हम में से ज़्यादातर लोग विष्णु के तीसरे अवतार वराह के बारे में कम ही जानते हैं लेकिन वराह की कहानी बहुत दिलचस्प है और यह हिंदू पौराणिक कथाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । वराह ने ही पृथ्वी की देवी यानी भू-देवी को बचाया था और पृथ्वी की रचना में इसका महत्वपूर्ण योगदान है । वैश्णव संप्रदाय में यह एक महत्वपूर्ण अध्याय है । भारत में कई मंदिरों में वराह की मूर्तियां स्थापित हैं और इसकी पूजा भी होती है ।
हालंकि वराह का संबंध विष्णु से है लेकिन उससे पहले भी इसका उल्लेख मिलता है जब ब्रह्मा ने सूअर का रुप धारण किया था । तैत्तिरीय अरण्यक और शतपथ ब्राह्मण की एक कथा के अनुसार
ब्रह्माण्ड में पहले सिर्फ़ पानी था और पृथ्वी महज़ इंसान की हथेली के बराबर थी । ब्रह्मा ने सूअर इरमुषा का रुप धारण कर अपनी पत्नी पृथ्वी को पानी से बाहर निकाला था ।
कहा जाता है कि वराह ब्रह्मा की नाक से निकला था । पहले ये हाथी के आकार का था फिर बढ़कर पर्वत जैसा बड़ा हो गया और फिर अंतत: ये चौड़ाई में 10 योजना और ऊंचाई में 1000 योजना हो गया । कहा जाता है कि एक योजना 6 से 15 कि.मी. होती थी । विशालकाय रुप धारण करने के बाद वराह ने पानी से पृथ्वी को निकाला था।
वराह को विष्णु के अवतार के रुप में ज़्यादा जाना जाता है । वायु पुराण और विष्णु पुराण जैसे ग्रंथों में इसका अलग अलग तरह से ज़िक्र मिलता है । पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार विष्णु के दो द्वारपालों ने जब चार संतो को अंदर प्रवेश करने से रोका तो उन्होंने दोनों को श्राप दिया कि अगले जन्म में असुर के रुप में उनका जन्म होगा । अगले जन्म में वे हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दो भाई के रुप में पैदा हुए । उनके पिता का नाम कश्यप और माता का नाम दिति था । जन्म के बाद उन्होंने घोर तपस्या की और ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दे दिया ।
वरदान मिलने के बाद उन्होंने तबाही मचा दी और हिरण्याक्ष भू-देवी को पकड़कर लौकिक जल में ले गया । इसके बाद विष्णु ने भू-देवी को बचाने के लिए वराह का रुप धारण किया । भू-देवी को छुड़ाने के लिए हिरण्याक्ष और वराह के बीच एक हज़ार साल तक युद्ध चला और आख़िरकार वराह ने हिरण्याक्ष को हराकर भू-देवी को मुक्त करा लिया । बाद में विष्णु के चौथे अवतार नरसिम्हा ने दूसरे असुर और हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकश्यप को हराया चूंकि वे विष्णु के अवतारों के हाथों परास्त हुए थे इसलिए विष्णु से उन्हें मोक्ष मिल गया।
गुप्त काल विशेषकर चौथी और छठी ई.पू. में मध्य भारत में वराह की पूजा होती थी । इस काल में हमें वराह के कई चित्रण मिलते हैं । 7वीं और 8वीं सदी के महाबलीपुरम के पत्थरों के मंदिरों को देखने पर पता चलता है कि भारत के दक्षिम पूर्व हिस्सों में भी वराह की ख़ूब पूजा होती थी । वराह का कश्मीर वैष्णव संप्रदाय या मध्यकालीन समय की शुरुआत में भी बहुत महत्व था । तमिलनाडु के श्रीमुष्णम में वराह स्वामी मंदिर में आज भी वराह की पूजा होती है । इसके अलावा और भी कई मंदिर हैं जहां वराह की पूजा की जाती है।
वराह द्वारा भू-देवी को मुक्त कराने की कथा क्योंकि सबसे प्रचलित है इसलिए ज़्यादातर चित्रण में वराह के साथ भू-देवी को देखा जा सकता है । इन चित्रों में भू-देवी ने वराह के दांत/ थूथन पकड़ रखे हैं या फिर वह उसकी गोद में बैठी हुई हैं । वराह के चित्रों के बारे में सबसे दिलचस्प बात ये है कि वराह को दो रुपों में दिखाया गया है । एक चित्र में उनका सिर सूअर का और पैर मनुष्य के हैं जिसे नरवराह कहते हैं । दूसरे चित्रण में उन्हें जंगली सूअर दिखाया गया है।
नरवराह चित्रम में वराह लड़ाई लड़ते दिखते हैं । उनका एक पांव पीछे की तरफ़ खिंचा हुआ है और वह घुटने के बल बैठे हैं । इसमें भू-देवी ने वराह के दांत या थूथन पकड़ रखा है। वराह के दाएं कूल्हे पर कटार लटकी हुई है और वह बहुत शक्तिशाली दिख रहे हैं । चित्रों में वराह को दो या चार भुजाओं के साथ देखा गया है। इन भुजाओं में वे विष्णु का शंख,चक्र,गदा और पद्मा पकड़े दिखते हैं । साथ ही कुछ चित्र वर्णन में उन्हें अभय मुद्रा के साथ देखा जा सकता है। भू-देवी हवा में लटकी हुई हैं और उनके चेहरे पर प्रसन्नता और लजाने के भाव हैं।
जंगली सूअर के रुप में वराह का चित्रण काफी उन्मुक्त है । इसमें वराह के शरीर में देवी-देवताओं के चित्र अंकित हैं और भू-देवी उनका दांत पकड़े सामने बैठी हैं । नरवराह के रुप में वराह का सबसे प्रसिद्ध और विहंगम चित्रण मध्य प्रदेश के उदयगिरी में दिखता है। ये चित्रण 5वी ई.पू का है । इसी तरह खजुराहो के मंदिर में भी जंगली सूअर के रुप में वराह के प्रसिद्ध चित्र हैं ।
कुछ पौराणिक कथाओं के अनुसार भू-देवी ने वराह से विवाह कर लिया था और उनका एक बच्चा था जिसका नाम नरका या नरकासुर था जो आगे चलकर नरका का राजा बना । प्रग्ज्योतिष-कामरुप (मौजूदा समय में असम) जैसे तीन राजवंशों की तरह हिंदू राजवंश ख़ुद को नरकासुर का वंशज होने का दावा करते हैं । जंगली सूअर चालुक्य, ककातिया और विजयनगर की तरह सत्तारुढ़ राजवंशों का भी प्रतीक चिन्ह हुआ करता था ।
दरअसल वराह और नरसिम्हा एक दूसरे से गुंथे हुए हैं और दोनों की पूजा अकसर साथ साथ ही की जाती है । आंध्र प्रदेश के सिम्हलन में प्रसिद्ध नराह लक्ष्मी नरसिम्हा मंदिर में दोनों की पूजा साथ-साथ की जाती है । इस मंदिर में वराह का सिर सूअर का, पांव इंसान के और पूंछ शेर की है । इसी तरह का चित्रण विष्णु के वैकुंठ रुप में भी दिखाई देता है जो मध्यकालीन कश्मीर में लोकप्रिय था ।
विष्णु के वैकुंठ रुप में इसके तीन या चार सिर हैं और विष्णु बीच में है । वराह और नरसिम्हा दोनों तरफ़ विराजमान हैं । कुछ चित्रों में पीछे की तरफ़ राक्षस का सिर भी है । दिलचस्प बात ये है कि असम में विष्णु का वैकुंठ रुप मिला है ।
लोग भले ही विष्णु के अवतारों में वराह के बारे में कम जानते हों लेकिन भू-देवी को बचाने वाले अर्धनारेश्वर की कहानी यक़ीनन बहुत दिलचस्प है।
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