हीरा मंडी: शाही अतीत वाला रेड लाइट एरिया

पाकिस्तान के शहर लाहौर की हीरा मंडी अब देश का सबसे पुरना रेड लाइट इलाक़ा है। लेकिन यहां की तंग गलियों में दाख़िल होते ही आपको किसी जर्जर हवेली से घुंघरुओं की धीमी धीमी आवाज़ सुनाई देगी। यह इलाक़ा, शाही ज़माने में मुजरों की थाप पर थिरकता था।

हीरा मंडी के दो रुप हैं, दिन में ये एक आम बाज़ार हो जाता है जबकि रात को यहां दुकानों की ऊपरी मंज़िल के तंग कमरों में वैश्याएं जीवन यापन करती हैं। हालंकि ये इलाक़ा कभी लाहौर के शाही जीवन की जान हुआ करता था लेकिन अब ये बिल्कुल बदल चुका है।

इस इलाक़े के दो अलग अलग रुपों को समझने के लिए हमें वापस 16वीं सदी में जाना होगा। उस समय मुग़ल साम्राज्य लाहौर सहित पूरे उत्तर भारत पर पर अपना नियंत्रण पाने की कोशिश कर रहा था। मुग़ल बादशाह अकबर के शासनकाल के दौरान सन 1584 से लेकर सन 1598 तक लाहौर मुग़ल साम्राज्य की राजधानी हुआ करती थी। लाहौर का क़िला, जो थोड़ा नष्ट हो चुका था और जिसका निर्माण सन 1267 में दिल्ली सल्तनत के सुल्तान ग़यासउद्दीन बलबन ने करवाया था, अकबर के दौर में उसे और बढ़ाया गया और इस तरह लाहौर के क़िले के पुनरजीवन की बुनियाद पड़ी। लाहौर क़िले के अलावा भी शहर में कई नए स्मारक बनवाए गए थे।

लाहौर क़िले के दक्षिण में, दरबार के अमीरों और बादशाह के नौकरों तथा मुलाज़िमों के लिए रिहायशी इलाक़ा बनवाया गया था। चूंकि ये क़िले के पास था इसलिए इसे “शाही मोहल्ला” कहा जाता था।

बहुत जल्द इस इलाक़े में तवायफ़ें आकर बस गईं जो शाही दरबार में पेशेवर गायिका और नृत्यांगना होती थीं। तवायफ़-संस्कृति मुग़लकाल में ख़ूब फलीफूली थी। इनमें प्रतिभाशाली गायिकाएं और नृत्यांगनाएं हुआ करती थी जो मध्ययुगीन भारतीय दरबारों में मुजरा (नृत्य एवं गायन) करती थीं। इनका शास्त्रीय संगीत और नाट्य-कला में बहुत बड़ा योगदान रहा है।

उस समय के बेहतरीन उस्ताद, तवायफ़ों को संगीत, तम्हीज़-तहज़ीब और नृत्य सिखाते थे। संभ्रांत लोगों के लिए शाही मोहल्ले की महिलाएं एक तरह से शान हुआ करती थीं। समारोह में उनकी मौजूदगी आपकी (संभ्रांत) सामाजिक हैसियत और मर्तबे की प्रतीक हुआ करती थीं। हालंकि मनोरंजन करने वाली महिलाएं वैश्याओं के रुप में भी काम करती हैं लेकिन शाही मोहल्ले की तवायफ़ें इस तरह की नहीं थीं। संभ्रांत परिवार के लोग तम्हीज़-तहज़ीब और दुनियादारी तौर-तरीक़े, सलीक़े सीखने के लिए अपने बच्चों को उनके पास भेजते थे।

बहरहाल, 18वीं सदी के पहले-मध्य में लाहौर शहर कई हमलों का निशाना बना। पहले ईरान के अफ़शारिद शासक नादिर शाह ने और फिर अफ़ग़ानों ने अहमद शाह अब्दाली के तहत हमले किए। इन हमलों से पंजाब में मुग़ल शासन कमज़ोर हो गया और तवायफ़ों को मिलने वाला शाही संरक्षण भी समाप्त हो गया। संरक्षण समाप्त होने के बाद कई तवायफ़े दूसरे शहर चलीं गईं।

अफ़ग़ान हमलों के दौरान लाहौर में सबसे पहले वेश्यालय बने। सन 1748 और सन 1767 के बीच अफ़ग़ान सैनिकों ने उप-महाद्वीप के जिन जिन शहरों पर हमले किए, वहां से वे कई महिलाएं उठा लाए थे। अब्दाली के सैनिकों ने दो वेश्यालय बनाए थे- पहला मौजूदा समय की “धोबी मंडी” में और दूसरा “मोहल्ला दारा शिकोह” में।

लगातार हो रहे हमलों की वजह से शहर में अव्यवस्था का माहौल बन गया था लेकिन सन 1762 में अफ़ग़ान सेना द्वारा सिखों के सबसे पवित्र गुरुद्वारे श्री हरमिंदर साहब को ध्वस्त किए जाने के बाद लोग एकजुट हो गए थे। अफ़ग़ान सेना को पंजाब से खदेड़ दिया गया जिसकी वजह से इस क्षेत्र में कोई सत्ता केंद्र नहीं रहा। इस शून्य को इस दौरान कई सिख रियासतों अथवा मिसलों ने भरा और लाहौर में अफ़ग़ानों द्वारा बनाए गए वेश्यालय बंद कर दिए गए।

और फिर सन 1799 में शुकरचकिया के युवा मिसलदार रणजीत सिंह ने भंगी मिसल से लाहौर हथिया लिया। सन 1801 में उन्होंने ख़ुद को पंजाब का महाराजा घोषित कर दिया और पूरे पंजाब को एक सूत्र में बांधने का फ़ैसला किया।

महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर में मुग़लों की कई शाही परंपराओं को फिर शुरु किया जिनमें तवायफ़ संस्कृति और दरबार में उनकी कला का प्रदर्शन भी शामिल था। हालंकि रणजीत सिंह का दरबार मुग़लों के वैभवशाली दरबार की तरह नहीं था लेकिन शाही मोहल्ले की तवायफ़ों को फिर दरबार से संरक्षण मिलने लगा।

सन 1802 में 22 साल के महाराजा रणजीत सिंह को एक मुस्लिम तवायफ़ मोरां से इश्क़ हो गया जो कश्मीरी थी और अमृतसर के पास माखनपुर गांव में रहती थी। लोगों का मनोरंजन करने वाले समुदाय, जिन्हे कंजर कहा जाता था, की तवायफ़ से शादी करने का महाराजा रणजीत सिंह का विचार दरबारियों और धार्मिक नेताओं को पसंद नहीं आया। लेकिन महाराजा ने, जो मोरां से प्यार कर बैठे थे किसी की परवाह न करते हुए मोरां से शादी कर ली। उन्होंने उसके लिए लाहौर के पास मौजूदा समय की पापड़ मंडी में एक हवेली बनवाई। ये हवेली शाही मोहल्ले से ज़्यादा दूर नहीं थी जहां तवायफ़े रहा करती थीं।

कुछ दशकों के बाद सिख साम्राज्य के जनरल से प्रधानमंत्री बने हीरा सिंह डोगरा को लगा कि शाही मोहल्ला चूंकि शहर के बीचों बीच है जहां तवायफ़ों के घर भी हैं, इसलिए इसका इस्तेमाल बाज़ार के लिए भी हो सकता है। सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह के निधन के बाद हीरा सिंह डोगरा ने वहां अनाज मंडी बनवाई जिसे ‘हीरा सिंह दि मंडी’ या फिर ‘हीरा मंडी’ कहा जाता था। दिलचस्प बात ये है कि कुछ लोगों का मानना है कि हीरा दरअसल उस इलाक़ें की तवायफ़ों की तरफ़ इंगित करता है जो हीरे की तरह ख़ूबसूरत हुआ करती थीं।

हीरा मंडी के रुप में शाही मोहल्ले को नई पहचान मिलने के बावजूद तवायफ़ों को शाही संरक्षण मिलना जारी रहा लेकिन ये संरक्षण ज़्यादा समय तक नहीं चला। दो निर्णायक एंग्लो-सिख युद्ध के बाद सिख साम्राज्य का पतन हो गया और इस क्षेत्र पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्ज़ा हो गया। अंग्रेज़ों को तवायफ़ों के दरबारी संगीत और नृत्य को संरक्षण देने में कोई दिलचस्पी नहीं थी और इस तरह मुजरा संस्कृति वेश्यावृत्ति में तब्दील हो गई।

कई तवायफ़ें रोज़ीरोटी की ख़ातिर अंग्रेज़ सैनिकों के लिए वैश्या बन गईं। ये सैनिक पुराने शहर के अनारकली इलाक़े में एक छावनी में रहते थे। चूंकि ये इलाक़ा मुग़ल काल के शाही मोहल्ले, जिसे अब हीरा मंडी कहा जाता है, से ज़्यादा दूर नहीं था इसलिए वैश्याएं यहां भी सक्रिय हो गईं।

सन 1850 के आरंभिक दशकों में पुराने शहर में प्लेग महामारी फैल गई और स्थानीय अंग्रेज़ प्रशासन ने अनारकली को छोड़कर पुराने शहर के बाहर धर्मपुरा को अपनी छावनी बना लिया। अनारकली से वैशंयाओं को भी वहां से निकालने की कोशिश की गई लेकिन कई वैश्याओं ने वहीं बने रहने का फ़ैसला किया।

इलाक़े में वेश्यावृत्ति के पनपने के बावजूद नृत्य-संगीत के केंद्र के रुप में हीरा मंडी की प्रतिष्ठा बनी रही। फ़र्क़ बस इतना था कि बादशाह और संभ्रांत लोगों की जगह शहर के रईस लोग तवायफ़ों के संरक्षक बन गए थे। इस तरह से हीरा मंडी का नाम बाज़ार-ए-हुस्न पड़ गया।

पहचान में बदलाव के बावजूद शाही मोहल्ले की एक वो चीज़ जो नहीं बदली वो थी नृत्य-संगीत की संस्कृति। नतीजतन, हीरा मंडी ने मशहूर गायिका नूरजहां, ख़ुर्शीद बेगम, मुमताज़ शांति जैसे कई उत्कृष्ट कलाकार दिए। सर गंगाराम का भी निवास भी यहीं है जिन्हें आधुनिक लाहौर का जनक कहा जाता है।

यहां उस्ताद अमीर ख़ां का घर और उस्ताद दामन की बैठक हुआ करती थी। इसके पहले इस बैठक को हुज्रा-ए-शाह हुसैन कहा जाता था। यहां महान सूफ़ी शायर शाह हुसैन रुके थे। तक्षाली गेट के पास उस्ताद सरदार ख़ां दिल्ली वाले की बैठक उस समय सबसे सम्मानिक बैठकों में गिनी जाती थी। हीरा मंडी चौक पर उस्ताद बरकत अली ख़ां की बैठक ठुमरी और ग़ज़ल गायिकी के लिए जानी जाती थी। उस्ताद छोटे आशिक़ अली ख़ां ख़याल गायिका के विशेषज्ञ थे।

यहां संगीत और गायन के कुछ दंगल (मुक़ाबले) भी हुए थे। कलाकारों को जनमंच मुहैया कराने के लिए संगीत प्रेमी इनका आयोजन करते थे। सन 1940 के आरंभिक दशक में यहां उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां और उस्ताद उमीद अली ख़ा के बीच ज़बरदस्त दंगल हुआ था। इस दंगल में दोनों दिग्गजों ने अपने गायन कौशल का प्रदर्शन किया था। दोनों निर्धारित समय से भी ज़्यादा देर तक गाते रहे और दोनों न तो थके थे और न ही हार मानने के लिए तैयार थे। ये बैठक सुबह तक चलती रही और आख़िरकार प्रतिष्ठित गायक पंडित जीवन लाल मट्टू ने हस्तक्षेप किया और दोनों को अलग किया। मुक़ाबले का सेहरा दोनों दिग्गज गायकों के सिर बंधा।

उर्दू के मशहूर कहानीकार सआदत हसन मंटो ने अपनी कहानी “नया क़ानून” में हीरा मंडी के रेड लाइट इलाक़े का सरसरी तौर पर ज़िक्र किया है। इस कहानी की पृष्ठभूमि भारत सरकार अधिनियम सन 1935 और अपेक्षाओं तथा उम्मीदों के मामले में अंग्रेज़ सरकार से निराश भारतीयों की है। ये कहानी सन 1930 के अंतिम वर्षों में लिखी गई थी जब मंटो बॉम्बे (अब मुम्बई) में रह रहे थे। लेकिन ये कहानी हाल ही में सन 1993-94 में तब चर्चा में आई जब पाकिस्तान के सिंध प्रांत में 11वीं और 12वीं क्लास के पाठ्यक्रम में कुछ फेरबदल के साथ इसे शामिल किया गया। कहानी में “हीरा मंडी” की जगह नाम “मंडी” रखा जाएगा।

भारत की आज़ादी के बाद भी हीरा मंडी की दोहरी संस्कृति- वैश्यावृत्ति और मनोरंजन का अड्डा, जारी रही। एक तरफ़ जहां ज़्यादातर तवायफ़ें, जिनमें अधिकतर वैश्याएं बन गईं थीं, कंजर समुदाय से आती थीं वहीं अन्य समुदायों और धर्मों और पूर्वी पाकिस्तान सहित अन्य क्षेत्र की महिलाएं भी हीरा मंडी आ गईं थी। वे या तो ग़रीबी की वजह से ख़ुद आ गईं थीं या फिर उन्हें लाया गया था। लेकिन जब मोहम्मद ज़िया-उल-हक़ (सन 1978-1988) पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने तब हीरा मंडी में मुजरा संस्कृति और वैश्यावृत्ति की संस्कृति ख़त्म करने की पुरज़ोर कोशिश की गई थी। लेकिन ये कोशिशें नाकाम रहीं और सरकारी कार्रवाई से बचने के लिए कई वेश्यालय लाहौर के अन्य इलाक़ों में चले गए। हीरा मंडी की पहचान के और भी कई पहलू हैं। पुराने शहर के इस इलाक़े में खानेपीने की बहुत चीज़ों मिलती हैं। यहां सड़कों पर खाने के स्टॉल, पुराने रेस्तरां और मिठाई की ऐसी दुकाने हैं कि बस मुंह में पानी आ जाए। अगर आप यहां के किसी रेस्तरां की छत पर चले जाएं तो वहां से लाहौर की भव्य मुग़ल युगीन बादशाही मस्जिद का ख़ूबसूरत नज़ारा दिखाई पड़ता है। यहां अब आज़ादी चौक और ग्रेटर इक़बाल पार्क बन गया है और हरियाली भी ख़ूब है जिसकी वजह से यहां पर्यटन के अवसर बढ़ गए हैं।

समय के साथ इलाक़े का स्वरुप भी बदल जाता है और हीरा मंडी के साथ भी ऐसा हुआ है। दुख की बात ये है कि संगीत-नृत्य का मुग़लकालीन केंद्र अब मुजरा-संस्कृति के रुप में अपनी एहमियत खो चुका है और ये लगभग विलुप्त होने की कगार पर है। शहर का शाही प्रतीक शाही मोहल्ला अब रात के अंधेरे में होने वाले जिस्मफ़रोशी के कारोबार में गुम हो गया है।

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