राजस्थान के प्रमुख लोक देवता गोगाजी चौहान

पाबू, हरभू, रामदे, माँगलिया मेहा।
पाँचू पीर पधारज्यो, गोगादे जेहा।।

राजस्थान की पुण्य भूमि कई संत-महात्माओं, ऋषि-मुनियों, लोक देवी-देवताओं और शूरवीरों की जन्म तथा कर्म स्थली रही हैं। मध्यकाल में इन सभी के प्रयत्नों से यहां फैली रूढ़िवादी परम्परा से ऊपर उठाकर मानव मात्र जीवन के नवीन प्रयोगों के लिए प्रेरित हुआ था। इस काल के दौरान लोक देवताओं व देवीयों ने जनमानस में व्याप्त कई कुरूतियों को दूर कर लोक कल्याण की भावना को बढ़ाने का कार्य किया था। इन महान विभूतियों को लोगों ने आदर स्वरूप उन्हें भगवान का अवतार मानकर उनके द्वारा किए गए देश व आमजन की सेवा के कारण उनके थान, मंदिर बनाकर पूजा की गई। जो परम्परा आजतक चली आ रही है। विशेष कर श्रावण व भादव माह में राजस्थान के विभिन्न भागों में कई मेलों का आयोजन होता है। इनमें गोगामेड़ी प्रमुख स्थल रहा है।

लोक देवता गोगा जी चौहान

मरू प्रदेश में 6-7वीं सदी में अग्निवंश के क्षत्रिय वंश चौहान , प्रतिहार (परिहार), पंवार (परमार) और चालुक्य (सौंलकी) का उद्गम आबू पर्वत पर एक यज्ञ के दौरान हुआ था। इनमें से चौहान वंश प्रारम्भ में शामम्भरी (सांभर) अहिच्छत्रपुर (नागौर), अजमेर से लाडनू व शेखावाटी क्षेत्र की ओर अपने राज्य स्थापित किए थे। इस के बाद सुदूर उत्तर के भटनेर, रिणी व हरियाणा तक आगे बढ़ाया और ददरेवा ठिकाने पर जेवर जी चौहान का शासन स्थापित हो गया था।

आख्यानों के अनुसार एक बार गुरु गोरखनाथ जी के कुछ शिष्य यहाँ के गढ़ में भिक्षा के तहत बालक की झूंठन मांगी मगर पुत्र नहीं होने के कारण यहां की रानी बाछल दे उदास हो गईं संतों ने अपने गुरु गोरखनाथ जी से आशीर्वाद तथा वरदान प्राप्त करने को कहां तब यहां के शासक जेवर जी व रानी बाछल दे गुरु गोरखनाथ जी के यहाँ जाकर प्रार्थना की जिससे प्रसन्न होकर गुरु ने वरदान दिया कि तुम्हारे घर एक तेजस्वी पुत्र होगा। जिसका नाम गुग्गल व गोरख के नाम पर गुगो रखना। 11वीं सदी में जन्में गोगाजी का जन्म दिवस भाद्रपद कृष्ण नवमी को उत्साह व उमंग के साथ मनाया जाता है। ददरेवा के राणा जैतसी के सन 1213 के शिलालेख में वर्णित वंशावली के अनुसार गोगाजी चौहान महमूद ग़ज़नवी के समकालीन थे।

सोमनाथ यात्रा

रानी बाछल दे गुरु गोरखनाथ जी के आदेशानुसार बालक गोगा को सुप्रसिद्ध तीर्थ सोमनाथ के दर्शनार्थ हेतु गये। तभी से सोमनाथ गोगाजी चौहान के इष्ट देव के रूप में पूजे जाने लगे। उन्होंने सोमनाथ से वापस आते समय एक शिवलिंग अपने साथ लेकर आए तथा गढ़ के मध्य में प्रतिष्ठित किया और पुरोहित व कुलगुरु नन्दीदत्त को पूजा अर्चना का कार्य सौंपा। कुछ ही दिनों बाद ददरेवा पर हुए आक्रमण से जेवर जी काम आए तो उत्तराधिकारी के रूप में गोगाजी का राज्यभिषेक किया गया। इनका विवाह तंदुली नगरी के राजा सिंघा की पुत्री सिरियल उर्फ़ सुरियल के साथ हुआ था।

अन्य आख्यान के अनुसार एक बार गोगाजी असाधरण वीरता का परिचय देते हुए अपने राज्य की गौधन को शत्रुओं से मुक्त करवाया था। मगर इस युद्ध में अपने चचेरे भाई अरजन व सरजन की मृत्यु हो जाने से उनकी माता ने कुछ समय तक निर्वासित कर दिया था। इस दौरान गुरु गोरखनाथ जी की सेवा में रहे थे। कर्नल टाड द्वारा लिखित इतिहास के अनुसार चौहान राजपूतों के शिखर पुरूष गोगाजी मध्य एशिया के महमूद ग़ज़नवी के समकालीन थे और जब ग़ज़नवी प्रभासपट्टन सोमनाथ पर आक्रमण करने जा रहा था तब वीर गोगा ने उसका प्रबल प्रतिरोध करते हुए अपने भाई बन्धु व पुत्रों के साथ वीरगति प्राप्त की थी।

गोगामेड़ी

कालान्तर में यहाँ उनकी स्मृति में समाधि स्थल का निर्माण करवाया गया जिसे आज गोगामेड़ी कहते है जो हनुमानगढ़ ज़िले के नोहरा भादरा के पास स्थित है। यहाँ प्रतिवर्ष भादवा माह में एक माह तक मेला भरता है जिसमें राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब सहित अन्य राज्यों से हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन कर बड़ी श्रद्धा से इन्हें स्मरण किया जाता है। इस प्रकार लोक देवता गोगाजी चौहान की वीरोचित्त भावनाओं को रेखांकित करते हुए आज भी जन-मानस के हृदयों को छू लेती है।

गोगामेड़ी की इस पवित्र धरा पर राजस्थान सरकार द्वारा स्थापित पेनोरमा में इनकी जीवनी व बाहर प्रांगण में अश्व पर आरूढ़ धातु की प्रतिमा, हाथ में भाला लिए हुए एक कालजयी योद्धा के रूप में दृष्टिगोचर हो रहे हैं वहीं मारवाड़ के प्रत्येक गाँव- ढ़ाणी में खेजड़ी के पेड़ के नीचे गोगाजी के थान बने होते है। यह कहावत भी प्रचलित है – ‘‘गाँव-गाँव गोगो ने गाँव-गाँव खेजड़ी’’

गोगा नवमी

गोगाजी की स्मृति में उनका त्यौहार भाद्रपद कृष्णा पक्ष नवमी को देशभर में मनाया जाता है जो गोगा नवमी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन राज्य में कुम्हार परिवार द्वारा तालाब की काली मिट्टी से निर्मित गोगाजी की अश्वारोही योद्धा के प्रतीक रूप में या केवल सर्प रूप में घर-घर में स्थापित कर पूजा की जाती है। इस मूर्ति पर रक्षा बन्धन की राखी बाँधकर घरों में बनाई गई सैवया, खीर, लापसी, नारीयल व चूरमा का भोग लगाया जाता है।

कई जगहों पर महिलाओं द्वारा दीवारों पर सर्पाकार आकृतियाँ बनाकर उनका कुमकुम व अक्षत से पूजन कर लोकगीत गाकर गोगा-नृत्य भी करती है। संध्या के समय गोगाजी के थान व मंदिरों पर आरती का आयोजन भी किया जाता है। गोगाजी के सम्बन्ध में मिलने वाले अनेक हस्तलिखित ग्रन्थों में इनका नागवंश व साँपों से सम्बन्ध होना भी बतलाया गया है। इसलिए इन्हें नाग अवतार के रूप में भी जाना जाता है। वहीं गाँवों में सर्पदंश से मुक्ति के लिए इनकी पूजा की जाती है।

आज भी मारवाड़ के अधिकत्तर गाँवों में जब किसी के घर में सांप निकल आता है तो वहां गोगाजी को याद करके दूध चढ़ाया जाता है। कविराज सूर्यमल मिश्रण ने भी लिखा है कि गोगाजी को जाहिर पीर या जाहरवीर कहकर भी पूजते है। इस प्रकार हिन्दू और मुसलमान धर्म के लोगों द्वारा पूजित होने से साम्प्रदायिक एकता व सामाजिक सौहार्द की अनूढ़ी मिसाल है। इसके अलावा मारवाड़ के हर खेत में जिस दिन हल चलाना शुरू होता है तब गोगाजी के नाम की राखी जिसे गोगाराखड़ी कहते हैं, नौ गाँढे लगाकर हल और हाली के बाँधी जाती है और इस पद का बार-बार उचारण किया जाता है कि ‘‘हाली बाल दी गोगो रखवालो’’ इस प्रकार सैकड़ें वर्षों बाद भी गोगाजी अपने देवतुल्य गुणों के कारण जनमानस में आस्था के प्रतीक बने हुए हैं।

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