थिमय्या: कोरिया और सायप्रस का भारतीय हीरो

जब कोई व्यक्ति पूरी ईमानदारी,समझदारी और निष्पक्षता के साथ किसी काम का बीड़ा उठाता है, तो उसकी चमक हमेशा के लिये क़ायम हो जाती है। एक भारतीय जनरल की कुछ ऐसी ही कहानी है। सायप्रस द्वीप, सैलानियों के लिये आकर्षण का बहुत बड़ा केंद्र है। लेकिन एक ज़माने में यह तुर्की और यूनान के बीच विवाद का मुद्दा बना हुआ था। एक लम्बे हथियारबंद संघर्ष के बाद, संयुक्त राष्ट्र की दख़लंदाज़ी की वजह से , पिछले पचास वर्षों यानी सन 1964 के बाद से यहां के हालात शांतिपूर्ण हैं। हालांकि छोटी-मोटी दुश्मनी अब भी चलती रहती है। इसे संभव बनाने में एक भारतीय जनरल का भी योगदान रहा था। और वह जनरल वही था…जिसके सम्मान में, एक सड़क का नाम रखा गया है और डाक टिकट भी जारी किया गया है यानी… जनरल थिमय्या।

सायप्रस के शहर लारनाका की जिस सड़क पर मुख्य अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है, उसी सड़क का नाम मेजर जनरल कोडंडेरा सुबय्या थिमय्या के नाम पर रखा गया है। जनरल थिमय्या, वो अकेले भारतीय थे, जिन्होंने दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान एक ब्रिटिश यूनिट का नेतृत्व किया था।

संयुक्त राष्ट्र के शांति स्थापना मिशन में योगदान के लिये जनरल थिमय्या को सायप्रस और दक्षिण कोरिया में आज भी सम्मान से याद किया जाता है।

जनरल थिमय्या का जन्म 31 मार्च सन 1906 को, कर्नाटक के मदीकेरी में हुआ था। थिमय्या ने सन 1922 में प्रिंस ऑफ़ वैल्स रॉयल इंडियन मिलिट्री क़ॉलेज (अब राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज) में प्रवेश लिया था। इस संस्थान में प्रवेश पाने वाले वो पहले भारतीय केडेट में से एक थे। उसके बाद वो ऱॉयल मिलिट्री कॉलेज सैंडहर्स्ट चले गये। सन 1926 में रॉयल इंडियन आर्मी में नियुक्ति पाने के बाद, थिमय्या ने दूसरे विश्व युद्ध में और सन 1948 की कश्मीर जंग में अपनी सेना का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया।

जंग के मैदान में अपनी क़ाबिलियत साबित करने के बाद, उन्हें सन 1953 में, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यानी कोरियाई युद्ध में उतरने का मौक़ा मिला। भारत के लिये, संयुक्त राष्ट्र की तरफ़ से लड़ने का यह पहला अवसर था। शीत-युद्ध की दुश्मनी की वजह से, 25 जून सन 1950 को, सोवियत यूनियन और चीन के नियंत्रण वाले उत्तर कोरिया ने, अमेरीकी नियंत्रण वाले दक्षिण कोरिया पर हमला बोल दिया था।

जंग ख़त्म होने के बाद, संयुक्त राष्ट्र की हिरासत में मौजूद क़ैदियों ने अपने देश वापस जाने से इनकार कर दिया था। तब भारत ने,सन 1952 में, संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेम्बली के सत्र में एक “निपक्ष राष्ट्र स्वदेश-वापसी आयोग”(एन एन आर सी) बनाने का प्रस्ताव पेश किया था। इसका मक़सद था, युद्ध बंदियों की सहज अदला-बदली हो, और उन्हें ज़बरदस्ती रोकने या प्रभावित करने की कोशिशों से बचाया जा सके, ताकि वह आसानी से अपने-अपने देश वापस जा सकें। 27 जुलाई सन 1953 को कोरियाई युद्ध-विराम समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद एन एन आर सी का गठन किया गया, जिसमें दोनों देशों की तरफ़ से, उनके समर्थक ख़ेमों के दो-दो देशों के अलावा एक निष्पक्ष देश को रखा जाना था। पूर्वी खेमे से चैकोस्लोवाकिया और पोलैंड को रखा गया और पश्चिमी ख़ेमे से स्वीडन और स्विट्ज़रलैंड को रखा गया, जबकि निष्पक्ष देश के रूप में भारत को उस आयोग का मुखिया बनाया गया। अदला-बदली के समय युद्ध-बंदियों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी भारत की थी।

सितम्बर सन 1953 और मार्च 1954 के बीच, जनरल थिमय्या के नेतृत्व में एन एन आर सी ने, रात-रात भर जागकर क़ैदियों की सुरक्षा और देखभाल की, और उन्हें उनके अधिकारों और विशेष-अधिकारों के बारे में भी समझाया। उन्हें यह भी बताया गया था, कि वह चाहें तो अपने देश जा सकते हैं और चाहें तो दुश्मन देश में भी रह सकते हैं। आखिरकार, कोरिया के जो 80 क़ैदी निष्पक्ष देशों में जाना चाहते थे, उनमें से कुछ ने भारत में शरण ली और कुछ को ब्राज़ील भेज दिया गया।

वापसी के बाद थिमय्या को पद्मभूषण के सम्मान से नवाज़ा गया। इस तरह वो नागरिक पुरस्कार पाने वाले पहले फौजी अफ़सर बन गये। सन 1957 में उन्हें भारतीय सेना का छठा थलसेना अध्यक्ष बनाया गया। वो सन 1961 तक यानी सेवानिवृत्त होने तक अपने पद पर बने रहे, लेकिन जीवन ने उनके लिये कुछ और ही योजना बनाकर रखी थी। उन्हें एक बार फिर फ़ौजी वर्दी पहनने का अवसर मिला, जब उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मिशन पर, गृहयुद्ध में फंसे सायप्रस भेजा दिया गया।

19वीं सदी से ही सायप्रस में ,जनता के बीच विभाजन देखा जा रहा था। कुछ लोग तुर्की और कुछ लोग यूनान के साथ रिश्ते जोड़ रहे थे। इसका मुख्य कारण उस्मानिया सल्तनत और यूनान के बीच टकराव था। हालात इतने बिगड़ गये, कि सन 1955 में दोनों पक्षों ने हथियार उठा लिये। इसी वजह से यूनान और तुर्की को एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता करना पड़ा। जिसके तहत तुर्की और यूनान का एक संघ बनाकर उसे “ज़िम्मेदार राष्ट्र” (गारंटर पावर्स) का दर्जा दिया गया। उस संविधान के तहत, सत्ता में हिस्सेदारी का सख़्त प्रावधान था। इस संविधान के मुताबिक बनी सरकार के लिये, यूनान के आर्चबिशप मकारियस-तृतीय अध्यक्ष और तुर्की के डॉक्टर कुसुक उपाध्यक्ष चुने गये।

सन 1963 में मकारियस ने यूनानी बहुसंख्यक जनता को फैसला लेने का अधिकार देने का प्रस्ताव रखा, जिसे तुर्क समुदाय ने निरस्त कर दिया। नतीजे में हिंसा भड़क गई और ब्रिटेन और संयक्त राष्ट्र की मध्यस्ता की कोशिशें भी नाकाम हो गईं। टकराव को बढ़ता देखकर, संयुक्त राष्ट्र की सुऱक्षा परिषद ने, सन 1964 में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके तहत सायप्रस में संयुक्त राष्ट्र की शांति-सेना भेजने का फैसला हो गया।

कोरिया में थिम्मया की निष्पक्ष छवि को देखते हुये, सन 1964 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र शांति सेना का कमांडर बनाकर सायप्रस भेज दिया गया। अब हर तरह की सियासी रुकावट, यहां तक की शीत-युद्ध की दुशमनी भुलाकर, असली कोशिश यह थी, कि सायप्रस के दोनों समुदायों को पूरी आज़ादी और अभेद्य सुरक्षा देकर, उनके लिये रोज़मर्रा के सामान्य कामकाज का माहौल बनाया जाये। थिमय्या के नेतृत्व में, दोनों समुदायों ने युद्ध के दौरान जो क़िलेबंदी की थी, उसे धाराशाई कर दिया गया। साथ ही दोनों समुदायों को संयुक्त रूप से जल विकास और मिट्टी संरक्षण जैसी परियोजना में लगाया गया। दोनों समुदायों के लोगों से एक दूसरे के इलाक़ों में उद्योग शुरू करवाये गये, ताकि एक देश की तरह आर्थिक विकास हो सके। थिमय्या ने कई गांवों का दौरा भी किया और लोगों को खाने-पीने की चीज़ें तथा अन्य सामान मुहैया करवाया गया।

थिम्मया के जीवन का सफ़र अचानक थम गया। 17 दिसम्बर सन 1965 को, दिल के दौरे के कारण, सायप्रस में ही उनका देहांत हो गया। उनकी मौत के बाद सायप्रस सरकार की तरफ़ से दस दिन तक शोक मनाने का ऐलान किया। उनके पार्थिव शरीर को हवाई जहाज़ से बैंगलुरु लाया गया, जहां राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया। आज सायप्रस में, मुठभेड़ की छोटी-मोटी घटनाओं के बावजूद शांति है। दोनों पक्ष समस्याओं के सामुहिक समाधान के लिये मिल-जुलकर काम कर रहे हैं। लेकिन आज जो स्थिति हैं, उसके लिये थिमय्या के योगदान को भुलाया संभव नहीं है।

सायप्रस सरकार ने सन 1966 में थिम्मया के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया और दक्षिण सायप्रस के लारनाका की एक सड़क का नाम, “जनरल थिमय्या रोड” रखा गया । कोरियाई युद्ध में उनके योगदान का भी सम्मान किया गया। पिछले दिनों दिल्ली में बने “इंडो-कोरियन फ़्रैंडशिप पार्क” में जनरल थिमय्या की मूर्ति भी स्थापित की गई।

जनरल थिमय्या का नाम आज भी भारत, कोरिया और सायप्रस में पूरे सम्मान के साथ लिया जाता है। जनरल थिमय्या की सबसे बड़ी खूबी उनकी निष्पक्ष सोच और कार्यकुशलता थी। इसलिए जब भी उन्हेँ मुश्किल परिस्थितियों में काम करने का मौक़ा मिला, उन्होंने उसे पूरी सक्षमता के साथ अंजाम दिया।

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