13 अप्रैल सन 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में निहत्थे भारतियों पर ब्रिगेडियर जनरल रिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर ने जो बर्बरता और अमानवीय हरकत की थी, उसकी टीस शायद ही कभी भुलाई जा सके। सबसे बड़ी दुख की बात तो यह है, कि उस घटना में शहीद होने वाले लोग अभी तक प्रशासन के लिए एक पहेली बने हुए हैं।
आज भी लोग उनके यादगार-स्थल पर उन अज्ञात शहीदों को अपने श्रद्धासुमन तो अर्पित कर रहे हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम है कि दरअसल वे श्रद्धांजली दे किसको रहे हैं। जलियांवाला बाग़ में उस दिन कुल कितने लोग मारे गए और कितने ज़ख्मी हुए; यह आज भी एक रहस्य बना हुआ है। लगता है यह राज़ अब शायद ही कभी ज़ाहिर हो पाए। सच यह है कि इस बारे में ब्रिटिश शासन के बाद आज़ाद भारत की किसी सरकार द्वारा कोई निष्पक्ष जाँच कराई ही नहीं गई है। अभी हाल ही में इन शहीदों की सूची तैयार करने के लिए पंजाब सरकार ने अपने स्तर पर कथित तौर पर प्रयास अवश्य शुरू किए हैं, परंतु उनके परिणाम शून्य मात्र ही सामने आ सके हैं।
जलियांवाला बाग़ नरसंहार के तुरंत बाद जो सरकारी रिपोर्ट पेश की गई थी, उसमें कहा गया था कि जनरल डायर बाग़ में 50 गोरखा और ब्लौच सैनिकों के साथ दाख़िल हुआ था। उन सैनिकों ने कुल 1650 गोलियां चलाईं। यानी प्रति सैनिक द्वारा 33 गोलियां चलाई गईं।
रिपोर्ट के मुताबिक गोलियों की यह गिनती वहां से मिले खाली कारतूसों के मद्देनज़र लगाई गई थी। परन्तु सरकारी रिपोर्ट में बताई गई गोलियों की यह गिनती कितनी सही थी, इस संबंध में सच्चाई जानने की कभी कोई कोशिश नहीं की गई।
नरसंहार के तुरंत बाद लाहौर में पंजाब के लैफ्टीनेंट गवर्नर माईकल ओ’डवायर को भेजी अपनी रिपोर्ट में जनरल आर.ई.एच. डायर ने 200 से 300 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की थी। जबकि माईकल ओ’डवायर ने अपनी भेजी रिपोर्ट में मरने वालों की संख्या दो सौ बताई। जनरल डायर उस वक़्त तक यही मान कर चल रहा था कि उस समय बाग़ में पांच हज़ार के क़रीब लोग थे। जबकि बाद में मिली ख़ुफ़िया रिपोर्ट से उसे पता चला था कि बाग़ में उसके अंदाज़े से पांच गुना ज़्यादा यानी पच्चीस हज़ार के करीब लोग मौजूद थे।
होम-मिनिस्टरी विभाग (सन 1919), में चीफ़ सैक्रेट्ररी जे.बी.थॉमस और एच.डी. क्रैक ने दो सौ नब्बे लोगों के मारे जाने की पुष्टि की है, जबकि मिलिट्री रिपोर्ट में कहा गया है कि जलियांवाला बाग़ में दो सौ से भी कम लोग मारे गए थे। आधिकारिक तौर पर तीन सौ इक्यासी लोगों के मारे जाने और बारह सौ आठ के ज़ख़्मी होने की पुष्टि की गई। अमृतसर सेवा समिति ने बाग़ में मरने वालों की गिनती पांच सौ एक बताई थी। समाचार पत्र ‘अमृत बाजार पत्रिका’ कलकत्ता के 7 अगस्त सन 1919 के अंक के अनुसार स्वामी श्रद्धानंद ने अमृतसर पहुँचकर आंकड़ों का जायज़ा लिया और मरने वालों की तादाद पंद्रह सौ से ज़्यादा बताई।
अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन ड़ॉ. स्मिथ के अनुसार पंद्रह सौ छब्बीस लोग उस हादसे का शिकार हुए। जलियांवाला बाग़ यादगारी ट्रस्ट के पास 388 नामों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग़ शहीद परिवार समिति के पास 436 नामों की जानकारी है। पंजाब गवर्नमेंट होम मिनिस्ट्री पार्ट बी. सन 1921, में मृतकों के 381 नाम मौजूद हैं।
सरकारी आतंक और सरकार की पूरी सावधानी के बावजूद जलियांवाला बाग़ नरसंहार की खबर फैल गई और पंडित मदन मोहन मालवीय अमृतसर पहुँच गए।
वे रेलवे फ़ुट ब्रिज (मौजूदा पदम् चंद भंडारी पुल के क़रीब) के पास एक मंदिर में रूके। अंग्रेज़ अधिकारियों के डर से, कोई अमृतसर निवासी उन से वहां मिलने तो दूर, पानी तक पिलाने नहीं पहुँचा। इस के बावजूद उन्होंने साहस नहीं छोड़ा और पूरे शहर में घूम-घूम कर उस घटना से संबंधित जानकारियां जमा कीं। श्री मालवीय के अनुमान के अनुसार जलियांवाला बाग़ में तेरह सौ के करीब लोग मारे गए थे।
इस नरसंहार के एक अन्य चश्मदीद गवाह लाला गिरधारी लाल जो कि अमृतसर फ्लोर एंड जनरल मिल्स कंपनी के प्रबंध-निदेशक एवं पंजाब व्यापार मंडल के उपाध्यक्ष थे और जिनका घर बिल्कुल बाग के पास ही था, का अनुमान था कि जनरल डायर के बाग से चले जाने के बाद बाग़ में एक हज़ार से अधिक लाशें पड़ी हुई थीं।
लाला गिरधारी लाल 13 अप्रैल सन 1919 की सुबह 11.30 बजे कलकत्ता मेल से अमृतसर पहुँचे थे। उन्होंने जो ब्यान दर्ज करवाया वह इस प्रकार था, “जब मैं अमृतसर स्टेशन से बाहर निकला तो वहां न कोई क़ुली था और न कोई सवारी। मैंने देखा पैदल चलने वालों के लिए जो पुल था, उस पर गोरे सैनिक पहरा दे रहे थे। वे हर किसी के सामान की अच्छी तरह से तलाशी ले रहे थे। किसी को वे छड़़ी लेकर चलता देखते तो तुरंत उससे छड़ी रखवा ली जाती। जब मैं शहर के अंदर दाख़िल हुआ तो पता चला कि बिजली-पानी की आपूर्ति एक दिन पहले ही बंद कर दी गई थी। मेरा घर जलियांवाला बाग़ के बिल्कुल पास ही था।
उस सायं मैंने बाग़ में सैंकड़ों लोगों को सैनिकों की गोलियों से मरते देखा। ज़्यादातर सैनिक उन रास्तों की ओर गोलियां चला रहे थे जहां से लोग बाहर की ओर भाग रहे थे। कई लोग भागती हुई भीड़ के पैरों के नीचे कुचल कर मर गए। जो लोग ज़मीन पर लेट गए थे उन पर भी गोलियां चलाई जा रही थीं। सैनिकों के बाग़ से चले जाने के बाद मैंने पूरे बाग़ का चक्कर लगा कर देखा। हर जगह लाशों के ढ़ेर लगे हुए थे। किसी के सिर में गोली लगी थी, किसी की आँख में गोली घुस गई थी, तो किसी की नाक और किसी के हाथ-पैर ज़ख़्मी हो गए थे। मेरा ख़्याल है कि उस समय एक हज़ार से अधिक लाशें बाग़ में थीं।”
जलियांवाला बाग़ क़त्ल-ए-आम में शहीद होने वाले लोगों के नामों की वह सूची जो सरकारी स्तर पर 12 नवम्बर सन 1919 को मुकम्मल की गई थी, उसमें मरने वालों के पांच सौ एक नाम दर्ज हैं, लेकिन इन में से 43 पुरूषों, एक महिला और एक बच्चे का सेवा समिति ने अंतिम संस्कार किया था, लेकिन उनकी पहचान नहीं हो सकी थी। इस लिए इस सूची में उनके नामों का कोई विवरण नहीं है। इस के अतिरिक्त इन नामों में एक व्यक्ति का नाम भूलवंश दो बार लिखा गया और अन्य 14 लोगों की बाद में जिंदा होने की पुष्टि की गई।
जलियांवाला बाग़ में 13 अप्रैल 1919 को शहीद होने वाले लोगों के नामों की उक्त सभी सूचियों में सब से बड़ी ख़ामी यह है कि इन में दर्ज नामों की गिनती हादसे के चार माह बाद यानी 20 अगस्त सन 1919 को आरम्भ की गई। उस वक्त तक लोग जलियांवाला बाग़ नरसंहार के बाद पैदा हुए बदतर हालात से पूरी तरह वाक़िफ़ हो चुके थे और बहुत से लोगों ने किसी नए झमेले में पड़ने के डर से हादसे में शहीद हुए अपने परिजनों की सरकार को जानकारी ही नहीं दी। इन में कुछ लोग ऐसे भी थे, जो उस नरसंहार में बुरी तरह से जख़्मी हुए थे और बाद में इलाज के दौरान उनकी मृत्यु हुई थी। इन लोगों के परिजन भी परिवार के शेष लोगों की गिरफ़्तारी के डर से सामने नहीं आए।
जलियांवाला बाग़ नरसंहार को आज 100 वर्ष से ज़्यादा का समय बीत चुका है, साधारण-सी बात है कि आज उस नरसंहार से संबंधित अन्य सच्चाईयों के साथ-साथ उस दिन मारे गए लोगों के नामों की सही जानकारी मिलना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव ही है। लेकिन इस सबके बावजूद, जिन शहीदों के नाम हमारे सामने आ चुके हैं, कम से कम उनको तो सम्मान दिया ही जा सकता है । इस लिए सरकार को चाहिए कि जलियाँवाला बाग़ नरसंहार में शहीद होने वाले देश-भक्तों को अज्ञात न रहने दे, बल्कि उनके नाम सम्मान सहित सामने लाए जाएं।
प्रत्येक भारतीय का भी यह दायित्व बनता है कि वह जलियाँवाला बाग़ क़त्ल-ए-आम के इन शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करे, जिनके नाम, शहीदों की तरह बेशक जनता की जुबान पर नहीं हैं; किन्तु निश्चय ही ये शहीद आज़ादी के भवन की नींव के उन पत्थरों की तरह हैं जो ऊपर से भले दिखाई नहीं पड़ते, किन्तु यह सच है कि उनकी नींव रूपी शहादत के बगैर आज़ाद भारत की यह इमारत खड़ी नहीं हो सकती थी।
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