दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली में सुखदेव विहार मेट्रो स्टेशन के पास एक ऐसा इलाक़ा है, जहां आज दिल्ली विकास प्राधिकरण के फ्लैट हैं। कई लोगों के लिए सराय जुलेना गांव अन्य बस्तियों की तरह की एक और बस्ती है, लेकिन ऐतिहासिक रूप से यह एक ऐसी पुर्तगाली महिला की याद दिलाती है, एक ज़माने में, मुग़ल दरबार में जिसका रुतबा, किसी हुकमरान से कम नहीं था।
इस महिला का नाम था डोना जुलियाना डायस डि कोस्टा, जिसे मुग़ल साम्राज्य में एक अति-महत्वपूर्ण हैसियत के लिए जाना जाता था। उसकी शख़्सियत आज भी रहस्यमय और विवादास्पद बनी हुई है। यदि ऐतिहासिक दस्तावेंज़ों पर भरोसा किया जाए, तो वह मुग़ल दरबार में बहुत ताक़तवर और असरदार महिला थी और हां, कहा जाता है कि उनके पास दैवीय शक्ति भी थी!
जुलियाना शाही दरबार में कैसे पहुंच गईं, यह इतिहासकारों के बीच बहस का विषय बना हुआ है। इसके अलावा उनके जन्म का वर्ष और उम्र भी रहस्यों से घिरा हुआ है! मुग़ल दरबार में यूरोपीय देशों के लोगों का आना-जाना लगा रहता था, लेकिन इनके बीच एक पुर्तगाली महिला ने आख़िरकार कैसे अपनी जगह बना ली?
यह जानने के लिए हमें कुछ दस्तावेज़ों की मदद से सन 1632 ईस्वी में जाना होगा। यह तब की बात है, जब मुग़ल बादशाह शाहजहां के आदेश पर पुर्तगाली बंदरगाह शहर हुगली (बंगाल) पर हमला किया गया था। पुर्तगाली, मुग़लों के जहाज़ों पर लगातार हमले करते रहते थे ,और उसी के बदले में ये कार्रवाई की गई थी। हमले के बाद कई पुर्तगालियों को बंधक बना लिया गया था, जिनमें जुलियाना के पिता ऑगस्टिन्हो डायस डिकोस्टा भी थे। उन्हें और उनकी पत्नी को बाद में मुग़ल दरबार में काम मिल गया। बाद में डिकोस्टा की पत्नी, शाहजहां की एक बेगम की दासी बन गई। कहा जाता है, कि इसी दौरान जुलियाना का जन्म हुआ था।
जब जूलियाना 17 साल की हुई, तब उसके जीवन में एक नया दौर शुरु हुआ। तब तक औरंगज़ेब बादशाह बन चुका था, और उसने अपने 18 साल के बेटे मुअज़्ज़्म की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी जूलियाना को सौंप दी। जैसे-जैसे दोनों बड़े होते गए, दोनों में नज़दीकियां भी बढ़ती गईं । मुअज़्ज़म जब भी अपने पिता के लिए युद्ध करने जाता था, उसकी हिफ़ाज़त के लिए जुलियाना भी,उसके साथ, उसके हाथी पर सवार होती। जूलियाना के हाथ में लाल झंडे होते थे, जिन पर सफ़ेद रंग का ईसाई क्रॉस बना होता था! जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, उसे मुग़ल दरबार में शाही हरम और डॉक्टर की प्रभारी जैसे कई ज़िम्मेदारियां मिलने लगीं!
लेकिन अच्छा वक़्त तब ख़त्म हुआ, जब औरंगज़ेब ने मुअज़्ज़म को सन 1680 के दशक के अंत में बग़ावत के आरोप में सज़ा दी,और उससे उसके ख़िदमतगार और हरम छीन लिए गए। लेकिन जैसा कि कहते हैं, मुहब्बत हर रुकावट को पार कर जाती है, जुलियाना किसी तरह क़ैदख़ाने में पहुंचने में कामयाब हो गई, और वहां वह मुअज़्ज़म की तीमारदारी करने लगी। वहां उसने मुअज़्ज़म के ऐश-ओ-आराम में किसी तरह की कोई कमी नहीं होने दी। वह उसके लिए चुपके से महंगे तोहफ़े भी ले जाया करती थी!
इस दौरान दोनों के बीच रिश्ते और मज़बूत होते गए ,और जुलियाना ने मुअज़्ज़म को सलाह दी कि अगर वह सेंट जॉन से दुआ मांगेगा, तो वह एक दिन बादशाह बन जाएगा। मुअज़्ज़म दुआ के लिए राज़ी हो गया, और उसने वादा किया कि अगर वह बादशाह बन जाता है तो वह जूलियाना को धन-दौलत और ख़िताब से नवाज़ेगा। आख़िरकार दुआ क़बूल हो गई! मुग़लिया तख़्त-ओ-ताज के लिए हुई जंग के बाद, जब मुअज़्ज़म सन 1707 में बहादुर शाह-प्रथम के रूप में तख़्त पर बैठा, तो उसने अपने वादे के मुताबिक़ जुलियाना को “जूलियाना फ़िदवी दुआगो” (वफ़ादार और अक़ीदतमंद जूलियाना) का ख़िताब दिया।उसे जागीर में गांव भी दिए गए, जहां आज दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली का ओखला इलाक़ा है। सबसे बड़ी बात ये भी थी, कि उसने औरंगज़ेब के भाई दारा शिकोह का महल भी अपनी इस महबूबा को दे दिया!
जूलियाना मुग़ल राजघरानों में “बीबी जुलेना” के रूप में मशहूर हो गईं। जुलियाना चिकित्सा विशेषज्ञ और शाही बच्चों की उस्ताद बन गई, जो उन्हें प्यार से मां बुलाते थे! वह मुग़ल दरबार में कई लोगों की करीबी और भरोसेमंद बन गईं। इसके अलावा कई बुज़ुर्ग महिलाएं उनसे आशीर्वाद और सलाह लेती थीं। उसकी शान का ये आलम था, कि वह अक़्सर सजे-धजे दो हाथियों के साथ सफ़र करती थी, जिनके साथ पांच हज़ार पैदल सिपाहियों का कारवां चलता था।
18वीं सदी में मुग़लों और पुर्तगालियों दोनों का ही पतन होने लगा। एक तरफ़ जहां मुग़ल शासित कुछ इलाक़े आज़ाद होने लगे थे, वहीं पुर्तगाली भारत के पश्चिमी तट पर सीमित होकर रह गए। लेकिन इस उथल-पुथल के बीच भी उनके दोस्ताना संबंध बेहतर होते गए, जो जुलियाना की वजह से ही मुमकिन हो पाया था। जूलियाना की वजह से जेसुइट मिशन (ईसाई धर्म के प्रचार के लिए बना संगठन) और अधिक सक्रिय हो गया था ,और सूरत को पुर्तगालियों के लिए शुल्क मुक्त बंदरगाह बना दिया गया। जैसे ही यह बात गोवा में पुर्तगाली सरकार के कानों तक पहुंची, सरकार ने इस बात से प्रभावित होकर जूलियाना को मुग़ल दरबार में अपना राजदूत बना दिया। कुछ यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार, जूलियाना, ईसाई धर्म और यूरोपीय लोगों के नुमाइंदे के रूप में देखा जाता था।
भारतीय तट पर जब डचों ने पुर्तगालियों को परास्त कर दिया। उसके बावजूद, एक निष्पक्ष राजनयिक के रूप में जुलियाना न सिर्फ़ डच को मिलने का समय देती थी, बल्कि ज़रूरत पड़ने पर उनकी मदद भी करती थी! जूलियाना के सम्मान में सन 1726 में एक डच क्रॉनिकल में उन पर एक चित्र प्रकाशित किया गया था!
सन 1712 में बहादुर शाह-प्रथम की मौत के बाद जब फ़र्रुख़सियार और उसके बाद मुहम्मद शाह ‘रंगीला‘ तख़्त पर बैठे तब भी जुलियाना की शान और हैसियत में कोई कमी नहीं आई। सन 1720 में मुहम्मद शाह ‘रंगीला‘ के शासनकाल आते आते जुलियाना बूढ़ी हो चुकी थी, और उसने अपने हिस्से के गांव में एक सराय बनवाई थी।, जहां यात्री, श्रद्धालु और राहगीर ठहरा करते थे। जिसे आज भी ‘सराय जुलेना‘ कहा जाता है। जुलियाना के अंतिम दिनों के बारे कोई जानकारी नहीं है। कुछ लोगों का दावा है, कि जूलियाना ने अपने अंतिम दिन गोवा में बिताए, जहां सन 1734 में उनकी मृत्यु हो गई।
वक़्त और क़ुदरत ने सराय की शान-ओ-शौकत ख़त्म हो गई। अब यहां डीडीए के फ़्लैट हैं। जुलियाना के वंशज कहां गए, ये भी एक राज़ है। 20वीं सदी की शुरुआत में, रायसीना इलाक़े से विस्थापित हूए गांववाले यहां आकर बसने लगे थे, क्योंकि वहां एक नई औपनिवेशिक राजधानी, नई दिल्ली की नींव रखी जा रही थी। जूलेना सराय में ही मसीहगढ़ चर्च पिछले 114 सालों से मौजूद है। आज सराय जुलेना गांव, एक ऐसी पुर्तगाली महिला की एकमात्र निशानी के रूप में मौजूद है, जिसकी हैसियत, मुग़ल दरबार में किसी हुकमरान से कम नहीं थी।
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