जासूस फ़ेलूदा के दोस्त या सहायक ने अगर उससे पूछा होता- “सोशल मीडिया और कम होते जा रहे सिनेमाघरों के दौर में हमारी प्रासंगिकता कैसे बनी रहेगी? तो फ़ेलूदा ने जवाब दिया होता-“बहुत आसान है दोस्त, वेब सीरीज़ का रुख़ करते हैं।”
और हुआ भी ठीक ऐसा ही। प्राइवेट जासूस प्रोदोष चंद्र मित्र यानी फ़ेलूदा और उसके चचेरे भाई तापष जिसे फ़ेलूदा, तोपषे नाम से बुलाता है, को लेकर सन 2017 में अपराधों की गुत्थी सुलझाने वाली इनकी पहली वेब सीरीज़ बनी।
ये दोनों पात्र लेखक आर्थर कोनन डोयल के प्रसिद्ध चरित्र शेरलॉक होम्स और जॉन वॉटसन पर ही आधारित हैं। प्रसिद्ध बंगाली फ़िल्म निर्देशक और लेखक सत्यजीत रे ने इन पात्रों की रचना की थी जिसकी शुरुआत सन 1965 में उनकी पहली कहानी से हुई थी। रे ने कुल 35 फ़ेलूदा कहानियां और उपन्यास लिखे, जो मुख्यत: बच्चों की पत्रिका “संदेश” और बंगाली पत्रिका “देश” के दुर्गा पूजा विशेषांक में प्रकाशित हुए थे। बाद में किताब के रुप में इनका प्रकाशन हुआ। जासूसी सीरीज़ लिखने के 27 साल बाद रे का 23 अप्रैल सन 1992 को निधन हुआ और इस तरह वह अपने चाहने वालों के लिए फ़ेलूदा की अधूरी अंतिम रहस्मय कहानी छोड़ गए।
बंगालियों में जासूसी कहानियां बहुत ही लोकप्रिय रही हैं। इसकी शुरुआत सन 1889 बकाउल्लाह और प्रियनाथ मुखोपाध्याय ने की थी। लगभग हर प्रमुख बंगाली लेखक ने जासूसी सीरीज़ की रचना की है लेकिन उनका जासूसी चरित्र फ़ेलूदा की तरह लोकप्रिय नहीं हो सका। रे की फ़ेलूदा सीरीज़ के प्रकाशक आनंद पब्लिशर्स हैं और आज भी उनकी ये सीरीज़ सबसे ज़्यादा बिकती है। इसके बाद सबसे ज़्यादा बिकने वाली जासूसी सीरीज़ है। जासूस ब्योमकेश बक्शी जिसके लेखक शरदिंदू बंधोपाध्याय थे।
रे को लेखन विरासत में मिला था। उनके दादा उपेंद्र किशोर और पिता सुकुमार मशहूर लेखक थे। उपेंद्र किशोर ने प्रकाशन का काम शुरु किया था। उनके प्रकाशन का नाम था “यू रे एंड संस”। इनके सबसे लोकप्रिय प्रकाशन में बच्चों का पत्रिका “संदेश” थी। रे ने ख़ुद भी अपने करियर की
शुरुआत विज्ञापन की दुनिया से की थी। बाद में उन्होंने सन 1955 में “पाथेर पंचाली” के साथ फ़िल्मी दुनियां में क़दम रखा। सन 1970 तक वह बारह से ज़्यादा फ़िल्में बना चुके थे, जिनमें “जलसाघर” (1958), “देवी” (1960) और “नायक” (1966) जैसी चर्चित फ़िल्में शामिल थीं।
दरअसल सत्यजीत रे ने संदेश पत्रिका को पुनर्जीवित करने के मक़सद से जासूसी सीरीज़ शुरु की थी। सन 1972 में प्रकाशन कंपनी दीवालिया हो गई थी और रे के दादा द्वारा शुरु की गई पत्रिका “संदेश” भी बंद हो गई थी। रे की पहली फ़ेलूदा कहानी “फ़ेलूद्दार गोयेनदागिरी” (फ़ेलूदा की जासूसी) थी और फिर रे ने, अगले तीन साल तक यानी, सन 1966 और सन1 967 के दौरान “बादशाही अंगती” (बादशाह की अंगूठी), सन1967 में कैलाश “चौधरी-आर पाथोर” (कैलाश चौधरी का मणि) और सन 1970 में शेयाल देबोता रहस्य (अनूबिस रहस्य) जैसी कहानी श्रृंखलाओं से अपने युवा पाठकों का मनेरंजन किया। सन 1992 में रे के निधन तक देश और संदेश का प्रकाशन जारी रहा था।
उसी साल रे एक शादी में शरीक हुए थे, जहां उनका परिचय प्रमुख बंगाली पत्रिका “देश” के संपादक सागरमय घोष से हुआ। घोष, लोकप्रिय होती जा रही फ़ेलूदा के बारे में न सिर्फ़ जानते थे बल्कि रे की साइंस पर आधारित कहानी श्रंखला के बारे में भी उन्हें पता था, जिसका मुख्य पात्र सनकी प्रोफ़ेसर शोंकू था। घोष ने रे से कहा कि क्या वे उन्हें “देश” में प्रकाशित करने के लिए उनकी फ़ेलूदा कहानियां कावयस्क संस्करण दे सकते हैं। लेकिन रे ने उनका आग्रह हंसी में उड़ा दिया।
रे को फ़ेलूदा का वयस्क संस्करण लिखने के लिए राज़ी करने की जब तमाम कोशिशों नाकाम हो गईं तो एक दिन घोष रे से मिलने कोलकता में बिशप लेफ्रॉय रोड स्थित उनके फ़्लेट पर चले गए। घोष शारीरिक रुप से बहुत कमज़ोर थे और उनके लिए सीढ़ियां चढ़ना लगभग असंभव-सा था, लेकिन फिर भी वे जैसे-तैसे सीढ़ियां चढ़ गए। इस बार रे उन्हें मना नहीं कर पाए और इस तरह सन 1970 में देश पत्रिका के दुर्गा पूजा विशेषांक में गंगतोक-ऐ गोंदोगोल (गंगतोक में संकट) कहानी में पहली बार वयस्क फ़ेलूदा नज़र आया।
शेरलॉक होम्स से प्रेरित होने के बावजूद सत्यजीत रे ने अपने पात्रों को उस पृष्ठभूमि से सजीव किया, जहां के रहनेवाले वो ख़ुद थे। उनकी किसी भी कहानी में यह विस्तृत जानकारी नहीं मिलती, कि उनके चरित्र कहां के मूल निवासी थे । लेकिन रे के ख़ुद के पूर्वजों की तरह, जो पूर्व बंगाल (अब बांग्लादेश) में मैमन सिंह के निवासी थे, फ़ेलूदा का परिवार भी पूर्व बंगाल में ढ़ाका के विक्रमपुर क्षेत्र के सोनादिघी गांव का निवासी था। फ़ेलूदा के पिता जॉयकृष्णा मित्रा गणित और संस्कृत के शिक्षक थे, जो ढ़ाका महाविद्यालय स्कूल में पढ़ाते थे। सन 1835 में स्थापित ये स्कूल सबसे पुराना सरकारी हाई स्कूल था।
रे की तरह फ़ेलूदा के पिता का भी निधन तब हुआ, जब वह कम उम्र के थे और उनके चाचा ने उनकी परवरिश की थी। विभाजन के बाद उसका परिवार कोलकता आ गया और फ़ेलूदा अपने चचेरे भाई तापेष रंजन मित्रा, जिसे तोपषे नाम से बुलाया जाता था, के साथ पला-बढ़ा हुआ। फ़ेलूदा की सारी कहानियां तोपषे के दृष्टिकोण से लिखी गई हैं और और बच्चा अपने बड़े भाई की चीजों को देखने और उनसे नतीजे निकालने की अलौकिक शक्तियों से हैरान रहता है। रे ख़ुद भी शेरलॉक होम्स के मुरीद थे और इसीलिए फ़ेलूदा भी होम्स का मुरीद था। लंदन-ऐ फ़ेलूदा (लंदन में फ़ेलूदा, 1989) में फ़ेलूदा “शेरलॉको होम्स संग्रहालय” जाता है और स्वीकार करता है, कि अगर शेरलॉक होम्स नहीं होता तो वह कभी भी जासूस नहीं बन सकता था।
“फ़ेलूदा” का मित्रा परिवार दक्षिण कोलकता में 21 रजनी सेन रोड पर रहता है और कहानी में रे के शहर कोलकता का ज़िक्र अक्सर होता रहता है। उदाहरण के लिए बक्शो रहस्य (कालका मेल की एक घटना, 1972) में फ़ेलूदा को प्रेटोरिया स्ट्रीट पर लूट लिया जाता है, जो रे के ख़ुद के मकान से बहुत क़रीब थी। शेयाल देबोता रहस्य ( अनूबिस रहस्य, 1970) में फ़ेलूदा एक जगह जाता है, यह वही जगह है, जहां एक एडिटिंग स्टूडियो हुआ करता था और रे ने उस स्टूडियो में काम किया था। रे की तरह फ़ेलूदा भी पढ़ाकू है और रे की तरह ही उसके साहसिक कामों की मार्फ़त शहर का इतिहास सजीव हो जाता है।
रे की कहानियों मे फ़ेलूदा के सनकीपन के कई कारनामें, बहुत ख़ूबसूरती से पिरोए गए हैं। हट्टा- कट्टा जासूस रोज़ाना योगाभ्यास करता है, लेकिन उसे आत्मरक्षा की जापानी मार्शल कला “जूजीत्सू” सभी आती है। स्वस्थ जीवन शैली के बावजूद वह चारमीनार सिगरेट पीता है। उसके पास .32 कैलिबर कोल्ट रिवाल्वर भी है, हालंकि इसका वह इसका इस्तेमाल कभी-कभार ही करता है।
चचेरे भाई तोपषे के अलावा फ़ेलूदा के साथ अक्सर लेखक लालमोहन गांगुली भी मिलता है, जो “जटायू” उपनाम से लिखता है और जो उत्तर कोलकता में गारपाड़ में रहता है जहां रे ने अपने बचपन का अधिकतर समय गुज़ारा था। गांगुली कहानियों में अपने प्रहसन से पाठकों का मनोरंजन करता है।
फ़ेलूदा की चिरस्थाई अपील की एक वजह शायद ये भी है, कि ज़्यादातर कहानियां यात्रा-वृत्तांत की तरह लगती हैं। फ़ेलूदा रहस्य को सुलझाने के लिए या तो आकर्षक जगहों पर जाता है या फिर छुट्टियां मनाते हुए किसी अपराधिक मामले में व्यस्त हो जाता है। रे ने हर जगह का बहुत बारीकी से अध्ययन किया था और वो उसे तोपषे के ज़रिए सजीव कर देते थे। फ़ेलूदा चरित्र को लेकर जब उन्होंने फ़िल्म बनाई तो वो इसे एक दूसरे ही स्तर पर ले गए।
उपन्यास के रुप में फ़ेलूदा के प्रकाशन के तीन साल बाद सन 1974 में रे ने फ़ेलूदा फ़िल्म “सोनार केला” (सोने का क़िला) बनाई। कहानी की ज़रुरत के अनुसार उन्होंने राजस्थान का जैसलमेर क़िला चुना जिसकी पीली दीवारें सोने की तरह लगती थीं। कहानी में स्कूल के एक युवक मुकुल धर को अपना अतीत याद आने लगता है। बच्चे को याद आता है कि उसका पिता कीमती हीरे-मोती तराशता था।
जब ये ख़बर अख़बारों में छपती है, तब मंदर बोस और अमियानाथ बर्मन नाम के अपराधी उसका अपहरण कर लेते हैं। उन्हें लगता है कि बच्चे के पुराने घर से दबा ख़ज़ाना मिल जाएगा। लेकिन बच्चे को बस इतना ही याद था कि उसका घर एक सुनहरे क़िले के अंदर था। बर्मन सम्मोहन से बच्चे की यादाश्त को खंगालता है और उसे पता लगता है, कि ये सुनहरा क़िला जैसलमेर में है। इसी बीच, कोलकता में अपने बेटे मुकुल की चिंता में उसका पिता फ़ेलूदा को बच्चे की तलाश में लगाता है जो उसे एक विस्फोटक अंत के साथ जैसलमेर के क़िले से ढूंढ़ निकालता है और अपराधियों से बचा लेता है।
इस फ़िल्म को कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिले और बॉक्स ऑफिस पर भी हिट हुई, लेकिन रे ख़ुद ये नहीं समझ पाए थे, कि इसका जैसलमेर पर्यटन पर कितना असर पड़ेगा। आज भी कोलकता से दो हज़ार कि.मी. भी दूर राजस्थान के इस शहर में धड़ल्ले से बंगाली भाषा बोलनेवाले टूरिस्ट गाइड और दुकानदार बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। यहां के कई होटलों, रेस्तरां और दुकानों में रे के चित्र लगे हुए हैं, जिन पर फूलों की माला डली होती है। फ़िल्म में मुकुल के अतीत का जो घर दिखायागया है, उसके अवशेषों को “मुकुलबाड़ी” के नाम से जाना जाता है।
सन 1986 में फ़ेलूदा पर “सत्यजीत रे प्रीज़ेट्स” धारावाहिक “जोतो कांडो काठमांडुते (काठमांडू के अपराधी, 1980)” बना लेकिन बंगाली जासूस के लिए अभिनेता तलाशना आसान काम नहीं था। रे फ़ेलूदा के किरदार के लिए अमिताभ बच्चन को लेना चाहते थे, लेकिन वह उपलब्ध नहीं थे इसीलिए शशि कपूर को लिया गया।
हालांकि धारावाहिक का प्रसारण टोलीविज़न पर होना था, लेकिन इसे 35 एम.एम. पर शूट किया गया था ताकि ये टेलीफ़िल्म के बजाय किसी मूवी की तरह लगे। अलंकार उर्फ़ मास्टर अलंकार ने तोपषे की भूमिका निभाई थी जबकि उत्पल दत्त ने फ़ेलूदा के जानी दुश्मन मगनलाल मेघराज का किरदार निभाया था। हालंकि क़िस्सा काठमांडू को सारे देश में सराहा गया, लेकिन बंगाल में लोगों ने फ़ेलूदा के किरदार में शशि कपूर को कोई ख़ास पसंद नहीं किया।
सन 2015 में फ़ेलूदा की 50वीं जयंती थी। रे के पुत्र संदीप अपने पिता की धरोहर को टेलीविज़न और बड़े स्क्रीन के लिए फ़ेलूदा फ़िल्म्स बनाकर आगे बढ़ा रहे हैं। फ़ेलूदा की 50वीं जयंती मनाने के लिए कोलकता के फ़िल्मकार सागनिक चटर्जी ने फ़ेलूदा के चरित्र पर एक वृत्तचित्र बनाया। शोध के दौरान चटर्जी ने पाया, कि फ़ेलूदा कहानियां का अनुवाद अंग्रेज़ी के अलावा उड़िया, मलयालम, गुजराती और मराठी भाषा में भी हो चुका था।
सन 2017 में बंगाली अभिनेता परम्ब्रता चट्टोपाध्याय, जिन्होंने इसके पहले संदीप रे की फ़ेलूदा फ़िल्मों में तोपषे का किरदार निभाया था, ने एक वेब सीरीज़ का निर्देशन भी किया और फ़ेलूदा का किरदार भी निभाया। चिन्नामास्टर अभिशाप ( देवी का अभिशाप, 1978) की उत्तर-कथा (सीक्वल) वेब सिरीज़ का निर्देशन श्रीजीत मुखर्जी ने किया है, जो इस साल रिलीज़ होगी। हालांकि फ़ेलूदा पर अब और लोग फ़िल्म या वेब सीरीज़ बना रहे हैं, लेकिन इस पर फ़ेलूदा की थीम म्यूज़िक, जो रे ने खुद बनाया था, सहित कहानी के हर पहलू पर रे की छाप नज़र आती है।
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