अमूमन भारत में 19वीं शताब्दी के महाराजाओं और नवाबों का ख़्याल आते ही उनकी ऐश-ओ-आराम और फ़िज़ूल ख़र्च ज़िंदगी और बेशुमार दौलत की तस्वीर ज़हन में उभर आती है। जिस तरह निज़ाम हीरे-जवाहरात के लिये मशहूर थे उसी तरह पटियाला के माहाराजा भी अपनी 36 रोल्स रॉयस कारों के लिये मशहूर थे। ऐश-ओ-आराम और बेपनाह दौलत वाले इन महाराजाओं और नवाबों के बीच कुछ ऐसे भी शासक थे जिन्होंने अलग ही रास्ता अपनाया। कम ही लोगों ने गुजरात के गोंडल के महाराजा भगवत सिंह का नाम सुना होगा जो एक प्रशिक्षित डॉक्टर थे। उन्होंने अपने छोटे से साम्राज्य में लोगों के लिये जो काम किया उसे कभी भुलाया ही नहीं जा सकता है।
18वीं और 19वीं शताब्दी में गुजरात का सौराष्ट्र प्रांत 217 राजा-रजवाड़ों में बंटा हुआ था और इसमें से एक गोंडल भी था। भगवत सिंह का जन्म 24 अक्टूबर सन 1865 में धोराजी में हुआ था जो अब गुजरात का राजकोट ज़िला कहलाता है। वह गोंडल के ठाकुर संग्राम सिंह-द्वतीय के तीसेर पुत्र थे। गोंडल एक छोटी-सी रियासत थी जिसे जडेजा राजवंश ने स्थापित किया था और जिसका जामनागर तथा कच्छ जैसे साम्राज्यों पर शासन होता था। गोंडल सौराष्ट्र के बीच स्थित था और एक हज़ार स्क्वैयर मील तक फैला हुआ था। उन दिनों ये पिछड़ा इलाक़ा हुआ करता था और साम्राज्यों के बीच संघर्ष चलता रहता था। यहां बुनियादी चीज़ों का अभाव था।
भगवत सिंह जिस राजशाही मोहौल में बड़े हुए थे, उसमें वह भी दूसरे राज कुमारों की तरह ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी बसर कर सकते थे लेकिन नियति में कुछ और ही लिखा था। सन 1869 में उनके पिता संग्राम सिंह की 45 साल की उम्र में अचानक मृत्यु हो गई। भगवत सिंह उनके एकमात्र जीवित पुत्र थे और इस तरह वह चार साल की उम्र में गोंडल के राजा बन गये। चूंकि भगवत सिंह नाबालिग थे इसलिये प्रशासनिक ज़िम्मेदारियां अंग्रेज़ अफ़सर कैप्टन लॉयड देखा करते थे। सन 1875 में दस साल की उम्र मे भगवत सिंह को प्राथमिक शिक्षा के लिये राजकोट भेज दिया गया जहां उनका दाख़िला राजकुमार कॉलेज में हो गया। ये स्कूल अंग्रेज़ों ने भारतीय राजकुमारों की शिक्षा के लिये स्थापित किया था। यहां से पढ़ाई पूरी करने और वापस गोंडल वापस आने के बाद भगवत सिंह की सोच में बहुत बदलाव आया और उन्हें और भी बहुत कुछ करने और सीखने की ज़रुरत मेहसूस हुई।
इसी दौरान भगवत सिंह ने इंग्लैंड जाने का फ़ैसला किया ताकि वह दुनिया देख सकें। इस फ़ैसले का उनकी मां और दरबारियों ने जमकर विरोध किया क्योंकि पुरातनपंथी हिंदुओं का विश्वास था कि समुद्र पार करने से आदमी अपवित्र हो जाता है लेकिन भगवत सिंह अपने फ़ैसले पर जमे रहे। यूरोप की यात्रा के दौरान वह मेडिकल सुविधाएं देखने एडिनबर्ग विश्वविद्यालय भी गये।
कुछ हफ़्तों बाद वह लंदन में सेंट जॉर्ज हॉस्पिटल गये और उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि वह डॉक्टर बनना चाहते हैं:
“मेरे भीतर यही चाह है मैं ख़ुद डॉक्टरी का छात्र बनूं ताकि लोगों को उनकी बीमारियों से निजात दिलाने का मुझे संतोष मिल सके।”
सन 1885 में उन्होंने अपनी डायरी में ये भी लिखा: “अगर कोई डॉक्टर पैसे कमाने की बजाय अपने मरीज़ों की तीमारदारी पर ज़्यादा ध्यान देता है तो ये सबसे परोपकारी पेशा है।”
महाराजा ने डॉक्टर बनना तय कर लिया था। सन 1892 में गोंडल की ज़िम्मेदारी अपनो पारसी दीवान बेज़ानजी मेरवानजी को सौंपकर वह एडिनबर्ग विश्वविद्यालय रवाना हो गये जहां उन्होंने मेडिकल डिग्री के लिये दाख़िला ले लिया था।
भगवत सिंह परिश्रमी छात्र थे और उन्होंने पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन किया। उन्होंने बड़ी महनत से “ ए शार्ट हिस्ट्री आफ़ आर्यन मेडिकल साइंस” विषय पर अपना शोध-पत्र लिखा जो दरअसल आयुर्वेदिक चिकित्सा का संक्षिप्त इतिहास था । आख़िरकार सन 1895 में विश्वविद्यालय ने उनके परिश्रमी शोध और उनकी वैज्ञानिक समझ को मानते हुए उन्हें एम.डी. की डिग्री से सम्मानित किया। कुछ महीनों बाद उन्हें बुडापेस्ट में स्वास्थ विज्ञान एवं जनसांख्यिकी विषय पर आयोजित होने वाले 8वें अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की आयोजन-समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। जल्द ही वह एडिनबर्ग रॉयल कॉलेज ऑफ़ फ़िज़ीशियन्स के मानद सदस्य बना दिए गये। प्रतिष्ठित कॉलेज के मानद सदस्य बनने वाले वह एकमात्र भारतीय राजा थे।
बाद में भगवत सिंह इंडियन मेडिकल एसोशिएशन के उपाध्यक्ष भी बने।
भगवत सिंह का सबसे महत्वपूर्ण योगदान महिलाओं को आज़ादी दिलवाने में रहा। उन्होंने इस मामले में अपनी मां का अनुसरण किया जो महिला सशक्तिकरण की बहुत बड़ी समर्थक थीं। शादी के छह साल के भीतर उनकी पट रानी नंदकुंवरबा ने पर्दा छोड़सदिया था और वह सार्वजनिक समारोह में शामिल होने लगीं थीं। नंदकुंवरबा ने अपने पति के साथ यूरोप, अमेरिका, जापान, श्रीलंका, चीन और ऑस्ट्रेलिया की यात्राएं कीं। उस समय ऐसा रिवाज था ही नहीं था क्योंकि राजपूत महिलाएं सख़्त पर्दे में रहा करती थीं।
भगवत सिंह ने अपने महल में अलग से ज़नानाख़ाने बनवाने की व्यवस्था भी बंद कर दी। ज़नानाख़ाना खासतौर पर महिलाओं के लिये होते थे। क्योंकि वह शिक्षा को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे इसलिए उन्होंने सन 1918 तक गांव स्तर तक भी लड़कियों के लिए शिक्षा अनिवार्य कर दी थी।
एक आधुनिक पिता की तरह भगवत सिंह ने अपने बच्चों के लिये भी अलग राह चाही। उनके सबसे बड़े बेटे और उत्तराधिकारी भोजराज सिंह ने ऑक्सफ़ोर्ड से इंजीनियरिंग की डिग्री ली। उनके दूसरे पुत्र भूपत सिंह अपने पिता की तरह लंदन विश्वविद्यालय से पढ़कर ट्रॉपिकल मेडिसिन के डॉक्टर बने। गोंडल वापस आकर भूपत सिंह राज्य के चीफ़ मेडिकल ऑफ़िसर बने गए। भगवत सिंह के दो छोटे बेटे कीर्ति सिंह और नटवर सिंह ने एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से पढ़ाई की और बाद में स्टेट रेल्वे में काम करने लगे।
9 मार्च सन 1944 को भगवत सिंह का 78 साल की उम्र में निधन हो गया। वह सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले राजा थे इसलिये उनका नाम विश्व इतिहास की रिकॉर्ड बुक में दर्ज है। उन्होंने 74 साल और 87 दिनों तक शासन किया था।
लेकिन भगवत सिंह को उनकी शासनावधि नहीं बल्कि उन्हें उनके कामों की वजह से एक महान राजा का दर्जा मिला है। ऐसा देश जहां सत्ता और दौलत अक़्सर इंसान को भ्रष्ट बना देती है, वहां एक ऐसा भी राजा हुआ है जो धारा के विरुद्ध चला । ऐसा राजा जिसे हमेशा याद किया जाना चाहिये।
आवरण चित्र- सर भगवत सिंहजी (1865-1944) का सन 1895 में फ़्रैंक ब्रूक्स (ब्रिटिश 1854-1937) द्वारा लिया गया छायाचित्र. साभार Bodleian Libraries via www.artuk.org
हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com
Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.