के.डी. जाधव: ओलंपिक में पदक पाने वाले पहले भारतीय

पुरुषों की कुश्ती एक प्राचीन खेल है । दरअसल इस खेल की जड़ें उस समय में भी मिलती हैं जब लोग इलाक़ों पर कब्ज़े और सत्ता के लिये एक दूसरे से शारीरिक ज़ोरआज़मायश किया करते थे। बाद में ज़ोरआज़मायश शांति के लिये भी होने लगी थी। पांच हज़ार साल पहले भारत से लेकर सुमेरा, बेबीलोन (पेप्पियों) और मिस्र तक मंदिरों की दीवारों पर पहलवानों का उल्लेख मिलता है। भारत में इसका आरंभिक उल्लेख 1500 ई.पू. से मिलता है।

प्राचीन ओलंपिक खेलों में भी कुश्ती हुआ करती थी। दस्तावेज़ों के अनुसार 708 ई.पू. में इसे खेल स्पर्धाओं में शामिल किया गया था। सन 1896 में पहली बार जब ऐथेंस में आधुनिक ओलंपिक खेलों की शुरुआत हुई तो इसे एक स्पर्धा के रुप में शामिल किया गया था।

आज अगर ओलंपिक में भारत द्वारा जीते गए पदकों के बारे में बात करें तो कुश्ती का नंबर दूसरा आता है यानी पदक जिताने के मामले में ये कुश्ती दूसरे नंबर पर है। भारत ने आधुनिक ओलंपिक में कुश्ती में चार कांस्य और एक रजत पदल जीते हैं । सुशील कुमार ने अकेले ने, सन 2008 बीजिंग ओलंपिक में एक कांस्य और सन 2012 लंदन ओलंपिक में एक रजत पदक जीता था।

कई पहलवानों ने आधुनिक भारतीय कुश्ती को एक नई पहचान दी है। सन 1952 हेलसिंकी ओलंपिक में महाराष्ट्र के खाशाबा दादा साहेब उर्फ़ के.डी. जाधव ने भारत को पहली बार व्यक्तिगत स्पर्धा में पदक दिलवाया था।

पदक जीतकर जब जाधव भारत लौटे तब न तो उनका कोई आदर सत्कार हुआ और न ही इनामों की झड़ी लगी। यहां तक की उनकी उपलब्धि की कोई बड़ी ख़बर तक नहीं बनीं। अख़बारों के सिर्फ़ खेल पृष्ठ पर ख़बर छपी थी। उस समय पूरा ध्यान भारतीय हॉकी टीम पर था जिसने स्वर्ण पदक जीता था। अकेले अपने दम पर हेलसिंकी ओलंपिक में जाने वाले जाधव बस अपने गांव वालों के लिये ही हीरो थे। उनके स्वागत के लिये गांव के लोग सौ बैल गाड़ियों के के साथ सतारा पहुंचे थे। ग़नीमत ये थी कि कम से कम उन्हें उनके घर तक बाइज़्ज़त लाया गया।

निर्णायक मुक़ाबला

जाधव का जन्म 15 जनवरी सन 1926 को सतारा में हुआ था। कुश्ती उन्हें विरासत में मिली थी क्योंकि उनके पिता दादा साहब ख़ुद पहलवान थे। जाधव जब पांच साल के थे तभी से उनके पिता ने उनकी प्रतिभा पहचान ली थी और उन्हें प्रशिक्षण देने लगे थे।

दुबले पतले होने के बावजूद कोई भी पहलवान उनके सामने टिक नहीं पाता था। वह अपने से दुगुने पहलवानों को धूल चटा देते थे और लोग उनकी कुश्ती देखने जाते थे। कोल्हापुर के राजा राम कॉलेज में दाख़िला लेने के बाद भी जाधव राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर पर कुश्ती स्पर्धों में हिस्सा लेते रहे।

शुरु शुरु में कॉलेज के खेल के कोच ने उनमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि वह दुबले पतले थे। कहा जाता है कि कोच के उदासीन रवैये की वजह से जाधव कॉलेज के प्रिंसिपल के पास पहुंचे औऱ उनसे कॉलेज के वार्षिक खेल उत्सव में उन्हें भाग लेने की इजाज़त देने का आग्रह किया। इजाज़त मिलने के बाद उन्होंने अपने से कहीं ज़्यादा ताक़वर प्रतिद्वंदियों को आसानी से चारो ख़ाने चित कर दिया जिसे देखकर लोगों ने दांतों तले उंगलियां दबा लीं। (ये घटना शायद 1948 की है और तब उनके कॉलेज को मान्यता भी नहीं मिली थी और ओलंपिक खेल भी क़रीब थे। तब उनकी उम्र 22 साल थी।)

जाधव को भूतपूर्व पहलवान बाबुराव बलावडे और बेलापुरी गुरुजी ने ट्रैनिंग दी और उन्होंने इसके बाद सन 1948 तथा सन 1952 ओलंपिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

ओलंपिक में कीर्ति

सन 1948 लंदन ओलंपिक में जाधव फ़ाइनल राउंड में हार गए क्योंकि इसके पहले उन्होंने मैट पर कुश्ती नहीं लड़ी थी। (तब स्कूल में ज़्यादातर पहलवान मिट्टी पर कुश्ती लड़ा करते थे)। इसके बावजूद जाधव अपने प्रतिद्वंदियों को मिनटों में हरा कर अपने प्रशंसकों को प्रभावित करने में सफल रहे। फ़्रीस्टाइल कुश्ती में वह छठे स्थान पर रहे थे।

लंदन ओलंपिक के बाद जाधव ने भारत के लिये पदक जीतने की ठान ली थी। उन्होंने मैट पर कुश्ती का अभ्यास शुरु कर दिया था लेकिन समस्या थी ख़र्चे की। सन 1952 हेलसिंकी ओलंपिक में हिस्सा लेने के लिये उनके पास पैसे नहीं थे।

वित्तीय संकट से जूझ रहे जाधव ने मदद के लिये बॉम्बे के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई से मदद मांगी लेकिन बात बनी नहीं । इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। जाधव ने पटियाला के महाराजा और भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष यादविंदर सिंह को पत्र लिखा। यादविंदर सिंह ने उनका मुक़ाबला निरंजन दास से करवाया जिसे उन्होंने हरा दिया। इस तरह उनका सन 1952 ओलंपिक के लिये चयन हो गया।

जाधव के हवाई जहाज़ के किराये का तो इंतज़ाम हो गया था लेकिन फिर भी उन्हें हेलसिंकी में टहरने के लिये पैसों की ज़रुरत थी। इस बार मदद के लिये उनके कॉलेज के प्रिंसिपल आगे आए और उन्होंने अपना मकान गिरवी रखकर जाधव की यात्रा के लिये सात हज़ार रुपयों का इंतज़ाम किया। कॉलेज के अन्य प्रोफ़ेसरों ने भी थोड़ी बहुत मदद की।

जाधव की होलसिंकी की यात्रा के लिये जो ख़र्चा हुआ था वो वसूल हो गया। उन्होंने कुश्ती के बैंटमवेट फ़्रीस्टाइल वर्ग में एक के बाद अपने प्रतिद्वंदियों को पहले पांच राउंड में चित कर दर्शकों को चौंका दिया।

छठे राउंड में जादव जापानी पहलवान शोची ईशी से हार गए। जादव को रुसी पहलवान राशिद मोहम्मदबेयोव के ख़िलाफ़ उनके अगले मुक़ाबले से पहले आधे घंटे का ब्रेक मिलना चाहिये था लेकिन चूंकि वहां जाधव के लिये बात करनेवाला कोई भारतीय अधिकारी मौजूद नहीं था इसलिये जाधव को ब्रेक नहीं मिला। थके हुए जाधव ये मुक़ाबला हार गए और उन्हें कांस्य पदक से ही संतोष करना पड़ा। तब वह 26 साल के थे।

इतिहास रचने के बाद का जीवन

चोट की वजह से जाधव सन 1956 के मेलबर्न ओलंपिक में हिस्सा नहीं ले सके। तब तक उनकी उम्र 30 साल हो चुकी थी। साल भर पहले ही जाधव महाराष्ट्र पुलिस में सब इंस्पेक्टर बन गए थे। यहां उन्होंने तीस साल तक नौकरी की और सन 1983 में महाराष्ट्र पुलिस के सहायक कमिश्नर के पद मे रिटायर हुए। एक साल बाद एक सड़क दुर्घटना में उनका निधन हो गया। तब वह 58 साल के थे।

उनके जीते जी न तो उन्हें कोई सम्मान मिला और न ही कोई इनाम । रिटारमेंट के बाद उन्होंने अपनी पत्नी के गहने बेचकर सतारा में अपना घर बनाया, उसी शहर में जहां जाधव का जन्म हुआ था।।

ओलंपिक खेलों की व्यक्तिगत स्पर्धा में देश को पहला पदक दिलाने तथा जाधव की उपलब्धियों का सम्मान करते हुए आख़िरकार केंद्र सरकार ने सन 2010 में दिल्ली में, इंदिरा गांधी खेल परिसर स्टेडियम के कुश्ती प्रकोष्ठ का नाम उनके नाम पर रखा। इसे अब के.डी. जाधव स्टेडियम के नाम से जाना जाता है।

भारत के इस पहलवान को भारत सरकार से एकमात्र पदक जो मिला वह है अर्जुन पुरस्कार था जो उन्हें सन 2001 में मरणोपरांत दिया गया था।