भारत के स्वतंत्रता संग्राम में वर्ष 1905 एक महत्वपूर्ण मोड़ था। भारत के वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल के विभाजन का फैसला सुना दिया था। इससे पूरे देश के बुद्धिजीवियों में आक्रोश फैल गया था, और देश की आज़ादी के आंदोलन में रफ्तार आ गई थी। इसने देशव्यापी विरोध और ‘स्वदेशी’ आंदोलन को जन्म दिया, जहां भारतीय सामान को बढ़ावा दिया गया, और विदेशी सामान का बहिष्कार किया गया था।
कट्टर साम्राज्यवादी लॉर्ड कर्ज़न ने भी कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्वायत्त चरित्र पर हमला किया, जिसकी स्थापना सन 1857 में हुई थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने इस संस्था की नीतियों को नियंत्रित करने के लिये अपनी सीनेट और सिंडिकेट में कई अंग्रेज़ सदस्यों को रखा था। विश्वविद्यालय अधिनियम, सन 1904 के तहत अंग्रेज़ पदाधिकारियों के पास अधिक शक्ति सुनिश्चित की गई थी। इसकी वजह से निर्वाचित सीनेट सदस्यों (भारतीयों) की संख्या कम हो गई, और सरकारी अधिकारियों (अंग्रेज़ सदस्यों) को और अधिकार मिल गए।
ब्रिटिश नामज़द व्यक्तियों को संबद्ध कॉलेजों, स्कूलों पर अंतिम अधिकार और शिक्षा के लिए अनुदान देने का हक़ था। लॉर्ड कर्ज़न की इस कार्रवाई की वजह से भारतीय बुद्धिजीवियों ने शिक्षा के क्षेत्र में ख़ुद के नियंत्रण की आवश्यकता महसूस की, और उन्हें शिक्षा की वैकल्पिक व्यवस्था विकसित बनाने के लिए प्रेरित किया। नतीजे में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् (एन सी ई) की स्थापना हुई। गुरु दास बनर्जी (कलकत्ता विश्वविद्यालय के पहले भारतीय कुलपति), राश बिहारी घोष , रविन्द्रनाथ टैगोर, तारक नाथ पालित, चित्तरंजन दास, बिपिन चंद्र पाल और अरबिंदो घोष जैसे प्रमुख बुद्धिजीवियों ने भारतीयों के लिए एक नई शिक्षा नीति पर चर्चा करने के लिए इस परिषद की स्थापना की थी।
इस परिषद के सबसे प्रमुख सदस्यों में से एक डॉन पत्रिका के संस्थापक-संपादक सतीश चंद्र मुखर्जी थे। मुखर्जी एक शिक्षाविद् और समाज सुधारक थे, जिन्होंने भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की रिपोर्ट के ख़िलाफ़ आंदोलन के जवाब में, सन 1902 में डॉन सोसाइटी की स्थापना की थी। वह समकालीन युवकों के गुरु थे, और भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की एक प्रणाली स्थापित करने में अग्रणी थे। डॉन सोसाइटी ने परिषद के लिए बौद्धिक ढांचा बनाया था। अंत में, 11 मार्च, सन 1906 को आयोजित एक सम्मेलन में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् (एनसीई), बंगाल का गठन किया गया। प्रख्यात भारतीय नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने एन सी ई के गठन को “स्वदेशी आंदोलन का पहला रचनात्मक प्रयास और स्वदेशी हित की सबसे बड़ी और पहली पहल” बताई।
बंगाल नैशनल कॉलेज
स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत से ही एन सी ई ने भारतीय युवाओं को आधुनिक वैज्ञानिक, और तकनीकी प्रशिक्षण देने की आवश्यकता महसूस की। इसका उद्देश्य छात्रों को एक करियर बनाने के लिए तैयार भी करना था। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए परिषद ने 14 अगस्त, सन 1906 को बाउ बाजार स्ट्रीट में बंगाल नेशनल कॉलेज नामक एक शैक्षणिक संस्थान की स्थापना की। कॉलेज ने प्रयोगशाला पद्धति और कार्यशाला के ज़रिये वैज्ञानिक और तकनीकी विषयों को पढ़ाया। इसके विशिष्ट पूर्व छात्रों ने बंगाल वाटरप्रूफ, बंगाल लैंप आदि जैसे स्वदेशी उद्योग भी स्थापित किए।
भारत में सबसे पुराने पूर्व छात्र संघों में से एक, कॉलेज के पूर्व छात्र संघ की स्थापना सन 1921 में हुई थी। प्रोफ़ेसर हीरा लाल रॉय और प्रोफ़ेसर बनेश्वर दास के नेतृत्व में और आचार्य पी सी रॉय की मदद से भारत में केमिकल इंजीनियरिंग के पहले पाठ्यक्रम की शुरुआत सन 1921 में हुई।
उसी साल एन सी ई को सर रासबिहारी घोष की इच्छा (विल) के तहत 13 लाख, 21 हज़ार,3 सौ रूपये दान में मिल गए। कलकत्ता नगर निगम ने जादवपुर रेलवे स्टेशन के पास लगभग 100 बीघा का ज़मीन की पेशकश की और बाद में निगम ने, विश्वविद्यालय को 92 बीघा, दूसरी ज़मीन पट्टे पर दी।
11 मार्च, सन 1922 में ‘बंगाल टैक्निकल इंस्टीट्यूट’ की आधारशिला रखी गई, जिसे सन 1928 में ‘इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी कॉलेज’ (सी ई टी) का नाम दिया गया। सी ई टी (जिसे आज जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के नाम से भी जाना जाता है) के छात्र अन्य संस्थानों की तुलना में अधिक संगठित और सह-पाठयक्रम गतिविधियों से जुड़े हुए थे।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि भारत में अमेरिकी सेना ने दूसरे विश्व युद्ध के अंत में ‘ब्लू अर्थ’ नाम की एक शानदार वर्कशॉप शुरु की। ये वर्कशॉप (अब एशिया में सबसे बड़ी मशीन कार्यशालाओं में से एक) छात्रों को ट्रैनिंग देने के लिए जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में स्थापित की गई थी।
जादवपुर विश्वविद्यालय की स्थापना सन 1947 तक सी ई टी ने भारत में तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में ख़ुद को स्थापित कर लिया था, लेकिन इसके संस्थापकों को सपना अभी अधूरा था, जो एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे।
आज़ादी के सात साल बाद, एन सी ई ने पश्चिम बंगाल सरकार से क़ानून के माध्यम से सी ई टी को एक विश्वविद्यालय का दर्जा देने की अपील की। एक साल बाद, जादवपुर विश्वविद्यालय विधेयक, सन1955 को पश्चिम बंगाल विधान सभा और बाद में विधान परिषद में पारित किया गया। राज्यपाल की सहमति मिलने के बाद विधेयक जादवपुर विश्वविद्यालय अधिनियम सन 1955 बन गया। विश्वविद्यालय का औपचारिक रूप से उद्घाटन भारत के उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने मार्च, सन 1956 में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद के स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान किया।
जादवपुर विश्वविद्यालय का पहला वार्षिक दीक्षांत समारोह 24 दिसंबर,सन 1957 को आयोजित किया गया था, जिसमें दीक्षांत भाषण प्रख्यात शिक्षाविद्, डॉ. ज़ाकिर हुसैन ने दिया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी सभा को संबोधित किया। समारोह में विभिन्न क्षेत्रों की विभूतियां भी मौजूद थीं। स्वतंत्रता के बाद जादवपुर विश्वविद्यालय में शिक्षण और अनुसंधान में बहुत प्रगति हुई।
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य कुमार सेन जादवपुर विश्वविद्यालय (1956 से 1958) के अर्थशास्त्र विभाग के प्रथम-प्रोफ़ेसर और पहले विभागाध्यक्ष थे। प्रोफ़ेसर एम एल श्रॉफ़ (भारत में फार्मेसी शिक्षा के जनक) के अकादमिक नेतृत्व में, सन 1963 में, पूर्वी भारत में पहली बार फ़ार्मास्युटिकल टेक्नोलॉजी में एक कोर्स शुरू किया गया था।
जादवपुर विश्वविद्यालय से कई दिग्गज जुड़े हुए हैं, जिनमें प्रो. सुशोवन चंद्र सरकार, प्रो. सुधींद्रनाथ दत्ता (बंगाली साहित्य में टैगोर-युग के बाद सबसे उल्लेखनीय कवि), प्रोफ़ेसर बुद्धदेव बोस और डेविड मैककचियन शामिल हैं। आगे चलकर राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् और जादवपुर विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र आधुनिक भारत के निर्माता बने।