ईसरलाट: जयपुर की विजय मीनार

राजस्थान का जयपुर शहर अपनी भव्य ईमारतों के लिए जाना जाता है और यहां का लगभग हर महल, हवेली और प्रवेश-द्वार देखने लायक़ है। लेकिन पुराने शहर के आकाश वृत पर जो स्मारक सबसे ज़्यादा हावी है वो है विजय मीनार जिसे ईसरलाट कहते हैं।

स्थानीय लोग इसे स्वर्गासूली या सरगासूली भी कहते हैं जिसका मतलब है एक मीनार जो स्वर्ग को भेदती है। इसका निर्माण जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जय सिंह-द्वितीय के पुत्र ईश्वरी सिंह ने सन 1749 में करवाया था। ईश्वरी सिंह और उसके सौतेले भाई माधो सिंह के बीच सत्ता संघर्ष हुआ था जिसमें से एक युद्ध में ईश्वरी सिंह ने बाज़ी मार ली थी। इस जीत की ख़ुशी में उसने ईसरलाट का निर्माण करवाया था। ये लाट क़रीब 270 साल से क़ायम है और इस जीत की याद दिलाती रही है लेकिन ईश्वरी सिंह का शासनकाल बहुत छोटा और उठापटक भरा रहा। आख़िरकार इन्हीं हालात ने उसकी जान ले ली।

ईश्वरी सिंह सन 1743 में सत्ता पर काबिज़ हुआ था और तभी सत्ता संघर्ष शुरु हुआ जो आमेर के शासक और उनके पिता महाराजा जय सिंह-द्वितीय( 16-1743) के एक वादे का नतीजा था। व्यवहार कुशलता और हाज़िरजवाबी के लिए प्रसिद्ध जय सिंह के वादे के मुताबिक़ एक संधि हुई थी। मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब जय सिंह से इतना प्रभावित हुआ था कि उसने उन्हें “सवाई” का ख़िताब दे दिया। सवाई का शाब्दिक अर्थ होता है एक चौथाई यानी ऐसा व्यक्ति जो अपने पूर्वजों से एक चौथाई बड़ा हो यानी महाराजा अपने पूर्वाधिकारियों तथा समकालीन लोगों से कहीं बेहतर थे।

सन 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद, जय सिंह के शासनकाल में ही में मुग़ल साम्राज्य का पतन होने लगा था। लेकिन उथलपुथल के इस दौर के बावजूद जय सिंह ने मेवाड़ जैसे अन्य राजपूत राजाओं के साथ सामरिक गठबंधन कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया और इसे मज़बूत बनाया। ऐसा ही एक गठबंधन उनके पुत्र ईश्वरी सिंह के लिए दुर्भाग्यपूर्ण साबित हुआ।

ईश्वरी सिंह के सत्ता संभालने के तीन दशक से भी पहले सन 1708 में जय सिंह ने मेवाड़ के महाराजा के साथ एक संधि की थी कि वह मुग़लों के क़ब्ज़े से उनका साम्राज्य वापस दिलवा देंगे। इस संधि के मुताबिक़ जय सिंह ने मेवाड़ साम्राज्य की राजधानी उदयपुर की राजकुमारी से विवाह किया और वादा किया कि उनसे जो औलाद होगी वही उनका उत्तराधिकारी होगी। 1728 में इनका एक बेटा हुआ जिसका नाम माधो सिंह था।

लेकिन जब जय सिंह के बड़े बेटे शिव सिंह की सन 1724 में अचानक मृत्यु हो गई तब साम्राज्य की परंपरा के अनुसार ईश्वरी सिंह सत्ता का वारिस हो गया। इस तरह जब सन 1743 में उसके पिता महाराजा जय सिंह की मृत्यु हुई तो ईश्वरी सिंह को सत्ता मिल गई।

ईश्वरी सिंह एक साल तक राजधानी जयपुर में रहा और फिर जयपुर साम्राज्य के क़ानूनी उत्तराधिकारी के रुप में मान्यता हासिल करने मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह से मिलने दिल्ली पहुंचा। लेकिन जय सिंह के साले यानी माधो सिंह के मामा मेवाड़ के महाराणा जगत सिंह –द्वितीय, सन 1708 में की गई जय सिंह की संधि का माधो सिंह के साथ मिल कर आह्वान किया। जगत सिंह ने ईश्वरी सिंह की ग़ैरहाज़िरी का फ़ायदा उठाते हुए अपने भतीजे माधो सिंह को सत्ता दिलाने के प्रयास शुरु कर दिए। माधो सिंह ईश्वरी सिंह का सौतेला भाई था।

जय सिंह के पुत्रों के बीच सत्ता संघर्ष की ये शुरुआत थी जो छह साल तक चला। मेवाड़ के महाराणा और माधो सिंह ने मराठों और कोटा, बूंदी तथा शाहपुरा जैसे राजपूत साम्राज्यों के साथ गठबंधन किया। गठबंधन करने में सबके अपने निजी स्वार्थ भी थे। जैसे, बूंदी के उम्मेद सिंह हाडा अपना साम्राज्य दोबारा हासिल करना चाहते थे क्योंकि जय सिंह ने उनके पिता बुद्ध सिंह को सत्ता से बेदख़ल कर दिया था। कोटा के शासक दुर्जन साल ने उम्मेद सिंह का इस मामले में साथ दिया और गठबंधन का हिस्सा बन गया। मराठा साम्राज्य के पेशवाओं ने ईश्वरी सिंह का साथ दिया लेकिन महाराणा जगत सिंह ने महाराजा होल्कर को बीस लाख रुपए देने की पेशकश की।

इस दौरान दो महत्वपूर्ण युद्ध हुए- एक सन 1747 में राजमहल का युद्ध और दूसरा सन 1748 में बगरु का युद्ध। राजमहल की लड़ाई खांडे राव के नेतृत्व में उदयपुर, कोटा और होल्कर की संयुक्त सेनाओं के बीच हुई। इसमें ईश्वरी सिंह की सेना की जीत हुई जिसका नेतृत्व हरगोविंद नटाणी ने किया था। इसके बाद संयुक्त सेना पीछे चली गई और ईश्वरी सिंह हीरो की तरह अपनी राजधानी वापस आ गया।

सन 1748 में माधो सिंह ने एक बार फिर जयपुर पर हमला बोला जिसे बगरु का युद्ध कहा जाता है। इसमें उदयपुर, मराठा, मल्हार होल्कर, गंगाधर तात्या, बूंदी के उम्मेद सिंह, कोटा के दुर्जन सिंह और अन्य राजपूत प्रमुखों की सेनाओं ने हिस्सा लिया। मेवाड़ के महाराणा ने पेशवाओं को अपनी तरफ़ मिला लिया था जो पहले ईश्वरी सिंह के साथ थे। ईश्वरी सिंह के साथ अब सिर्फ़ भरतपुर के जाट शासक सूरज मल ही रह गया था।

इस युद्ध का कोई नतीजा नहीं निकला था । लेकिन ईश्वरी सिंह के कुछ क्षेत्र माधो सिंह के हाथों में चले गए, उम्मेद सिंह को बूंदी मिल गया और ईश्वरी सिंह को मराठाओं को मुआवज़ा देना पड़ा।

माधो सिंह ने सन 1744 और सन 1748 के बीच सत्ता हथियाने की कोशिशें की लेकिन सफल नहीं हुआ। कहा जाता है कि सन 1749 में ईश्वरी सिंह ने संयुक्त सेना पर अपनी जीत की घोषणा के लिए जयपुर के बीचों बीच विजय लाट ईश्वर लाट या ईसरलाट बनवाई। पीले रंग की ये लाट पुराने शहर के गुलाबी त्रिपोलिया बाज़ार में अलग ही नज़र आता है।

ईसरलाट दरअसल त्रिपोलिया बाज़ार के पीछे आतिश बाज़ार का एक हिस्सा है। सात मंज़िला ये लाट राजपूत और मुग़ल वास्तुशिल्प का मिश्रण है। कहा जाता है कि अष्टकोणीय लाट की डिज़ाइन स्थानीय वास्तुकार गणेश खोवाल ने बनाई थी। इसके अंदर घुमावदार सीढ़ियां हैं। रौशनी और हवा के लिए इसमें छोटी खिड़कियां हैं और ऊपर एक खुली मंडपनुमा बालकनी है जहां से गुलाबी शहर का शानदार नज़ारा दिखता है। कहा जाता है कि इस लाट का इस्तेमाल शहर की निगरानी के लिए भी होता था।

ईसरलाट के निर्माण और इसे बनवाने वाले शासक के शासनकाल के पीछे नाटकीय कहानी जुड़ी हुई है। ईसरलाट अफ़वाहों से भी घिरी रही है। कहा जाता है कि ईश्वरी सिंह ने स्थानीय लड़कियों, शायद अपने सेनापति हरगोविंद नटाणी की बेटी को निहारने के लिए ये लाट बनवाई थी। ये भी कहा जाता है कि इन अफ़वाहों को माधो सिंह ने भी बढ़ाया दिया क्योंकि वह अपने सौतेले भाई को अपमानित करना चाहता था। मगर इन अफवाहों में कोई सच्चाई नहीं है।

इस भव्य मीनार का निर्माण जहां ईश्वरी सिंह ने अपनी जीत और गौरव के प्रतीक के रुप में किया था वहीं उसका अंत भी बहुत दुखदाई रहा। लगातार उठापटक और अपने सौतेले भाई के साथ निरंतर लड़ाई का ईश्वरी सिंह पर बुरा असर पड़ा और उसने सन 1750 में महज़ 32 साल की उम्र में आत्महत्या कर ली।

कहा जाता है कि अपने जीवन के अंतिम समय में ईश्वरी सिंह ने ख़ुद को एक कमरे में बंद कर लिया था और उसने होल्कर मराठों की बढ़ती सेना को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि उसने अपने नौकरों को ज़हर लाने का आदेश दिया था जो उसने खा लिया था। कुछ का ये भी कहना है कि उसने कोबरा सांप मंगवाया था जिसके डसने से उसकी मृत्यु हो गई।

ईश्वरी सिंह की मृत्यु के बाद जयपुर साम्राज्य माधो सिंह को मिल गया जिस पर उसने सन 1768 में अपनी मृत्यु तक 16 साल तक राज किया। एक पुराने वादे के मुताबिक़ महाराजा ने सिंहासन तो हासिल किया लेकिन इसकी क़ीमत बहुत मंहगी चुकानी पड़ी।