मैरी कोम, मीराबाई चानू, इरोम शर्मीला तथा एम.के.बिनोदिनी जैसी हस्तियों की वजह से मणिपुर राज्य और नारी सशक्तिकरण का चोली-दामन का साथ रहा है। यही नहीं, देश के इस हिस्से में कैसे महिलाओं ने मिसालें पेश की हैं, उसके और भी कई पहलू हैं। क्या आपको पता है, कि मणिपुर की राजधानी इम्फ़ाल में स्थित एशिया के सबसे बड़े बाज़ारों में से एक पर लगभग पांच सदियों से महिलाओं का प्रभुत्व रहा है?
पश्चिम इम्फ़ाल में इमा कैथल बाज़ार है, जहां क़रीब पांच हज़ार महिलाएं दुकान लगाकर फल, हस्तशिल्प से बने सामान आदि बेचती हैं। ये दुकानें सिर्फ़ विवाहित महिलाएं ही चलाती हैं। बाज़ार के भीतर कई दुकानें पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आ रही हैं। ये दुकानें बेटियों या फिर बहुओं के हाथों से गुज़रती रही हैं।
इमा कैथल दो मणिपुरी शब्दों को मिलाकर बना है। “इमा” का मतलब होता है “मां” और “कैथल” का मतलब है “बाज़ार”। ये सिर्फ़ बाज़ार ही नहीं बल्कि मणिपुरी महिलाओं की जीवन-शैली रही है। यह सूचनाओं और विचारों के आदान-प्रदान की जगह रही है। ये बाज़ार दरअसल लैंगिक न्याय का प्रतीक है। इमा कैथल बाज़ार को खवैरंबंद बाज़ार या नुपी कैथल भी कहते हैं। कहा जाता है, कि ये बाज़ार पांच सौ साल पुराना है। ये बहुत समय से मणिपुर का एक-दूसरे से मिलने और व्यापार करने का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है, जहां महिलाएं सिर्फ़ स्थानीय वस्तुएं बेचती हैं। ये बाज़ार स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान करता रहा है। ये व्यवसायिक केंद्र सैलानियों के आकर्षण का भी केंद्र है। ये बाज़ार 3.5 कि.मी. के क्षेत्र में फैला हुआ है और ये तीन भवनों में बंटा हुआ है-पुराना, लक्ष्मी और न्यू मार्किट जहां विवाहित महिलाएं तरह-तरह के मसाले, फल, मछली, जड़ी-बूटी, कपड़े, हस्तशिल्प से बनी वस्तुएं आदि बेचती हैं। ये महिलाएं पंजीकृत अथवा ग़ैर पंजीकृत विक्रेता भी हो सकती हैं।
मणिपुर का राजनीतिक इतिहास 33 ईसवी से शुरु होता है, जब पहले शासक के रुप में मेईतेई समुदाय के नोंद लैरनपाखंगबा का राज्याभिषेक हुआ।
चूंकि पाखंगबा मेईतेई समुदाय का था इसलिये यहां मेईतेई संस्कृति की शुरुआत हुई। कंगलेईपाक शासन के दौरान मणिपुर में बहुत विकास हुआ और ख़ुशहाली भी आई। कांगलेईपाक मणिपुर के शासक होते थे। पहली सदी में ये स्थानीय क़बायली हुआ करते थे, जिनके अधिकार क्षेत्र में कुछ रियासतें आती थीं। 12वीं से लेकर 17वीं शताब्दी तक इनका अधिकार क्षेत्र का ख़ूब विस्तार हुआ और फिर ये एक संपूर्ण साम्राज्य बना।सन 1891 में अंग्रेज़ों ने इसे अपने कब्ज़े में ले लिया। लेकिन 16वीं सदी के मध्य में पड़ौसी अहोम, कछारी और शान-कबाह प्रांत के बढ़ते प्रभाव से मणिपुर के लिये ख़तरा पैदा होने गया और उसके सीमावर्ती क्षेत्रों में समस्याएं खड़ी हो गईं। ऐसी स्थिति में मणिपुर के युवाओं को योद्धा के रुप में प्रशिक्षित कर साम्राज्य की सुरक्षा और मूलभूत सुविधाओं के विकास के काम में लगाया गया।
बंधुआ मज़दूरी व्यवस्था लल्लुप-काबा के तहत राजा ने मेईतेई समुदाय के पुरुषों को शाही कर वसूली, खेतीबाड़ी और युद्ध करने के लिये दूर-दराज़ के इलाक़ों में भेज दिया। इस वजह से गांव में महिलाएं अकेली पड़ गईं और वे खेतों में काम करने लगीं तथा काम-चलाऊ बाज़ारों में अपना उत्पाद बेचने लगीं। नतीजे में मेईतेई समुदाय की महिलाओं ने एकजुट होकर अपने लिये एक ऐसा केंद्रीकृत बाज़ार बनाया, जहां वे अपने उत्पाद बेच सकती थीं और अपनी ज़रुरतों का सामान भी ख़रीद सकती थीं। इस तरह खुले आसमान के नीचे एक बाज़ार की शुरुआत हुई, जहां व्यवसायिक गतिविधियों में महिलाओं की प्रमुख भूमिका होती थी।
मणिपुर विश्विद्यालय के डॉ. कमेई बुद्ध काबुई की किताब ‘प्री-कोलोनियल ट्रेड ऑफ़ मणिपुर’ के अनुसार सन 1580 में बने बाज़ार की आधिकारिक रुप से शुरुआत कांगलेईपाक राजा मोगींअंबा (शासनकाल अज्ञात) ने की थी और इसका नाम इमा कैथल यानी माताओं का बाज़ार रखा था।
धीरे-धीरे इमा कैथल कंगला क़िले का व्यापार केंद्र बन गया। इस क़िले का निर्माण मोंगीअंबा के उत्तराधिकारी खनगेबा (1597-1652) ने करवाया था। उस समय व्यापार वस्तु विनिमय के रुप में होता था, यानी मुद्रा का कोई लेन-देन नहीं होता था। ये बाज़ार बांसों का बना होता था, जिसकी छत घासफूस की हुआ करती थी। बाद में यहां छप्पर वाली साधारण-सी दुकानें बन गईं।
कहा जाता है, कि खनगेबा ने सन 1614 के आते-आते राज्य के भीतर (विश्वसनीय जानकारी अनुपलब्ध) ग्यारह और बाज़ार बनवाये लेकिन इम्फ़ाल का बाज़ार सबसे बड़ा था। आगे चलकर, इम्फ़ाल बाज़ार ही एकमात्र ऐसा बाज़ार बना, जो समय की कसौटी पर ख़रा उतरा है। इसके साथ के बाज़ार या तो पालियों में लगते हैं या फिर सप्ताह में एक बार लगते हैं।
मणिपुर को लेकर विस्तारवादी चिंग साम्राज्य (चीन) और कुनभौंग साम्राज्य (म्यंमार) के बीच युद्ध होता रहता था। इसी तरह के चीन-बर्मा युद्ध (1765-1769) के बाद मणिपुर ने दोनों तरफ़ से निर्वासित लोगों, सैनिकों और शरणार्थियों को अपने यहां रहने के लिए आमंत्रित किया। इस तरह राज्य में और आबादी बढ़ गई।
साथ ही इमा कैथल में व्यवसायिक गतिविधियां भी और बढ़ गईं तथा बाज़ार में और महिलाएं कारोबार करने लगीं।
एंग्लो-बर्मा युद्ध (1821-1834), मणिपुर के शासक गंभीर सिंह (शासनकाल 1825-1834) के साथ सहायक संधि और सन 1857 के विद्रोह के बाद भी पूर्वोत्तर भारत के एक दूर-दराज़ के इलाक़े में स्थित मणिपुर पर अंग्रेज़ साम्राज्य की चोट का कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। लेकिन चोट का असर सन 1891 में तब हुआ जब एंग्लो-मणिपुरी युद्ध (31 मार्च-27 अप्रैल, 1891) में बीर तिकेंद्रजीत सिंह की सेना हार गई और अंग्रेज़ सरकार ने मणिपुर पर क़ब्ज़ा कर लिया।
ब्रिटिश प्रशासन ने अंग्रेज़ अफ़सर कैप्टन नैटल और डॉ. डनलप के जले हुए घरों की रात को मरम्मत करने के लिये मणिपुर के पुरुषों को लगाया और इस तरह अंग्रेज़ों ने लल्लुप काबा व्यवस्था फिर लागू कर दी, जिसे 19वीं सदी के अंत में समाप्त कर दिया गया था। अंग्रेज़ो के इस फ़ैसले से मणिपुर की महिलाएं नाराज़ हो गईं और सन 1904 में नुपी लैन या महिला- युद्ध के रुप में इस नाराज़गी सामने आई। हालांकि अंग्रेज़ उस विरोध को दबाने में सफल रहे, लेकिन उन्हें अपने आदेश वापस लेने पड़े।
इमा कैथल की महिलाओं के जज़्बे की सराहना करते हुए 20वीं सदी में मणिपुर के सहायक राजनीतिक एजेंट और राज्य के निरीक्षक टी.सी. हडसन अपनी किताब ‘दि मेईतेईज़’ (1908) में लिखते हैं:
“मणिपुर में महिलाओं का ऊंचा दर्जा है और वे सभी स्वतंत्र हैं, सभी आंतरिक व्यापार और देश के उत्पाद का आदान-प्रदान वे ही करती हैं। सड़क किनारे सुविधाजनक स्थानों पर बाज़ार लगाना देश की आदत है। इन बाज़ारों में मुट्ठी भर महिलाएं सुबह-सुबह जमा हो जाती हैं।”
सन 1930 के मध्य दशकों में मणिपुर के महाराजा चूड़चंद्र सिंह (शासनकाल 1891-1941) और अंग्रेज़ सरकार ने दमनकारी आर्थिक और प्रशासनिक नीतियां लागू कर दीं और राज्य की ज़रुरतों का ख़्याल रखे बग़ैर, मारवाड़ी व्यापारियों को भारी मात्रा में राज्य से चावल का निर्यात करने की अनुमति दे दी। अंग्रेज़ सरकार के इस फ़ैसले से मणिपुर में अकाल-जैसी स्थिति पैदा हो गई। अंग्रेज़ों ने भारी कर लगाकर ज़ख़्मों पर और नमक छिड़क दिया। भारी कर की वजह से राज्य का सामाजिक-आर्थिक तानाबाना गड़बड़ा गया।
महिलाओं ने औपनिवेशिक सरकार की दमनकारी आर्थिक और प्रशासनिक नीतियों का ज़बरदस्त विरोध करते हुए विरोध-प्रदर्शन आयोजित किये। आंदोलन को कुचलने के लिये अंग्रेज़ों ने बाज़ार की दुकानें बाहरी ख़रीदारों और विदेशियों को बेचने तथा हिंसा से विरोध को कुचलने की तमाम कोशिश की। लेकिन मणिपुर की महिलाएं अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ डटी रहीं और अपने बाज़ार की रक्षा करती रहीं। ये आंदोलन कई महीनों तक जारी रहा, लेकिन दसरे विश्व युद्ध (1939-1945) छिड़ने की वजह से आंदोलन रुक गया। जैसे-जैसे युद्ध तेज़ होता गया, अंग्रेज़ों का बाज़ार पर नियंत्रण कमज़ोर पड़ने लगा और आख़िरकार महिलाओं की जीत हो गई। इमा कैथल की महिलाओं के व्यापाक आंदोलन के रुप में एक संयुक्त नेतृत्व को जन्म दिया।
भारत की आज़ादी के एक साल बाद सन 1948 में प्रभावशाली अमीर मणिपुरी व्यापारियों ने अपने कारोबार के लिए एक नयी जगह बनाने की योजना बनाई । जिसके तहत बाज़ार को धवस्त करने के लिये उन्हेंने विदेशी व्यापारियों के साथ हाथ मिला लिया। लेकिन इमा कैथल की महिला दुकानदारों ने इसका जमकर विरोध किया और विध्वंसकारी ताक़तों के सामने घुटने नहीं टेके। बाज़ार अपनी जगह क़ायम रहा।
सन 1949 में भारतीय संघ का हिस्सा बनने के बाद इमा कैथल की महिलाओं की ज़िम्मेदारियां और बढ़ गईं, क्योंकि राज्य में विद्रोह की समस्या शुरु हो गई थी और लोग राज्य तथा अलगाववादी ताक़तों के बीच फंस गये थे। ऐसी स्थिति में महिलाएं दोनों पक्षों की तरफ़ से किसी भी प्रकार की अमानवीय गतिविधियों के विरुद्ध खड़ी हुईं। इसी के चलते, बाज़ार सामाजिक-राजनीतिक विचारों के आदान-प्रदान का केंद्र बना। चूंकि तब यहां अख़बर नहीं थे, इसलिये राज्य भर से लोग महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में जानकारी लेने के लिये इमा कैथल आते थे।
इस दौरान कई अलगाववादी आंदोलन शुरु हुए और राज्य द्वारा प्रायोजित हिंसा तेज़ हो गई। इसकी वजह से इमा कैथल सामाजिक-राजनीतिक विचारों के आदान-प्रदान के लिए और महत्वपूर्ण बन गया।
इसी दौरान मणिपुर में कई सामाजिक आंदोलन शुरु हुए, जिनमें मीरा पैबी आंदोलन प्रमुख था, जो सन 1970 के दशक में शुरु हुआ था। इस आंदोलन में इमा कैथल की महिलाओं ने एकजुट होकर राज्य में व्याप्त सामाजिक अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष किया। सामाजिक अन्याय के ख़िलाफ ये आंदोलन आज भी जारी है और मणिपुर में इसकी कई शाखाएं हैं। इसी दौरान सन 1972 में मणिपुर एक अलग भारतीय राज्य बना।
समय के साथ इमा कैथल महिला सशक्तिकरण का केंद्र और उपनिवेशवाद, सामाजिक तथा व्यवसायिक भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ सामाजिक-राजनीतिक प्रतिरोध का प्रतीक बन गया।
भले ही ये प्रतिरोध शराब की बिक्री के खिलाफ़ हो या फिर अन्यायपूर्ण आर्थिक नीतियों के ख़िलाफ़ लड़ाई हो, इमा कैथल की महिलाएं हमेशा सबसे आगे खड़ी रही हैं। वे महज़ महिला व्यापारी नहीं थीं बल्कि ऐसी क्रांतिकारी थीं, जिनके नेतृत्व में विशेषताएं भी थी।
2003 में राज्य सरकार ने दुकानदारों से सलाह किये बग़ैर यहां एक सुपर मार्किट कॉप्लेक्स बनाने का फ़ैसला किया। इमा कैथल की महिलाओं को लगा, कि नये भवन में वे अपनी छोटी दुकानें खो बैठेंगी, तो उन्होंने रातभर धरना दिया और आख़िरकार सरकार को अपना फ़ैसला बदलना पड़ा।
यहां की अनुभवी महिलाओं ने बाज़ार परिसर में कई संगठन बनाये हैं। इनके अलावा इमा कैथल में एक यूनियन भी है, जो महिला व्यापारियों ने बनाई है। ये यूनियन बाज़ार का प्रबंधन करती है और महिला दुकानदारों को कर्ज़ भी मुहैया करवाती है। महिला दुकानदार पहले सामान लेकर बाद में यूनियन को भुगतान कर सकती हैं।
2016 में मणिपुर में आए ज़बरदस्त भूकंप में इमा कैथल के प्रमुख हिस्से ढह गये थे। इसके बाद सभी महिला दुकानदारों ने सरकार से कम-से-कम समय में भवनों की मरम्मत कराने की मांग की। दो साल के संघर्ष के बाद बाज़ार की मरम्मत हो गई और महिला व्यापारी बाज़ार में अपने-अपने स्थानों से फिर कारोबार करने लगीं और एक बार फिर आंतरिक व्यापार पर उनका नियंत्रण हो गया।
इस समय इस बाज़ार को कई स्थानीय संगठनों, छात्र आंदोलनों, मानवाधिकार तथा ग़ैर सरकारी संगठनों का समर्थन प्राप्त है। इमा कैथल की शुरुआत आवश्यकता की पूर्ति के लिये हुई थी, लेकिन तब से लेकर अब तक ये बाज़ार के अलावा और भी नये रुप में विकसित हो गया है और तभी पिछली पांच सदियों से इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है। इमा कैथल में लगातार नयापन और परिवर्तन जारी है। यहां सालाना क़रीब 40 करोड़ रुपये का कारोबार होता है।
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