छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र की ख़बरें मीडिया की मुख्यधारा में कम ही आती हैं और अगर आती भी हैं तो माओवादी विद्रोह और कभी कभार होने वाले नक्सल हमलों के लिए ही आती हैं। लेकिन प्रशासन के ख़िलाफ़ आदिवासियों का विद्रोह कोई नई बात नहीं है। ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ आदिवासियों ने सन 1910 में सबसे बड़ा विद्रोह किया था जिसे भीमकाल विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इसका नेतृत्व करिश्माई नेता गुंडा धुर कर रहे थे। बस्तर के बाहर कम ही लोगों ने इस विद्रोह या फिर इसके नेता के बारे में सुना होगा।
दक्षिण छत्तीसगढ़ में स्थित बस्तर में अधिकतर घने जंगल हैं जिनमें गोंड, धुरवा, हलबा, भतरा और अन्य आदिवासी जातियां रहती हैं । गोदावरी की उपनदी इंद्रावती की वजह से यहां अच्छी खेतीबाड़ी होती थी। यहां के आदिवासी बाहरी दुनिया से बहुत कम या फिर कोई संपर्क नहीं रखते थे। वे वन देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और वहां होने वाली पैदावार पर ही निर्भर करते हैं । हज़ारों सालों तक उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है।। इस दौरान कई शासक आए और गए लेकिन उनके जीवन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा।
14वीं शताब्दी में काकतीय राजवंश ने बस्तर पर अपना शासन स्थापित किया था। सदियों तक बस्तर साम्राज्य दिल्ली सल्तनत, मुग़ल और बाद में मराठा राजाओं को शुल्क देता रहा। उन्होंने कभी भी बस्तर साम्राज्य में दख़लंदाज़ी नहीं की। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के विस्तार और 19वीं सदी में ब्रिटिश राज के साथ ही हालात बदलने लगे । धीरे धीरे अंग्रेज़ उन आदिवासियों के जीवन में हस्तक्षेप करने लगे थे , जिनके जीवन में सदियों तक कोई बदलाव नहीं आया था । इसकी वजह से दूर दराज़ के गांवो तक असंतोष फैलने लगा।
असंतोष की सबसे बड़ी वजह भारतीय वन क़ानून सन 1878 था जिसका सीधा असर इन आदिवासियों के जीवन पड़ा जो वन में होने वाले उत्पादों पर ही आश्रित थे। इस क़नून के तहत पूरे भारत में जंगलों को तीन वर्गों में बांट दिया गया- आरक्षित वन , संरक्षित वन और ग्राम वन। जंगल का सबसे अनुकूल हिस्सा सीधे सरकार के नियंत्रण में आ गया जिसे आरक्षित वन कहा जाता था। इन जंगलों में आदिवासियों का प्रवेश निषेध था और ऐसा करने पर उन्हें सज़ा मिलती थी। इन वनों के प्रबंधन में आदिवासियों का कोई दख़ल नहीं था। संरक्षित वनों पर सरकार का र्ध-नियंत्रण था और बाक़ी की वन-भूमि ग्राम वन थे। देश भर में किसानों और आदिवासियों को ये वर्गीकरण पसंद नहीं आया। इसके पहले भी सन 1850 के दशक में जंगलों पर नियंत्रण करने की कोशिश की गई थी जिसकी वजह से झारखंड क्षेत्र में सन 1855 में संथल विद्रोह हुआ था। अब बस्तर में भी आदिवासियों में रोष पैदा हो गया। बेपढ़े वासियों को ये समझ में नहीं आया कि उन्हें ख़ुद उनकी ज़मीन पर जाने की इजाज़त क्यों नहीं है। लेकिन बात यहीं ख़त्म हुई।
सन 1905 में औपनिवेशिक सरकार ने लगभग दो तिहाई वनों को आरक्षित करने, स्थानीय लोगों द्वारा स्थानांतरण खेती करने तथा शिकार करने पर रोक लगाने का सुझाव दिया। अगर कोई आरक्षित वनों में काम करना चाहता था तो उससे बेगारी (मुफ़्त में काम) करवाई जाती थी। भूमि-किराया पहले से ही एक बड़ा मुद्दा था। इसके अलावा पुलिस द्वारा पाशविक शोषण भी एक बड़ा मुद्दा बन गया। लोग हालात के आदी होने ही लगे थे कि सन 1907-08 में भयंकर अकाल पड़ गया। सन 1899-1900 के बाद यह दूसरा अकाल था। अकाल के साथ सन 1908 में ठेकेदारों को रेल डिब्बे बनाने के लिए आरक्षित वनों से इमारती लकड़ी और सामान्य लकड़ियां काटने की इजाज़त दे दी गई। इस तरह आदिवासियों की आजीविका के मुख्य साधन का बाज़ारिकरण हो गया और उन्हें ग़nरीबी ने घेर लिया। इसके अलावा देशी शराब जो आदिवासी ख़ुद बनाते थे, उसे भी ग़ैरक़नूनी घोषित कर दिया गया। इसकी वजह से बस्तर में आक्रोश पनपने लगा।
धुरवा और गुंडा धुर का उदय
सरकार की नीतियों की वजह से कांकेर के जंगलों के धुरवा आदिवासी सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए क्योंकि वनों का आरक्षण सबसे पहले वहीं हुआ था। आक्रोश बढ़ने के साथ ही विद्रोह की बात होने लगी। जिस तरह चपाती, कमल और बंदूक़ के कारतूस सन 1857- विद्रोह के प्रतीक बन गए थे उसी तरह आम की टहनियां, मिट्टी के ढ़ेले और मिर्च बस्तर के गांवों के विद्रोह के प्रतीक बन गए। आख़िरकार दो फऱवरी सन 1910 को गुंडा(वीर) धुर के नेतृत्व में बस्तर का विद्रोह शुरु हुआ जिसे भूमकाल विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है।
धुरवा क़बीले के गुंडा धुर का जन्म नेथानार गांव में हुआ था। ऐतिहासिक दस्तावेज़ के अभाव में उनके बचपन के बारे में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। समय के साथ वह एक तरह से आदिवासी नेता बन गए। विद्रोह की शुरुआत में गुंडा धुर और उनके सहयोगियों ने बस्तर में पुष्पाल ग्राम बाज़ार के अन्नभंडार लूटकर उसे ग़रीबों में बांट दिया ।
इसके बाद उन्होंने बस्तर की राजधानी जगदलपुर में सरकारी अधिकारियों और साहूकारों के घरों पर छापामार हमले किए। जगदलपुर का थाना और मिशनरी स्कूल भी लूट लिए गए। ये विद्रोह बस्तर साम्राज्य के 84 में से 46 परगनों में जंगल की आग की तरह फैल गया। दो-तीन दिन के लिए बस्तर से ब्रिटिश राज का सफ़ाया हो गया लेकिन जल्द ही स्थितियां बदल गईं।
अंग्रेज़ों ने सैनिकों को जमाकर उन्हें विद्रोह कुचलने के लिए भेजा। उन्होंने बस्तर विद्रोह के सबसे भरोसेमंद विद्रोहियों में से एक सोनू मांझी को रिश्वत देकर अपनी तरफ़ मिला लिया। सोनू मांझी को रिश्वत में मोटी रक़म दी गई और इस बात की गारंटी भी दी गई कि अगर उसने अधिकारियों की मदद की तो उसे शक्तिशाली पद पर नियुक्त किया जाएगा। मांझी की मदद से अंग्रेज़ सैनिकों ने आदिवासी शिविर को चारों तरफ़ से घेर लिया और बाहर निकलने की कोई जगह नहीं छोड़ी। अंतिम टकराव अलीनरगांव में हुआ जिसमें बड़ी संख्या में आदिवासी विद्रोही मारे गए। इस बीच गुंडा धुर अंधेरे का फ़ायदा उठाकर भाग निकला और फिर कभी नहीं दिखा।
गुंडा धुर के करिश्माई नेतृत्व के बावजूद विद्रोह की योजना ठीक तरह से नहीं बनाई गई थी जो इसकी विफलता का मुख्य कारण बनी। इसके बाद विद्रोह एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में न तो फैला और न ही नेतृत्व ने उनके प्रभाव वाले क्षेत्रों में अपनी स्थित मज़बूत करने की कोशिश की। हथियारों का अभाव भी इसमें आड़े आई।
विद्रोह के बाद अंग्रेज़ सैनिकों ने गांवों में घुसकर विद्रोहियों के परिवारों को सज़ा दी। नतीजतन अधिकतर गांव ख़ाली हो गए और लोग भागकर जंगलों में छुप गए। अंग्रेज़ों को स्थिति पर दोबारा क़ाबू करने में 3-4 महीने लग गए। गुंडा धुर की तलाश जारी थी क्योंकि वह विद्रोहियों का नेता था। उसकी मौत का मतलब था विद्रोह का समाप्त होना। लेकिन अंग्रेज़ों को उसका कोई सुराग़ नहीं मिला और इस तरह बस्तर विद्रोह गुंडा धुर के नाम से अमर हो गया।
लेकिन सन 1910 के भूमकाल विद्रोह के फ़ायदेमंद नतीजे भी निकले । सन 1910 में जिन वन-क्षेत्रों को आरक्षित किया जाना था उन्हें लगभग आधा कर दिया गया।
तब से गुंडा धुर आदिवासियों का एक अमर हीरो बन गया। कांकेर के जंगल में आज भी गुंडा धुर की कहानियां गाकर सुनाईं जाती हैं और हर बच्चा ख़ुद को गुंडाधुर का अवतार मानता है। भारत की आज़ादी के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने गुंडा धुर की महानता को स्वीकार करते हुए उनके नाम पर राज्य स्तरीय क्रीड़ा पुरस्कार शुरु किया। यही नहीं सन 2014 के गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य की झांकी का विषय गुंडा धुर के जीवन और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उनके संघर्ष पर रखा था।
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