ज़्यादातर सैलानियों के लिये गोवा मौज -मस्ती और फ़ेनी (स्थानीय शराब) पीने तथा कुछ दिनों के लिये सब कुछ भूलकर आराम करने की जगह है। इसके अलावा गोवा के चर्च भी आकर्षण का केंद्र हैं। इनमें साधारण से लेकर बड़े बड़े गिरजाघर शामिल हैं, जिनका निर्माण पुर्तगालियों के शासन-काल के दौरान किया गया था.
ज़्यादातर सैलानियों को इस बात की जानकारी नहीं है, कि गोवा में भारत के कुछ सबसे महत्वपूर्ण क़िले भी हैं, जो भारतीय पश्चिमी तट पर कई महान शासकों के उदय और पतन के गवाह रहे हैं। इसी तरह का एक क़िला है तिरकोल क़िला, जो गोवा की राजधानी पणजी से 50 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
तिरकोल क़िला लाल लेटराइट पत्थर का बना है और क़िले का नाम मूल मराठी नाम तेरे खोल का बिगड़ा रुप है। तेरे-खोल का अर्थ है गहरा नदी तट। इसका नाम तेरेखोल नदी पर पड़ा है, जो पूर्वी-पश्चिम की दिशा की तरफ़ बहती है और महाराष्ट्र में सावंतवाड़ी क्षेत्र तथा गोवा में परनेम तालुक के बीच सीमा की तरह है। तेरेखोल नदी अंतत: भारत के पश्चिमी तट पर अऱब सागर में मिल जाती है।
तिरकोल क़िला सावंतवाडी में नदी के उत्तरी तट पर है और इस तरह ये भौगोलिक रुप से महाराष्ट्र का हिस्सा है हालंकि राजनैतिक रुप से ये गोवा का भाग है। सावंतवाड़ी के मराठा सरदारों द्वारा 17वीं सदी में निर्मित ये क़िला नदी के मुहाने की एक चढ़ाई पर स्थित है। मराठा सरदारों के बाद इस पर पुर्तगालियों का कब्ज़ा हो गया था और सन 1961 में भारत सरकार ने इसका अधिग्रहण कर लिया था।
16वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में भारत के पश्चिमी तट पर समुद्री व्यापार अपने चरम पर था जिसके कारण, पुर्तगाल और डच (हॉलैंड) जैसी यूरोपीय शक्तियों की नज़र भारत पर पड़ी । पुर्तगाली पहले सन 1498 में वास्को डा गामा के साथ कालिकट (मौजूदा समय में कोझीकोडे) आए थे। जल्द ही उन्होंने अपनी शक्ति का प्रसार कर सन 1510 में बीजापुर के आदिल शाह से गोवा जीत लिया। अगली सदी तक वे अन्य क्षेत्रों पर कब्ज़ा करते रहे, जिसकी वजह से सावंतवाड़ी के मराठा शासकों जैसे पडोसी भारतीय शासकों के साथ उनकी झड़पें होने लगीं थीं।
सावंतवाड़ी के सावंत, आदिल शाह के जागीरदार हुआ करते थे लेकिन सन 1627 में खेम सावंत प्रथम ने ख़ुद को आज़ाद घोषित कर दिया। अपने साम्राज्य की उत्तरी दिशा में पुर्तगालियों के बढ़ते प्रभाव पर नज़र रखने के लिए खेम सावंत प्रथम ने तेरेखोल नदी के उत्तरी तट, विशेषकर सावंतवाड़ी में अरनोदा गांव के उत्तरी मुहाने पर क़िलेबंदी की। इस क़िले से खेम सावंत तट पर नज़र रखता था। इसके अलावा ये क़िला सामरिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण था।
17 वीं और 18वीं शताब्दी में पुर्तगालियों और सावंतों के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे। कभी सावंतों ने छत्रपति शिवाजी और बाद में पेशवाओं के नेतृत्व में बढ़ती मराठा शक्ति के ख़िलाफ़ पुर्तगालियों से हाथ मिला लिया तो कभी दक्षिण कोंकण पर नियंत्रण के लिये उन्हीं (पुर्तगालियों) से दो-दो हाथ किए। शतरंज के खेल की तरह उनका गठबंधन बदलता रहा।
18वीं सदी आते-आते दोनों के बीच झड़पें होने लगीं और आख़िरकार नए पुर्तगाली वाइसराय पेद्रो मिगुइल अलमेदा ने सावंतों के ख़िलाफ़ निर्णायक हमला करको 23 नवंबर सन 1746 में तिरकोल क़िले पर कब्ज़ा कर लिया। इस जीत की याद में पुर्तगालियों ने क़िले के अंदर सेंट एंथनी को समर्पित एक छोटा-सा पूजा-घर बनाया। उसके बाद इस स्थान पर सन 1822 ओर सन 1846 के दौरान एक मध्यम आकार का गिरजाघर बनाया गया था।
लेकिन सन 1819 में सावंतवाड़ी रियासत और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच एक संधि हो गई। बात उस समय की है, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का भारतीय उप-महाद्वीप पर कब्जा बढ़ रहा था । संधि के तहत सावंतवाड़ी साम्राज्य अंग्रेज़ों के संरक्षण में आ गया। क़िले पर तब भी पुर्तगालियों का कब्ज़ा था हालंकि ये ब्रिटिश शासित क्षेत्र में एक विदेशी एन्क्लेव बनकर रह गया था। इस तरह सीमांत चौकी के रुप में इसका सामरिक महत्व समाप्त हो गया। संधि के तहत ब्रिटिश इंडिया और पुर्तगाली गोवा के बीच सीमा मज़बूत हो गई थी।
तिरकोल क़िला सन 1835 में एक बार फिर सुर्ख़ियों में तब आया जब यहां पुर्तगाली शासन के ख़िलाफ़ बग़ावत हो गई। सन 1884 और सन 1898 के बीच इंडिया ऑफ़िस रिकॉर्ड्स के निरीक्षक फ़्रेडरिक चार्ल्स डैनवर्स अपनी किताब “पुर्तगीज़ इन इंडिया (1894)” में लिखते हैं कि सन 1835 में पुर्तगालियों और गोवा के स्थानीय निवासियों के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया और तिरकोल क़िले में झड़पें हुईं। विद्रोह की शुरुआत गोवा के लोगों ने की थी। वे भारतीय मूल के एकमात्र वाइसराय बर्नान्डो पेरेज़ डि सिल्वा, जो गोवा के लोगों के लिये सुधार की कोशिश कर रहे थे, की बर्ख़ास्तगी से नाराज़ थे।
नियुक्ति के 17 दिनों के भीतर ही पेरेज़ डि सिल्वा को हिरासत में ले लिया गया था। पुर्तगालियों को लगता था कि उनके सुधार से गोवा के लोग उनके ख़िलाफ़ हो जाएंगे। बहरहाल, गिरफ़्तारी की वजह से पेरेज़ डि सिल्वा के वफ़ादार सैनिकों और पुर्तगाली सैनिकों के बीच लड़ाई छिड़ गई। क़िले पर भारी बमबारी की गई जिसमें पेरेज़ डि सिल्वा के कई समर्थक मारे गए। पेरेज़ डि सिल्वा ने ख़ुद बॉम्बे में शरण ली और फिर कभी गोवा वापस नहीं आए। तिरकोल क़िले की मरम्मत करवाई गई और सन 1935 में क़िले के भीतर का गिरजाघर पादरी का निवास बन गया।
1950 के दशक में गोवा में स्वतंत्रता संघर्ष ने ज़ोर पकड़ लिया था। सन 1947 में भारत को अंग्रेज़ शासन से आज़ादी मिल गई जबकि सन 1954 आते-आते पुर्तगालियों की कॉलोनियाँ दादरा और नगर हवेली सहित भारत में फ़्रांस के कब्ज़े वाले क्षेत्र भी आज़ाद हो गए। दादरा और नगर हवेली को उसी साल भारतीय सेना ने पुर्तगालियों से आज़ाद करवाया था। लेकिन गोवा तब भी पुर्तगालियों के पास रहा। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तिरकोल क़िला एक प्रतीक-स्थल बन गया था, जहां स्वतंत्रता सेनानी मार्च करते हुए जाते थे और क़िले के सबसे ऊंचे स्थान पर तिरंगा फहराते थे ।
15 अगस्त सन 1954 को गोवा से स्वतंत्रता सैनानियों के एक जत्थे ने गोवा-भारत सीमा पर जुलूस निकाला और क़िले पर नियंत्रण कर क़िले के अंदर तिरंगा फ़हराया। अगले साल 3 अगस्त सन 1955 को दो स्वतंत्रता सैनानी शेषनाथ वाडयेकर और पन्नालाल यादव ने 150 सत्याग्रहियों के साथ मिलकर क़िले में फिर भारतीय ध्वज फ़हराने की कोशिश की लेकिन दोनों को गोली मार दी गईं और क़िले के बाहर उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। किले के बाहर बना स्मारक, उन सत्याग्रहियों की बहादुरी का साक्षी है.
सन 1961 में गोवा पुर्तगालियों से आज़ाद हो गया। उसके बाद तिरकोल क़िला सन 1976 तक ख़राब स्थिति में रहा। तभी इसको सैलानियों के लिए सैरगाह बनाने की प्रक्रिया शुरू की गई। लेकिन सन 1983 में ये क़िला प्राचीन स्मारक, स्थल एवं अवशेष क़ानून (सन1978) की परिधि में आ गया और फिर इसको एक हेरिटेज रिजोर्ट में तब्दील किया गया. तब से लेकर अब तक, स्थानीय लोग और सैलानी शहर की भीड़भाड़ से दूर, यहां अपने एकांत के क्षण व्यतीत करने आते हैं।
तो जब कभी भी आपका गोवा का चक्कर लगे, एक बार तिरकोल को अपने चंद सुनहरे पल देना मत भूलियेगा!
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