बादशाह शाहजहाँ अपनी बेगम मुमताज़ महल से इतनी मोहब्बत करते थे कि उसे अमर बनाने के लिए उन्होंने ताजमहल बनवा दिया । ताजमहल आज दुनिया के अजूबों में से एक है। यूं तो कई नवाबों,राजाओं और बादशाहों ने भी अपनी महबूबाओं के लिए आलीशान इमारतें बनवाईं लेकिन वो न तो ताजमहल की तरह मशहूर हो पाईं और न ही यादगार बन पाईं ।रांची की इमाम कोठी भी मोहब्बत की ऐसी ही एक कहानी बयां करती है।
एक वक़्त था जब रांची में खुली जगह की कमी नहीं थी।अंग्रेज़ों के ज़माने से ही रांची एक लोकप्रिय हिल स्टेशन बन चुका था, जहां बड़ी तादाद में सैलानी आया करते थे लेकिन पिछले कई सालों में शहरीकरण की दौड़ में झारखण्ड की राजधानी रांची शहर एक घनी आबादी वाले कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गया। अगर लागों को यह बताया जाए कि इस कांक्रीट के जंगल के बीच एक विशाल क़िला या महल छुपा हुआ है तो शायद ही कोई विश्वास करे। दरअसल,एक ज़माने में रांची, बिहार की जानीमानी हस्तियों की पसंदीदा जगह हुआ करती थी और जिस महल की में बात कर रहा हूँ उसे ऐसे ही एक हस्ती ने , बड़ी प्यार से अपनी पत्नी के लिए बनवाया था। बदक़िस्मती से आज लोग इसे मोहब्बत की निशानी नहीं बल्कि भूतिया महल के रूप में जानते हैं। पिछले लगभग दस सालों से यह महल टाइल्स का एक बड़ा गोदाम है। इस आलीशान महल की अब यह हालत है की लोग न सिर्फ़ इसकी पहचान बल्कि इसके इतिहास को भी भूल बैठे हैं । जिस इसका नाम इमाम कोठी हुआ करता था।
मेरा बचपन रांची में बीता है । बात सन 1979 की है , जब हम लोग बस से कोलकाता से रांची आ रहे थे। मेरी सीट बस के बायीं ओर थी । अचानक खिड़की से मुझे बाग़ीचों से घिरा एक महल दिखाई पड़ा। ये दूर से किसी विदेशी क़िले की तरह लग रहा था। महल के ऊपर एक बड़ा सा बुर्ज था। ये दृश्य कुछ सेकंड में ही मेरी आंखों से ओझल हो गया।
“क्या आपने उस महल को देखा है ? बिलकुल विदेशी कैसिल की तरह लगतात है।” मैंने पिताजी को नींद से जगा कर पूछा था |
“तो इस बार यह कैसिल है….कोई नयी कहानी ? ” पिताजी ने मेरी बात को हवा में उड़ाते हुए कहा । “हाँ … एक विशाल क़िले जैसा है।” मैंने कहा |
मेरे पिताजी और भाई, दोनों ने मेरी बात पर यक़ीन नहीं किया। मैं उन्हें यक़ीन दिला भी न सका। सबसे दुखद बात यह थी कि जब मैं रांची पहुंचा और अपने स्कूल के दोस्तों और इलाक़े के अन्य लोगों से उस क़िले के बारे में पूछा तो कोई भी उसके बारे में कुछ नहीं बता सका। जहां मैंने वो महल या क़िला देखा था, वह शहर से लगभग 7 किमी दूर था। यह सैनिक छावनी थी जिसे स्थानीय लोग दीपा टोली के नाम से जानते थे। हम जिस रास्ते से आए थे वह हज़ारीबाग़ रोड थी । यहां से गुज़रने वाले लोगों की भी इस महल पर नज़र नहीं पड़ी थी। मैं पिताजी या किसी और को उस जगह ले चलने के लिए राज़ी नहीं कर सका। रांची में हमारे घर से यह जगह लगभग 13 किमी दूर होगी। मैं यह नहीं भूल सकता कि मैंने वाक़ई में एक “कैसिल” देखा था और किसी को भी मुझ पर यक़ीन नहीं था।
बहरहाल, मैं कॉलेज की पढ़ाई के लिये कोलकाता चला आया।
समय बीतता गया और मैं अपने “ड्रीम कैसिल” के बारे में पूरी तरह भूलता गया। उसके बाद सन 1995 और सन 2002 में दो बार मैं रांची आया लेकिन कैसिल मेरे ज़हन में नहीं आया।
फिर 2014 में मेरे दोस्त शुभदीप मुखर्जी ने मुझे बताया कि उसने सचमुच एक विदेशी कैसिल जैसा दिखनेवाला महल देखा है। हालंकि अब उसकी हालत जर्जर है। यहां के स्थानीय लोग उसे इमाम कोठी के नाम से जानते हैं । उसने मुझे कुछ तस्वीरें भेजीं। तस्वीरों ने मेरी पुरानी यादें ताज़ा कर दीं।
उसने यह भी बताया कि इसका नाम इमाम कोठी है लेकिन अब उसकी हालत बेहद ख़स्ता है । न दरवाज़े हैं और न खिड़कियां। सब कुछ बहुत पहले टूट-फूट चुका है। भवन के कुछ हिस्सों को जैसे तैसे बचाया गया है। इस इलाक़े में मोतीलाल नाम का टाइल्स बनाने वाला है, जो इस इमारत के परिसर को गोदाम की तरह इस्तमाल कर रहा है। दरवाज़े पर पांच सुरक्षा गार्ड थे लेकिन उन्होंने इमारत के अंदर जाने की इजाज़त नहीं दी|
अली इमाम नाम सुनकर मैं चौंका था। जैसा कि मुझे याद पड़ता है, बिहार में अली इमाम नाम का एक मशहूर व्यक्ति गुज़र चुका था… क्या उसका संबंध हैदराबाद से था ? उसने यहां महल क्यों बनवाया…?
मैंने इस बारे में खोजबीन शुरू कर दी और इस बीच शुभदीप ने मुझे इमाम कोठी की सारी तस्वीरें इ-मेल भी कर दी । तब तक मुझे इसके बारे में काफ़ी जानकारियां मिल चुकी थीं। इस इमारत के बारे में 2005 तक स्थानीय अख़बारों में काफ़ी छपता रहता था।
दरअसल इमाम कोठी एक लंबे समय तक वीरान पड़ी रही थी । लोगों को लगता था कि इस पर किसी भूत का साया है । लोगों के डर या अंधविश्वास का फ़ायदा उठाकर बदमाशों ने इसे अपना अड्डा बना लिया। इसके महंगे दरवाज़े और खिड़कियां स्थानीय गुंडों ने ही चुराए थे। यहां एक हत्या भी हुई थी। आख़िरकार, ये जगह मोतीलाल नाम के एक स्थानीय टाइल्स व्यापारी ने ख़रीद ली । उसने क़िले का एक गेट बनवाया और उसके चारों ओर दीवार खड़ी कर दी। इस भव्य इमारत और इसके परिसर को संगमरमर के गोदाम में बदल दिया गया।! यह इमारत सन 1932 में बनी थी लेकिन सौ साल भी नहीं बीते और सपनों का यह महल गोदाम में तब्दील हो गया |
इमाम कोठी की कहानी
यह महल सर सैय्यद अली इमाम ने बनवाया था। इसका असली नाम अनीस महल था। सर इमाम अली अपने वक़्त की काफ़ी मशहूर हस्ती थे। उनका जन्म फ़रवरी सन 1869 में पटना के पास नियोरा गाँव में हुआ था।अली इमाम ने इंग्लैंड में क़ानून की पढ़ाई पूरी की थी । वह हमेशा अपने पेशे में डूबे रहते थे। वह ” मुक़दमा विजेता” के रूप में मशहूर थे और सन 1917 में पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बन गए।
सर सैय्यद अली इमाम ने सन 1910 से सन 1922 तक हैदराबाद दक्कन के प्रधानमंत्री के रूप में भी काम किया था, जो ब्रिटिश भारत की एक रियासत थी। उन्हें इम्पीरियल विधान परिषद में विधि विशेषज्ञ के रूप सदस्य बनाया गया था। अंग्रेज़ों ने उन्हें सर की उपाधि से नवाज़ा था।
अली इमाम एक ख़ानदानी परिवार से ताल्लुक़ रखते थे। उनके भाई सैयद हसन इमाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे और कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी रह चुके थे। उनके पिता इमदाद इमाम पटना कॉलेज में इतिहास के प्रोफ़ेसर हुआ करते थे।
सर अली इमाम के परदादा, खान बहादुर सैयद इमदाद अली पटना के सब-ऑर्डिनेट जज के पद से रिटायर हुए थे। उनके बेटे, ख़ान बहादुर शम्स-उल-उलेमा सैयद वाहिद उद्दीन पहले हिंदुस्तानी थे, जिन्हें ज़िला मजिस्ट्रेट बनाया गया था। अली इमाम के एक पूर्वज मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के स्ताद रहे थे।
सन 1911 में बिहार को बंगाल से अलग कर दिया गया था । सर सैय्यद अली इमाम ने, बिहार के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । दो साल बाद सन 1913 में सर अली इमाम ने विदेशी कैसिल की तर्ज़ पर विशाल महल बनवाना शुरू किया था । उन्होंने यह हवेली अपनी तीसरी बेगम अनीस फ़ातिमा को समर्पित की थी । अनीस से उन्होंने दूसरी पत्नी मरियम की मृत्यु के बाद शादी की थी।
लेडी इमाम के नाम से मशहूर अनीस फ़ातिमा असल में सर अली इमाम के मामू की बेटी थीं। ऐसा लगता है कि उन्हें अनीस से बहुत मोहब्बत थी और शायद यही वजह रही होगी कि उन्होंने इस इमारत का नाम “अनीस कैसिल” रखा था। अनीस कैसिल का डिज़ाइन स्कॉटलैंड के महलों की तरह था। बिहार और झारखंड दोनों जगह, आज तक इस तरह की कोई दूसरी इमारत दिखई नहीं दी है। इस कोठी को बनने में लगभग 20 साल लगे थे ।
अंग्रेज़ अधिकारी भी इस महल में आ चुके थे। इस तीन मंज़िला इमारत में 120 कमरे हैं हालंकि यह जानकारी कितनी प्रमाणिक है, ये मैं नहीं कह सकता क्योंकि शुभदीप को महल के अंदर जाने का मौक़ा नहीं मिला। इस महल में छह प्रवेश द्वार थे। कहा जाता है कि इस हवेली के फ़र्श के लिए संगमरमर का उपयोग किया गया था। इसे बनाने में क़रीब 20-30 लाख रुपये खर्च हुए थे।
लेडी इमाम बहुत ज़िन्दादिल महिला थीं । उन्हें हर कार्यकरम में बुलाया जाता था। 1932 में महल बनकर तैयार हो गया था लेकिन बदक़िस्मती से उसी साल सर अली इमाम का निधन हो गया। उन्होंने अनीस महल के परिसर में एक मक़बरा बनवाया था और उनकी इच्छा थी कि मरने के बाद उन्हें और उनकी पत्नी दोनों को पासपास दफ़्न किया जाए।
सर अली इमाम की इच्छा पूरी की गई । हालाँकि अनीस फ़ातिमा अधिक समय तक ज़िंदा रहीं। दरअसल उनका निधन सन 1979 में यानी उसी साल हुआ था जब मैंने पहली बार महल देखा था । वह उस समय 79 साल की थीं। उनका इंतक़ाल पटना में हुआ था। उनको दफ़्न भी वहीं कर दिया गया । निश्चित रूप से अनीस कैसिल बनवाते समय सर सैयद अली इमाम के दिमाग़ में ताज महल रहा होगा ।
बदक़िस्मती से इमाम कोठी यानी अनीस कैसिल अब व्यापारी मोतीलाल का गोदाम है जिनकी इतिहास में कोई दिलचस्पी नहीं है। ख़स्ताहाल मक़बरे में सिर्फ़ एक क़ब्र है, जहां अली इमाम दफ़्न हैं। दूसरी क़ब्र ख़ाली है।
सर अली इमाम के मक़बरा को सांस्कृतिक केंद्र बनाने के प्रयास
सर अली इमाम के मक़बरा को सांस्कृतिक केंद्र बनाने के प्रयास16 दिसंबर 2005 को एक स्थानीय अख़बार में छपा था कि सर अली इमाम के उपेक्षित मक़बरे की नये सिरे से मरम्मत करवाई जाएगी। यह भी लिखा था कि इस काम के लिए इंडियन नेशनल ट्रस्ट फ़ार आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (इंटैक) और बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (बी.आई. टी)के बीच एक क़रार हुआ है | इसमें उल्लेख किया गया था कि इस जगह को एक कला और संस्कृति केंद्र के रुप में विकसित किया जायगा।
रिपोर्ट के अनुसार इंडियन नेशनल ट्रस्ट फ़ार आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज के राज्य संयोजक श्रीदेव सिंह ने कहा था कि इस योजना में मक़बरे के सामने 14 एकड़ भूमि पर एक सभागार, एक संग्रहालय और एक पुस्तकालय बनवाया जाएगा। साथ ही जगह की हिफ़ाज़त भी की जाएगी। श्रीदेव सिंह ने आगे यह भी कहा था कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने इस परियोजना के लिए सहयोग की पेशकश की है।
श्रीदेव सिंह ने बताया कि दिल्ली में रह रहे, सर अली इमाम के पोते असकरी इमाम ने उनसे, फ़ोन से सम्पर्क किया था । उन्होंने मक़बरे के संरक्षण और विकास का अनुरोध किया है। योजना के अनुसार, बी.आई.टी मक़बरे का नवीनीकरण करेगा, जबकि इंटैक एक पुस्तकालय, संग्रहालय और एक सभागार से युक्त तीन मंज़िला इमारत का निर्माण करेगा। केन्द्र सरकार पुस्तकालयों और संग्रहालयों के निर्माण के लिए धन उधार देता है। महल के कुछ हिस्से बैंकों को किराये पर दिए जा सकते हैं और उससे मिलने वाले पैसे से एक सभागार बनाया जा जा सकता है। श्रीदेव सिंह ने धन के लिए राज्य सरकार से भी संपर्क करने की बात कही थी।
दो साल बाद यानी 20 अप्रैल, 2007 में एक और ख़बर सामने आई। उस रिपोर्ट में बताया गया था कि दिनेश सिंह, जो उस समय इंडियन नेशनल ट्रस्ट फ़ार आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज (इंटैक) के राज्य संयोजक थे, ने कहा था,
हमने इमाम की क़ब्र (इमाम कोठी के पीछे) के पास एक विरासत सांस्कृतिक परिसर का निर्माण करने का फ़ैसला किया है। यह सवा करोड़ रुपये की परियोजना है। जिसके लिए बीआईटी, मेसरा के साथ क़रार किया गया है।
दिनेश सिंह, उस समय के राज्य संयोकजक, इंडियन नैशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज
31 मार्च, 2008 को फिर एक और ख़बर आई, जिसमें कहा गया था कि इमाम कोठी में मक़बरे और महल के बीच एक सांस्कृतिक विरासत केंद्र बनाया जाना है। केंद्र एक बहुउद्देशीय हॉल का निर्माण करेगा। परियोजना पर क़रीब सवा करोड़ रुपये ख़र्च होगें। यह खर्च राज्य और केंद्र सरकारें मिलकर उठाएंगी।सन 2012-13 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने संरक्षण के लिए कुछ स्मारकों को सूचीबद्ध किया था, जिनमें राजमहल की जामा मस्जिद और बारादरी मस्जिद, लोहरदगा का खेकरापा मंदिर और पश्चिम सिंहभूम के बेननगर में बौद्ध खंडहर शामिल हैं, लेकिन सर अली इमाम मक़बरे को एक बार फिर नज़रअंदाज़ कर दिया गया ।
मैंने इस मामले में (इंटैक) को एक ख़त लिखा था , लेकिन मुझे अभी तक उनकी तरफ़ से कोई जवाब नहीं मिला है।
हालांकि इमाम कोठी की स्थिति बेहद ख़राब है और मक़बरे की हालत में सुधार की कोई उम्मीद नहीं है लेकिन मैं इस बात से ख़ुश हूं… जिस हालात में भी हो, मेरा ड्रीम कैसिल फ़िलहाल मौजूद है।