“जैसा करम तैसा फल
सुन्ने में आया कि इन दिनों में टकसाल के चाकर ने जो उस टकसाल में बहुत दिनों से पलता था एक दिन सोना चुराया सो वहीं के किसी के हाथों से पकड़ा गया ओ तुर्त पुलिस में भेजा गया फिर तजवीज़ भए पर अपने किये का फल पचीस बेंत पाया।”
ये पढ़ने में किसी किताब की एक छोटी सी दिलचस्प कहानी लग सकती है लेकिन ये भारत के पहले हिंदी अख़बार “ उदन्त मार्तण्ड ” में एक ख़बर थी।
हर साल तीस मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। क्योंकि इसी दिन भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत हुई थी। आज हिंदी पत्रकारिता काफ़ी लोकप्रिय हो चुकी है । लेकिन सवाल यह है कि इस दिन को ख़ास दिन क्यों माना जाता है ? हिंदी पत्रकारिता दिवस इसलिए मनाया जाता है क्योंकि तीस मई सन 1826 को कलकत्ता से भारत के पहले हिंदी अख़बार “उदन्त मार्तंड” की शुरुआत हुई थी। ये साप्ताहिक अख़बार था लेकिन क्या आपको पता है कि इसके बाद हिंदी के पहले दैनिक अख़बार को प्रकाशित होने में 28 साल लग गए थे। सन 1854 में, कलकत्ता से ही, “समाचार सुधा वर्षण” शुरु हुआ था। आज भारत में कई हिंदी अख़बार प्रकाशित हो रहे हैं जो जनता तक पहुंच भी रहे हैं। यहां हम आपको बताने जा रहे हैं कि भारत में हिंदी के पहले अख़बार की शुरुआत कैसे हुई।
हिंदी अख़बारों की कहानी, स्वभाविक रूप से, हिंदी भाषा के विकास से जुड़ी हुई है। 19वीं सदी के शुरुआती वर्षों में जिसे आज हम हिंदी कहते हैं, वो “खड़ी बोली” कही जाती थी। वो दरअसल स्थानीय ब्रज भाषा हुआ करती थी जो दिल्ली और मेरठ के आसपास के इलाक़ों में बोली जाती थी। ये एक तरह से आधुनिक हिंदी के सांचे की तरह थी। दिलचस्प बात ये है कि ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़े, स्कॉटलैंड के एक सर्जन ने देवनागरी लिपि को आकार दिया था। जॉन बार्थविक गिलक्रिस्ट ने हिंदी भाषा के देवनागरी लिपि में और उर्दू भाषा के अरबी लिपि में, वर्गीकरण में, महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गिलक्रिस्ट ने सन 1786 में “डिक्शनरी: इंग्लिश एंड हिंदुस्तानी” के नाम से शब्दकोष भी छपवाया था। भारत में यात्रा के दौरान उन्होंने ये पाया कि हिंदुस्तानी एक ऐसी भाषा थी जो उत्तर भारत में अधिकांश लोग समझते थे। ये किताब देवनागरी अक्षरों में प्रकाशित होने वाली पहली किताबों में से एक थी।
19वीं सदी में भी हिंदी अपनी पहचान बनाने के लिए जूझ रही थी । यहां तक कि सन 1836 तक ईस्ट इंडिया कंपनी की अदालती भाषा फ़ारसी हुआ करती थी। सन 1837 में अदालती भाषा उर्दू हो गई जो फ़ारसी भाषा के बहुत क़रीब थी। 18वीं सदी के अंत में, आधुनिक प्रिंटिंग के आने से हिंदी और मराठी जैसी भाषाओं में देवनागरी लिपि का अधिक इस्तेमाल होने लगा।
अगर हम हिंदी पत्रकारिता की बात करें तो 19वीं सदी में, कलकत्ता में इसकी शुरुआत करने के प्रयास हुए थे। कलकत्ता भारत की व्यवसायिक राजधानी तो हुआ ही करती थी, साथ ही 19वीं सदी में ये प्रमुख व्यापारिक केंद्र भी हुआ करता था जहां उत्तर भारत से हिंदी भाषी लोग आया करते थे। बंगाल के समृद्ध प्रकाशन उद्योग ने भी यहां पत्रकारिता के अदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी। एक अन्य महत्वपूर्ण कारण ईसाई मिशनरी भी हो सकती हैं। बाइबल के प्रचार-प्रसार के लिए इन संस्थानों ने बाइबल के हिंदी अनुवाद को बढ़ावा दिया। इस तरह से कुल मिलाकर एक ऐसा माहौल बन गया जहां हिंदी पत्रकारिता की गुंजाइश पैदा हो गई।
लेकिन कलकत्ता में लोग भाषायी आधार पर बंटे हुए थे। जिस भाषा का इस्तोमाल होता था वो खड़ी बोली थी, साथ में ब्रज भाषा, स्थानीय बंगाली बोली और उच्चस्तरीय बंगाली भाषा होती थी। इसमें ब्रज भाषा का इस्तेमाल ज़्यादा था क्योंकि ब्रजभाषा में लिखी जाने वाली कविताओं की वजह से ब्रज भाषा का सिक्का चलता था।
सन 1826 में हिंदी का पहला अख़बार उदन्त मार्तण्ड प्रकाशित हुआ। हिंदी भाषा और नागरी लिपि का ये पहला अख़बार था। इसकी शुरुआत जुगल किशोर शुक्ला ने की थी। अख़बार श्री मन्ना ठाकुर प्रकाशित करते थे। जुगल किशोर शुक्ला कानपुर के रहने वाले वकील थे जो कलकत्ता में वकालत कर रहे थे। वह ब्रिटिश इंडिया में भारतीयों के अधिकारों के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट करना चाहते थे। अख़बार शुरु करने का ये एक मुख्य कारण था। कहा जाता है कि अख़बार के पहले अंक में शुक्ला ने ख़ासकर हिंदी भाषियों के लिए एक अख़बार की ज़रुरत पर ज़ोर दिया था। वो भी ऐसे समय में जब अंग्रेज़ी, बंगाली और फ़ारसी भाषा में अख़बार पहले से ही निकल रहे हैं। अपने अख़बार में अन्होंने यूरोपीय नागरिकों की तरह भारतीय नागरिकों को भी समान दर्जा देने की बात की थी । स्थानीय और हिंदी भाषी क्षेत्रों की ख़बरों के साथ ही उदन्त मार्तण्ड अख़बार ने सामाजिक असमानता का भी मुद्दा उठाया।
हिंदी पत्रकारिता के उदय और विकास पर निबंध लिखने वाले विद्वान राम रतन भटनागर ने लिखा कि उदन्त मार्तण्ड में नए बाज़ार भाव और देश विदेश की ख़बरे छपती थीं। भटनागर ने सन 1941 और सन 1946 के बीच हिंदी पत्रकारिता पर शोध किया था। उनके अनुसार अख़बार में सरकार की योजनाओं और गवर्नर जनरल के दौरे से संबंधित ख़बरें भी होती थीं। इसके अलावा अख़बार में काफ़ी विज्ञापन भी होते थे।
अख़बार में विशेषकर खड़ी बोली और हिंदी की ब्रज भाषा बोली का प्रयोग होता था। अख़बार का साइज़ किताब की तरह 12″ X 8″ होता था। अख़बार के पहले अंक की पांच सौ प्रतियां छपी थीं। कुछ अंक आज भी कलकत्ता लाइब्रेरी में रखे हुए हैं।
लेकिन अख़बार ने जल्द ही अपने बुरे दिन देखे और कई कारणों से अगले ही साल यानी सन 1827 में बंद हो गया ।अख़बार को कलकत्ता में बहुत ज़्यदा पाठक नहीं मिल पाए थे क्योंकि वहां हिंदी भाषी लोग कम थे। ज़्यादातर हिंदी भाषी लोग उत्तर भारत में थे, जहां अख़बार पहुंचाना मुश्किल था। डाक से भेजना बहुत मंहगा पड़ता था जो जुगल किशोर वहन नहीं कर पाए। उन्होंने सरकार को प्रार्थना पत्र लिखकर वित्तीय मदद मांगी लेकिन सरकार ने मदद देने से इनकार कर दिया और इस तरह पाठकों की घटती संख्या की वजह से अख़बार बंद हो गया।
राम रतन भटनागर ने जो निबंध लिखा था उससे कोई भी हमारी शुरूआती ख़बरों और उनकी भाषा की स्थित को आसानी से समझ सकता है। वो बताते हैं, कि ख़बरे लगभग कहानियों की तरह लिखी जाती थीं। उदाहरण के लिए ये पढ़िए –
“एक यशी वकील वकालत का काम करते करते बुड्ढा हो कर अपने दामाद को वह काम सौंप के आप सूचित हुआ। दामाद कई दिन काम कर के एक दिन आया ओ प्रसन्न हो कर बोला — हे महाराज ! आपने जो फलाने का पुराना ओ संगीन मोकदमा हमें सौंपा था सो आज फैसला हुआ। ये सुन कर वकील पछता कर बोला तो तुमने सत्यनाश किया। उस मुक़दमे से हमारे बाप दादा बढ़े थे तिस पीछे हमारे बाप मरती समय हमें हाथ उठा के दे गए ओ हमने भी उसको बना रखा अब तक उसी भांति अपना पिन कटा ओ वही मोकदमा तुम को सौंप कर समझा था कि तुम भी अपने बेटे-पोतों-परपोतों तक पालोगे या तुम थोड़े से दिनों में उसे खो बैठे।”
सन 1824 से सन 1825-26 तक कलकत्ता में, स्थानीय भाषाओं में छह अख़बार निकलते थे, तीन बांग्ला में, दो फ़ारसी में और एक हिंदी में। पहले हिंदी अख़बार उदन्त मार्तण्ड के बंद होने के बाद 19वीं सदी की प्रथम छमाही में हिंदी अख़बार के प्रकाशन में कुछ प्रयोग किए गए। इनमें राजा मोहन राय का बंगदूत भी शामिल था जो हिंदी का दूसरा अख़बार था। मई सन 1829 में यह अख़बार हिंदी, अंग्रेज़ी, बंगाली और फ़ारसी में छपने लगा। जुगल किशोर शुक्ला ने एक बार फिर हिंदी अख़बार के प्रकाशन में अपना भाग्य आज़माने की कोशिश की और “समयादानंद मार्तंड” अख़बार निकाला जो सन 1852 तक चला लेकिन वो भी आख़िरकार बंद हो गया।
इसके बाद सन 1854 में “समाचार सुधा वर्षण” नामक अख़बार निकला। इसका पहला अंक अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह के तीन साल पहले, जून सन 1854 में निकला। इसका संपादन बंगाल के रहने वाले श्याम सुंदर सेन करते थे और ये हिंदी और बंगाली, दोनों भाषाओं में छपता था। हर अंक में छह से आठ पन्ने होते थे जिसमें से ज़्यादातर पन्नों पर हिंदी की ख़बरें होती थीं। हिंदी के पृष्ठ बंगाली के पृष्ठों के पहले होते थे जिनमें महत्वपूर्ण ख़बरें, लेख, संपादकीय आदि होते थे। बंगाली पृष्ठों में मुख्यत: व्यवसायिक ख़बरें, विज्ञापन और भाव आदि होते थे। हालंकि अख़बार द्विभाषी था लेकिन इसमें हिंदी को प्रमुख स्थान दिया गया था। इस अख़बार के कई अंक लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय में रखे हुए हैं और अख़बार के प्रकाशन के दूसरे साल की पूरी फ़ाइल कलकत्ता की इम्पीरियल लाइब्रेरी में रखी है।
सन 1850 से लेकर सन 1857 तक हिंदी के कई अख़बार प्रकाशित हुए। इनमें बनारस अख़बार, सुधाकर तत्व बोधिनी, पत्रिका और सत्य आदि अख़बार शामिल थे। बनारस से निकलने वाला बनारस अख़बार (सन 1844) पहला अख़बार था जो उत्तर-पश्चिम प्रांतों में देवनागरी लिपि में छपता था। इसकी शुरुआत विद्वान औप पत्रकार राजा शिव प्रसाद ने की थी ।
प्रसिद्ध लेखक और हिंदी के पत्रकार भारतेंदु हरीशचंद्र जैसे अगवाओं की वजह से 20वीं सदी के आते आते हिंदी पत्रकारिता अपने पंख फ़ैलाने लगी थी। इसके बाद और भी कई हिंदी के अख़बार और पत्रिकाएं निकलीं। पत्रकार पैदा हुए। अपने शुरूआती दिनों के बाद से, पिछली दो सदियों के भीतर ही, देखते ही देखते हिंदी अख़बार-उद्योग कितना बड़ा हो गया….
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