‘क्या वो कोई और काम नहीं ढूंढ सकता, जिससे वो अपना पेट पाल सके? वो तो जवान, स्वस्थ और ताकतवर था! ज़ाहिर है, कि ये महानगर इसको कुछ तो दे ही सकता था! क्या ये वाकई में भगवान की मर्ज़ी थी, कि वो गलियों से इंसान का मल उठाकर अपना जीवन व्यापन करे?”
-उपन्
महात्मा गांधी के हरिजन आन्दोलन से प्रेरित ये उपन्यास छूआछूत पर आधारित सर्वश्रेष्ठ भारतीय रचनाओं में गिना जाता है I हालांकि, इन रचनाओं के साथ-साथ हुए जन-आंदोलनों ने सन 1993 में इस बात में बताए कुकर्म पर प्रतिबन्ध लगाने पर पहला बिल ज़रूर पास किया था, मगर दुर्भाग्यवश ये आज भी बहुत जगहों में जारी है…
इस महत्वपूर्ण उपन्यास के लेखक थे गोपीनाथ मोहंतीI ओडिशा प्रशासन सेवा में कार्यरत मोहंती ने अपने तबादलों में मिले अनुभवों को कागज़ पर ढाला, जिससे हमें आदिवासी जीवन, संस्कृति, भाषा और जीवन-शैली के बारे में जानकारी मिलती हैI इनके कई उपन्यास आज के सामाजिक परिवेश में उतने ही मायने रखते हैं, जितने ये उस समय रखते थे, जब ये लिखे गए थे I
20 अप्रैल, सन 1914 को नागबली (कटक, ओडिशा) में जन्में मोहंती एक स्वतंत्र विचारों वाले परिवार से ताल्लुक रखते थेI वे अपने पिता से अत्यधिक प्रेरित थे, जो उनके दृष्टिकोण में आध्यात्मिक स्वभाव वाले पुरुष थेI जिस काल के दौरान भारत में स्वतंत्रता संग्राम का संघर्ष जारी था, मोहंती मानसिक स्वतंत्रता और मानवता पर ज़्यादा ध्यान देते थेI ओड़िया भाषी रचनाओं के साथ-साथ उन्होंने पश्चिमी लेखकों की कई महान कथाएं पढ़ींI मैक्सिम गोर्की और रोमेन रोलैंड के कार्यों, और कार्ल मार्क्स और महात्मा गाँधी की विचारधाराओं का उन पर अत्यधिक प्रभाव था, जिसका नतीजा आगे चलकर उनकी रचनाओं में देखा गयाI
मोहंती अंग्रेजी साहित्य में मास्टर्स की डिग्री हासिल करके सन 1938 में ओडिशा प्रशासन सेवा में स्पेशल असिस्टेंट एजेंट के पद पर कार्यरत हुएI यहाँ पर उनको अनुमंडल पदाधिकारी और न्यायाधीश की सेवाएं संयुक्त रूप से करनीं थीं I मोहंती को कोरापुट जिले के कई जगहों में भेजा गयाI इस दौरान वे अधिकांश तौर पर कोंध और पराजा जातियों के आदिवासियों से रूबरू हुए, जहां समय के साथ-साथ, उन्होंने उनकी भाषा और जीवन शैली को अपनायाI इस आप-बीती को उन्होंने कलात्मक तरीके से अपनीं पहली रचनाओं: मन गहिरारा चासा (1940), दाड़ी बुड्ढा (1944) और पराजा (1945) में ढाला I इस रचनाओं ने क्षेत्रीय साहित्य जगत में खूब तारीफें बटोरींI
आगे चलकर मोहंती ने तीन क्षेत्रों में बखूबी से लेखन कार्य किया- ग्राम, आदिवासी और शहरI इन तीनों के बीच के हर प्रकार के जद्दोजहद का भी उन्होंने मार्मिक चित्रण पेश किया हैI ‘हरिजन’ (1948) में निम्नवर्गीय लोगों का “ऊंचे’ और “सीधे-साधे” लोगों के लिए काम करने और ‘दाना पानी’ (1955) में गलत तरीकों से एक आदमी की सफलता पर गौर किया हैI सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद उन्होनें आदिवासियों के संघर्ष, और पूंजीपतियों द्वारा हो रहे उनपर शोषण को उन्होंने अपनी रचनाओं में बखूबी से दर्शायाI उदाहरण के तौर पर ‘अमृतारा संताना’ (1947) में वो लिखते हैं,
‘कान्धा वहीँ पर मिलता है, जहां पर वन हैI मगर जब वन को खोला जाता है, कान्धा को अपनी ज़मीन से वंचित कर दिया जाता हैI’
अपने कार्यों में मोहंती ने आदिवासियों को भारतीय मुख्यधारा के हिस्से के तौर पर दर्शाने में पुरजोर कोशिश कीI भले ही उनकी रचनाएं ओडिशा से जुडी हों, मगर उनमें वैश्विक परिप्रेक्ष्य (Global Outlook) था, जिसमें मानवता से जुड़े पहलू, शहरी और औद्योगिक सभ्यता के कारण हुए मनुष्य जीवन में हो रहे कठिनाईयों, बदलावों, और शोषण जैसे मुद्दों को पेश किया गया थाI शायद यही वजह है, कि ‘लाया बिलाया’, ‘दाना पानी’ और ‘दाड़ी बुड्ढा’ जैसे उपन्यासों के अंग्रेजी अनुवाद यूरोप और अमेरिका में सफल रहेI कई समीक्षकों और लेखकों ने मोहंती की तुलना गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ और वसीली ग्रॉसमैन जैसे मशहूर अंतर्राष्ट्रीय लेखकों से कीI आदिवासियों के प्रति सद्भाव पर गौर करते हुए, सन 1989 को दिल्ली में हुए एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा,
“ये इत्तेफाक है, कि मेरा जन्म ओडिशा में हुआI मैं कहीं भी पैदा हो सकता था, मगर मैं आदिवासी ही बनता, जो मैं अब हूँ…”
मोहंती की रचनाओं के माध्यम से आदिवासियों के भीतर एक आन्दोलन का रूप ले चुका थाI और ये आन्दोलन अब वहाँ के धनी वर्ग के लिए नुक्सानदेह हो रहा थाI बात यहाँ तक आ गयी थी, कि सन 1953 में कोरापुट के जमींदारों और कर्जदारों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु को संयुक्त तौर पर एक चिट्ठी लिखी, और उसमें उन्होंने लिखा था, कि मोहंती सिर्फ आदिवासियों के हितों के लिए काम करते हैं और ऐसे बर्ताव करते हैं, जैसे वे खुद कोई आदिवासी होI उनको अन्य सामाजिक वर्ग के लिए उतना सम्मान नहीं हैI
लगभग सालभर तक कोई जवाब नहीं आयाI मगर सन 1955 में जवाब के तौर पर कुछ ऐसा हुआ, कि जिससे पूरा ओडिशा हैरत में पड़ गया थाI उस वर्ष जब पहले साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हुई, तब मोहंती को उनकी उपन्यास अमृतारा संताना (1947) के लिए इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, जिससे वे इस पुरस्कार को जीतने वाले पहले भारतीय लेखक बनेंI इस उपलब्धि ने ओडिशा साहित्य को भारत के मानचित्र पर भी लाने में योगदान दियाI
वहीँ मोहंती ने अनुवादन पर भी काम करना शुरू कियाI इन्होने लियो टॉलस्टॉय की विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘वॉर एंड पीस’ और मशहूर भारतीय लेखक रविंद्रनाथ टैगोर की ‘जोगाजोग’ का ओडिया अनुवादन कियाI सन 1970 में उनको मैक्सिम गोर्की की उपन्यास ‘माय यूनिवर्सिटीज़’ के अनुवाद के लिए सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार से सम्मांनित किया गयाI
मोहंती ने चार दशकों तक ओडिशा साहित्य में अपनी स्थाई जगह कायम रखी और अब वे भारत के सबसे मशहूर और सम्मानित गद्य लेखक में से एक के तौर पर उभर चुके थेI उनकी गद्य शैली की ख़ास बात ये थी, कि उन्होंने कई ओड़िया जातियों की बोलचाल वाली भाषा और उनके भाव को अपने विचारों के साथ जोड़ाI सन 1969 में ओडिशा प्रशासन सेवा को अपने जीवन के तीस वर्ष देने के बाद, मोहंती सेवानिवृत्त हुए और वे लेखन कार्य पर पूर्ण रूप से सक्रिय हुएI ठीक चार साल बाद, सन 1973 में अपनीं उपन्यास माटीमटाला के लिए वे साहित्य अकादमी पुरस्कार जीतने वाले पहले ओडिया लेखक बनेंI पुरस्कारों का ये सिलसिला सन 1981 में अपने चरम पर तब पहुंचा, जब उनको भारत सरकार ने साहित्य के क्षेत्र में योगदान देने के लिए पद्मभूषण से सम्मानित कियाI
गौरतलब है, कि मोहंती सामाजिक विशेषज्ञ नहीं थेI मगर आदिवासी संस्कृति और मौजूदा वक़्त में इनकी महत्वता को देखते हुए, सन 1986 में इनको अमेरिका के सैन जोस विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान के अनुबंधक अध्यापक के पद पर रखा गया, जहां वे 20 अगस्त, सन 1991 में अपनी मृत्यु तक वहीं रहेI इनकी इच्छा के तहत, मृत्यु के बाद उनकी अस्थियाँ और चीज़ें वहीं पर समुद्र में बहा दी गईं थींI
मोहंती ने अपने जीवन काल में 24 उपन्यास, लगभग 300 लघु कथाएं, तीन नाटक, दो जीवनियाँ, दो आलोचनात्मक लेख (Critical Essays) के संस्करण और आदिवासी भाषाओँ पर पांच किताबें लिखींI कई अन्य प्रमुख रचनाओं के साथ-साथ उन्होंने ओड़िया महाभारत पर भी अनेक शोध लेख लिखे थेI आज वे ओडिशा और भारत के साहित्य जगत में एक झिलमिलाते तारे के तौर पर याद किये जाते हैंI
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