जहांगीर की आरामगाह

इसे इतिहास की विडंबना कहें या हमारी बदनसीबी कि बादशाह नूरूद्दीन मोहम्मद सलीम उर्फ़ जहांगीर उर्फ़ शेख़ू और मेहरुन्निसा उर्फ़ नूरजहां की शुरूआती मुलाकातों की गवाह रही मुग़लकालीन यादगार आज ख़ुद अपने वजूद से भी बेख़बर है। आज जिस जगह यह स्मारक मौजूद है, वहां आस-पास के इलाक़ों में रहने वाले भी इसके बारे में कुछ ख़ास नहीं जानते हैं।

अमृतसर से 24 किलोमीटर दूर पाकिस्तान से लगी सरहद के बिल्कुल पास कस्बा लोपोके से सटे महज़ एक किलोमीटर दूरी पर आबाद गांव प्रीत नगर में बादशाह जहांगीर द्वारा बनवाई आरामगाह की दो-मंज़िला भव्य इमारत खेतों में तन्हां खड़ी दिखाई पड़ती है। ये वो जगह है जहां दिल्ली से लाहौर आते-जाते वे रुक कर आराम किया करते थे। सड़क से दिखने वाली इस इमारत पर नज़र पड़ते ही इसके अतीत के बारे में जानने की जिज्ञासा पैदा होने लगती है।

अमृतसर डिस्ट्रिक्ट गजे़टीयर के अनुसार शादी से पहले दिल्ली से लाहौर आते-जाते समय अक्सर बादशाह जहांगीर नूरजहां से इसी आरामगाह में मिला करते थे। यह गांव पहले लोपोके गाँव का ही हिस्सा हुआ करता था लेकिन अब इसकी पहचान एक अलग पंचायत के रुप में है। अमृतसर के इतिहास पर प्रकाशित किताब ‘अमृतसर-आरम्भ से अब तक’ के अनुसार जब भी बादशाह जहांगीर दिल्ली से लाहौर या लाहौर से कश्मीर आया जाया करते थे तो उनकी प्रिय बेगम नूरजहां उर्फ़ मेहरुन्निसा भी अक्सर उनके साथ होती थीं और दोनों पड़ाव के दौरान इसी आरामगाह में आराम फ़रमाते थे। यह आरामगाह एक क़िले की तरह थी। चारों और मज़बूत दीवारें, बीच में सुरक्षा बुर्ज और दीवार के साथ लगा हुआ एक विशाल तालाब। आरामगाह के चारों ओर एक ख़ूबसूरत बगीचा भी था जिसमें तरह-तरह के फूलों के पौधे लगे होते थे।

मेहरुन्निसा से नूरजहां बनी बादशाह बेगम के बारे में 1892 में छपी किताब ‘लाहौर’ में सैयद मुहम्मद लतीफ़ बताते हैं कि मेहरुन्निसा के पिता मिर्ज़ा ग़यास बेग मुग़ल शासक अकबर के दरबार में महत्वपूर्ण पद पर थे और उनकी प्रतिभा और सेवाओं के लिए अकबर ने उन्हें ‘ऐतमाद-उद-दौला’ (राज्य का एक स्तंभ) की पदवी से नवाज़ा था। मेहरुन्निसा की पहली शादी 17 साल की उम्र में अली क़ुली ख़ान ‘शेर अफ़ग़न’ से हुई थी जिससे उनकी एक बेटी भी थी। सन् 1607 में बंगाल के सूबेदार क़ुतुबुद्दीन के साथ लड़ाई में शेर अफ़ग़न के मारे जाने के बाद मेहरुन्निसा को दिल्ली में बादशाह के शाही हरम में भेज दिया गया। यहाँ वह बादशाह अकबर की विधवा ’रुक़ैया बेगम’ की दासी बन गईं। सन् 1611 में जश्न-ए-नौरोज़ के दौरान जहांगीर ने मीना बाज़ार में मेहरुन्निसा को पहली बार देखा और देखते ही वे उनकी ख़ूबसूरती पर फ़िदा हो गए और कुछ ही महीनों बाद जहांगीर ने उनसे निकाह कर लिया। जहांगीर को उनसे इतनी मोहब्बत हो गई कि कुछ ही दिनों में मेहरुन्निसा उनकी पसंदीदा बेगम बन गईं। शादी के बाद जहांगीर ने उन्हें नूर महल (महल की रौशनी) नाम दिया। बाद में, सन् 1616 में उन्हें नूरजहां (दुनिया की रौशनी) कहा जाने लगा।

जहांगीर ने नूरजहां को सरकारी कामकाज की ज़िम्मेदारी भी सौंप रखी थी। धीरे-धीरे वह पर्दे के पीछे से ही मुग़ल हुकुमत चलाने लगीं। यह वह दौर था जब मुग़ल हुकमत तेज़ी से बढ़ रही थी। सरकारी कामकाज के अलावा नूरजहां ने अपने नाम के सिक्के भी जारी करवा दिए थे। जहांगीर की शराब और अफ़ीम की लत की वजह से सन् 1627 में उनके इंतक़ाल के बाद नूरजहां की हुक़ूमत पर गिरफ़्त और मज़बूत हो गई।

किताब ‘ट्रैवल्स ऑफ़ गुरू नानक’, (चंडीगढ़, 1969) के लेखक सुरेंद्र सिंह कोहली, गांव प्रीत नगर से थोड़ी दूर गाँव वैरोके में मौजूद फ़क़ीर शाह बख़्तियार की ख़ानगाह का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि प्रीत नगर से क़रीब डेढ़ किलोमीटर दूर पर भिंडी सैदा-अजनाला रोड पर गांव वैरोके में फ़क़ीर शाह बख़्तियार की ख़ानगाह है। कहते हैं कि उन दिनों फ़कीर शाह बख़्तियार के करिश्मों की आस-पास के क्षेत्रों में काफ़ी चर्चा थी। इसी वजह से नूरजहां भी अक्सर लोपोके गांव की अरामगाह में पड़ाव के दौरान फ़क़ीर की ख़ानगाह पर सजदा करने जाया करती थीं। बाद में, जहांगीर से निकाह के बाद उन्होंने शुक़राने के तौर पर इस ख़ानगाह के साथ ही एक मस्जिद भी बनवा दी थी। ख़ानगाह आज भी गाँव के खेतों में मौजूद है और वहां हर साल पीर का उर्स होता है लेकिन वहां सजदा करने वाले लोग फ़क़ीर की ख़ानगाह से जुड़े इतिहास से ज़्यादा वाक़िफ़ नहीं हैं। इसी तरह बहुत कम लोग ही प्रीत नगर में मौजूद बादशाह जहांगीर की आरामगाह के वजूद और इतिहास को जानते हैं।

लेखक गुरमुख सिंह ‘हिस्टोरिकल सिख राईंज़’ में लिखते हैं कि गुरू नानक देव जी अपने साथी भाई मरदाना के साथ इस गांव में फ़कीर शाह बख़्तियार से विचार विमर्श करने आए थे। वे जिस बेरी के पेड़ के नीचे बैठे थे वो आज भी हरा-भरा है और वहां गुरूद्वारा बेर बाबा नानक स्थापित है। देश के बँटवारे से पहले यह मुस्लिम बहुल गाँव था। लेकिन आज यहां एक भी मुस्लिम परिवार नहीं है।

बताते हैं कि जहांगीर की आरामगाह पहले काफ़ी विशाल हुआ करती थी और इसके चारों ओर बनी मज़बूत दीवार के साथ-साथ चारों किनारों पर सुरक्षा के लिए बनाए गए चार बड़े बुर्ज भी थे। रख-रखाव की कमी तथा अवैध क़ब्ज़ों की वजह से आज सिर्फ़ एक ही बुर्ज बाक़ी रह गया है। आरामगाह की बाहरी दीवार के साथ लगा एक विशाल और पक्का तालाब अब भी मौजूद है जो मुग़ल सल्तनत के घोड़ों-हाथियों के पानी पीने के लिए बनवाया गया होगा। मुग़ल शासकों ने आरामगाह की इमारत और तालाब की सीढ़ियां इतनी मज़बूत बनवाईं थी कि बिना रख रखाव के चार सदियों के बाद भी इन स्मारकों की हालत इतनी ख़स्ता नहीं हुई है कि इन्हें सहेज कर न रखा जा सके।

इस इलाक़े की रूह ये आरामगाह, जहां शहज़ादे सलीम और नूरजहां की मुहब्बत परवान चढ़ी थी, आज भी इंसाफ़ की गुहार लगा रही है। लोपोके गांव में खण्डहर बनती जा रही ये आलीशान मुग़लकालीन धरोहर गायों-भैसों का बसेरा बन चुकी है लेकिन राज्य और केंद्र सरकार के संबंधित विभाग सब जानते हुए भी लंबे समय से चुप्पी साधे बैठे हैं। आलम यह है कि बादशाह जहांगीर द्वारा बनवाई आरामगाह आज गोबर के उपले और पशुओं का चारा रखने की जगह बन गई है।

शर्मसार करने वाली लोगों की कारगुज़ारियां और राज्य सरकार की ख़ामोशी इस हक़ीक़त की पोल खोलने के लिए काफ़ी है कि हम अपनी विरासत को लेकर किस हद तक संजीदा और चिंतित हैं। राज्य और केंद्र सरकार को ज़रूर इस पर ध्यान देना चाहिए।

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