीन-संधि हुई जिसके तहत खम्बात पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया। सन 1817 में अंग्रेज़ों के संरक्षण में आने के बाद, सन 1901 में खम्बात में भारतीय रेलवे के नक़्शे पर आया। सन 1947 में आज़ादी मिलने के बाद कैंबे (खम्बात) के अंतिम नवाब निज़ाम-उद्दौला नजम-उद्दौला मुमताज़-अल-मलिक हुसैन यावर ख़ान- प्रथम ने सन 1948 में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और अपने साम्राज्य का विलय भारतीय संघ में कर दिया, जो ये बम्बई राज्य और फिर 1960 में नवगठित राज्य गुजरात का हिस्सा बना।

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