सच्च-खंड से विख़्यात श्री हरिमंदर साहिब की भव्य इमारत जहां गुरूबाणी का इलाही शब्द-कीर्तन सदैव जारी रहता है; सिखों का केंद्रीय धुरा होने के साथ-साथ सिख समुदाय का शिरोमणि केंद्रीय धार्मिक स्थान भी है। स्वाभिमान से जीवन जीने की प्रेरणा देने वाले इस मुकद्दस स्थान का निर्माण पाँचवें गुरू अरजन देव जी ने अमृत सरोवर (श्री दरबार साहिब सरोवर) को पक्का करने के पश्चात् उसके बिल्कुल मध्य एक माघ 1645 बिक्रमी सम्वत् अर्थात 3 जनवरी 1588 (कुछ इतिहासकारों ने 28 दिसम्बर 1588 भी लिखा है) को आरम्भ करवाया। करीब 170 वर्ष तक सच्चखंड की इमारत अपनी पुरानी हालत में ज्यों की त्यों कायम रही।
अहमद शाह अब्दाली, जिसे अहमद शाह दुर्रानी भी कहा जाता है, सन 1748 में नादिरशाह की मौत के बाद अफगानिस्तान का शासक और दुर्रानी साम्राज्य का संस्थापक बना। उसने भारत पर सन 1748 से सन 1758 तक कई बार चढ़ाई की। उसने अपना सबसे बड़ा हमला सन 1757 में जनवरी माह में दिल्ली पर किया। अहमदशाह एक माह तक दिल्ली में ठहर कर लूटमार करता रहा। वहाँ की लूट में उसे करोड़ों की संपदा हाथ लगी। दिल्ली लूटने के बाद अब्दाली का लालच बढ़ गया। उसने दिल्ली से सटी जाटों की रियासतों को भी लूटने का मन बनाया और मथुरा वृन्दावन, गोकुल, महावन, आगरा आदि शहरों में जम कर तोड़-फोड व लूट-पाट की। सन 1748 तथा सन 1767 के बीच अहमदशाह अब्दाली ने हिन्दुस्तान के विरुद्ध सात चढ़ाईयाँ कीं। उसने पहला आक्रमण सन 1748 में पंजाब पर किया, जो असफल रहा। सन 1749 में उसने पंजाब पर दूसरा आक्रमण किया और पंजाब के गर्वनर मुईनुलमुल्क को परास्त किया। सन 1752 में नियमित रुप से पैसा न मिलने के कारण पंजाब पर उसने तीसरा आक्रमण किया। सन 1753 ई. में मुईनुलमुल्क की मृत्यु हो जाने के बाद अदीना बेग खाँ को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया (मुईनुलमुल्क को अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब में अपने एजेन्ट तथा गर्वनर के रुप में नियुक्त किया था)। इस घटना के बाद अब्दाली ने हिन्दुस्तान पर हमला करने का निश्चय किया। नवम्बर, 1756 ई. में वह हिन्दुस्तान आया। 23 जनवरी, 1757 को वह दिल्ली पहुँचा और शहर पर कब्जा कर लिया। वह लगभग एक माह तक दिल्ली में रहा और उसने नादिरशाह द्वारा दिल्ली में किये गये कत्लेआम और लूटमार को एक बार फिर से दोहरा दिया।
2 अप्रैल 1757 को जब उसने दिल्ली में लूट-मार कर लुटा हुआ धन-संपत्ति काबुल भेजी तो उसके सिपाहियों से कुछ सामान अंबाला के पास तथा शेष दुआबा तथा माझा के सिख जत्थों ने लूट लिया। पंजाब पहुँचने पर जब उसे यह खबर मिली तो उसने सिखों की इस कार्रवाई पर द्वेष में आकर श्री हरमंदिर साहिब तथा श्री अमृत सरोवर की बेअदबी की। इसके बाद नवम्बर 1757 में जब सूबा लाहौर तैमूर शाह द्वारा जहान ख़ां को फौज देकर अमृतसर भेजा गया तो उसने गुरू नगरी के बहुत सारे गुरूद्वारों को ज़मीनदोज़ करते हुए अमृत सरोवर को मिट्टी तथा गंदगी से भरवा दिया। इस के बाद भारत पर किए आठवें हमले के समय कुप्प रहीड़े में हुए बड़े घलुघारे से वापस लौटते हुए अहमद शाह दुरानी ने 10 अप्रैल 1762 को श्री हरिमंदिर साहिब की नींव में बारूद के कुप्पे रखवा कर इमारत को उड़ा दिया।
यह एक बहुत बड़ा दुखदाई तथा हृदय छलनी करने वाला सत्य है कि अहमद शाह की उक्त अति निंदनीय एवं घृणित कार्रवाई के बाद करीब दो वर्ष तक सच्चखंड की इमारत लुप्त रही और संगत इस मुकद्दस स्थान के दर्शनों से वंचित रही। जिस के बाद एक बैसाख सम्वत् 1822 अर्थात अप्रैल 1765 (कुछ लेखकों ने 17 अक्तूबर 1764 तथा कुछ ने कार्तिक सुदी 13 अर्थात 17 नवम्बर 1763 भी लिखा है) में खालसा पंथ के जत्थेदार स. जस्सा सिंह आहलुवालिया के हाथों नए सिरे से श्री हरिमंदिर साहिब की नींव रख कर इमारत का निर्माण आरम्भ करवाया गया।
कुछ लेखकों का मानना है कि श्री हरिमंदिर साहिब की नींव की पहली ईंट जत्थेदार नवाब सिंह कपूर ने रखी थी तथा चूना स. जस्सा सिंह आहलुवालिया ने डाला था
नए सिरे से शुरू किए नव-निर्माण के दौरान उत्तर प्रदेश के खुरजा शहर पर धावा बोलने से पहले स. जस्सा सिंह रामगढ़िया, स. जस्सा सिंह आहलुवालिया, स. जै सिंह घन्नैया, स. तारा सिंह गैबा तथा स. चढ़त सिंह शुकरचक्कीया आदि जत्थेदारों ने प्रण किया कि शहर को विजयी करने के पश्चात् जो धन-संपत्ति मिलेगी उसमें से आधी श्री हरिमंदिर साहिब की इमारत के निर्माण पर खर्च की जाएगी। खुरजा शहर फतह करने के बाद सात लाख रूपए इकट्ठे हुए, जो अमृतसर के करोड़ी मल साहूकार के पास जमा करवाए गए। इमारत पर राशि खर्च करने के सभी अधिकार जत्थों द्वारा सर्वसम्मति से गांव सुरसिंह के भाई देसराज को दिए गए। तवारीख़-ए-अमृतसर (उर्दू) के पृष्ठ 88-89 के अनुसार-”श्री हरिमंदिर साहिब की नई इमारत में खास नमूने की एक ईंच मोटी, तीन ईंच चौड़ी तथा 18 ईंच लंबी नानकशाही ईंटे इस्तेमाल की गईं। इन ईंटों की ख़ासियत यह है कि अगर एक ईंट अपनी जगह से निकल जाए तो दूसरी ईंटें उसी तरह कायम रहती हैं।”
खैर, उक्त घटना को घटित हुए आज ढाई सदी से भी ज्यादा का समय बीत चुका है। यह इतिहास का एक ऐसा कटु सत्य है, जिसके लिए न तो कभी सार्वजनिक तौर पर अफसोस ज़ाहिर किया गया और न ही इस दुखांत को श्री दरबार साहिब से संबंधित इतिहास की मौजूदा पुस्तकों में कोई विषेष स्थान ही दिया गया। परंतु जो लोग ढाई सदी पहले घटित हुई इस दुखद घटना के इतिहास से परिचित हैं, निष्चित ही यह सोच कर कि जब दो वर्ष तक श्री हरिमंदर साहिब की इमारत लुप्त रही होगी, उनका हृदय वेदना से भर उठता है।
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