चंडीगढ़ अपनी आधुनिक वास्तुकला के लिए जाना जाता है, और भारत के सबसे सुनियोजित शहर के तौर पर भी जाना जाता है। इसका श्रेय प्रसिद्ध वास्तुकार ली कोर्बुज़िए को दिया जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि उनके दल में एक बहु-प्रतिभाशाली महिला भी थीं, जो भारत की पहली महिला वास्तुकारों में से एक थीं?
4 अक्टूबर सन 1923 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर शहर में जन्मी उर्मिला यूली चौधरी भारत की एक अग्रणी वास्तुकार थीं। उनका परिवार उदार और कुलीन था। उनके पिता राजनयिक सेवा में थे, जिसकी वजह से परिवार अक्सर यात्राएं ही करता था, यानी बचपन से ही वो विश्व-नागरिक बन गईं थीं।
उर्मिला को यूली नाम से जाना जाता था। उन्होंने सन 1947 में अपनी स्कूली शिक्षा जापान के कोबे में हासिल की और फिर उन्होंने सिडनी विश्वविद्यालय, आस्ट्रेलिया से वास्तुकला में स्नातक की डिग्री प्राप्त की । स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, वह अमेरिका चली गईं और वहां एंगलवुड, न्यूजर्सी से सिरेमिक (मिट्टी के पात्र बनाने की कला) में डिप्लोमा पूरा किया। उनकी शादी जुगल किशोर चौधरी से हुई, जो पंजाब सरकार के वास्तुकार सलाहकार थे।
अमेरिका में कुछ साल तक काम करने के बाद, वह सन 1951 में एक नये शहर यानी चंडीगढ़ की डिज़ाइन और योजना पर काम करने के लिये भारत आ गईं।
सन 1947 में भारत के विभाजन के बाद, पंजाब की राजधानी लाहौर पाकिस्तान के हिस्से में चला गया था। इसलिये भारतीय राज्य पंजाब की कोई राजधानी नहीं थी। इसीलिये हिमालय की शिवालिक पर्वत श्रंखला की तलहटी के पास, पंजाब की राजधानी के लिये चंडीगढ़ को चुना गया। इस परियोजना के लिये भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने फ़्रांस और स्विटज़रलैंड के वास्तुकार और आधुनिक वास्तुकला के अगली पंक्ति के वास्तुकार ली कोर्बुज़िए को भारत बुलाया। ये परियोजना ली कोर्बुज़िए के सबसे महान कार्यों में से एक बन गई। इस परियोजना में उनके साथ उनके वास्तुकार भाई पियर जेनरे और ब्रिटिश आर्किटेक्ट जेन ड्रू और मैक्सवेल फ़्राई भी थे।
पुरुष प्रधान क्षेत्र में यूली चौधरी ने सभी बाधाओं को पार कर अपनी जगह बना ली और इस परियोजना के साथ शुरुआत से जुड़ गईं, जो उस समय किसी भारतीय महिला के लिये मामूली बात नहीं थी। सन 1951 से लेकर सन 1963 तक वह चंडीगढ़ परियोजना के आरंभ से लेकर अंत तक इस परियोजना में सक्रिय रूप से शामिल रहीं। उन्होंने पहला काम हाई कोर्ट की इमारत से शुरू किया, जो ली कोर्बुज़िए द्वारा डिज़ाइन की गईं पहली इमारतों में से एक थी। उन्होंने जियोमेट्रिक हिल, टॉवर ऑफ़ शैडो और शहीद स्मारक बनाने में भी मदद की, जो चंडीगढ़ की सबसे प्रतिष्ठित स्मारकों में गिने जाते हैं। फ़्रांसीसी भाषा के अच्छे ज्ञान के कारण उनकी ली कोर्बुज़िए के साथ अच्छे कामकाजी सम्बंध बन गये थे, और वह उनके लिये दुभाषिए का काम भी करती थीं। उन्होंने नेहरू और ली कोर्बुज़िए के बीच होने वाले पत्र-व्यवहार की ज़िम्मेदारी संभाली हुई थी।
सन 1963 में, दिल्ली में दिल्ली स्कूल ऑफ़ आर्किटेक्चर एंड प्लानिंग की प्रिंसिपल के रूप में कुछ समय काम करने के बाद, वह दोबारा चंडीगढ़ परियोजना के साथ जुड़ गईं, जो सन 1968 से लेकर सन 1970 तक चला। यूली चौधरी ने अपने करिअर में कई प्रमुख पदों पर रहकर काम किया। वह किसी राज्य के वास्तुकला विभाग की अध्यक्ष बनने वाली पहली भारतीय महिला थीं। वह हरियाणा सरकार (1970-71), चंडीगढ़ सरकार (1971-76) और पंजाब सरकार(1976-81) की प्रमुख वास्तुकार थीं। वो रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ़ ब्रिटिश आर्कीटेक्ट, लंदन और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ आर्किटेक्ट्स की निर्वाचित सदस्य बनने वाली पहली महिला थीं।
लगभग तीन दशकों के अपने करिअर में यूली चौधरी ने सार्वजनिक भवनों, मंत्रियों के आवास, रेलवे स्टेशनों और छात्रावास भवनों से लेकर कॉटन मिलों, फ़ायर ब्रिगेड स्टेशनों और ग्रामीण अस्पतालों जैसे कई भवनों की डिज़ाइन बनाई। उन्होंने पंजाब में तलवाड़ा टाउनशिप डिज़ाइन करने वाली टीम का भी नेतृत्व किया था। उनकी सबसे प्रमुख डिज़ाइनों में चंडीगढ़ के गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक कॉलेज फॉर विमेन और गवर्नमेंट होम साइंस कॉलेज, चंडीगढ़ के गवर्मेंट के छात्रावास ब्लॉक शामिल हैं। गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक कॉलेज फॉर विमेन के ब्लॉक को आरंभिक आधुनिक वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण माना जाता है।
उनकी डिज़ाइन ली कोर्बुज़िए की और उनकी अपनी अनूठी शैली का मिश्रण थीं। ये डिज़ाइन आधुनिक वास्तुकला के बेहतरीन नमूनों में से एक थीं। वास्तुकार और लेखक माधवी देसाई ने अपनी पुस्तक ‘वुमन आर्किटेक्ट्स एंडमॉडर्निज़्म इन इंडिया’: नैरेटिव्स एंड कंटेम्परेरी प्रैक्टिसेज़’ में लिखती हैं, “चौधरी आमतौर पर अपनी डिज़ाइनों में ली कोर्बुज़िए का अनुसरण करती थीं, जिनमें ज्यामितीय रचनाओं के सिद्धांत साफ़ दिखाई देते थे। उन्होंने डिज़ाइन की अपनी विशिष्ट आधुनिकता वादी शब्दावली भी विकसित की थी। वह सादगी और प्रयोग के साथ-साथ कम ख़र्च और व्यावहारिकता में विश्वास करती थीं।”
फर्नीचर डिज़ाइन, चौधरी के सबसे दिलचस्प कामों में से एक था। पियर जेनरे के साथ उन्होंने सरकारी कार्यालयों के लिए लकड़ी के फ़र्नीचर डिज़ाइन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कैपिटोल कॉम्प्लेक्स और गांधी भवन, गेस्ट हाउस और पंजाब विश्वविद्यालय के पुस्तकालय के लिए उन्होंने ही फ़र्नीचर डिज़ाइन किये थे। कम लागत वाले फ़र्नीचर की डिज़ाइन करने के लिये, उन्हें सन 1964 में राष्ट्रपति से स्वर्ण पदक भी मिला था।
एक वास्तुकार के रूप में अपने शानदार करियर के अलावा यूली चौधरी में और भी कई प्रतिभाएं थीं। उन्होंने जो कुछ भी किया, पूरा दिल और जान लगाकर किया। यूली एक प्रतिष्ठित चित्रकार, लेखिका थीं और उन्होंने नाटकों का निर्देशन भी किया। उन्होंने आर्किटेक्चर, टाउन प्लानिंग एंड इंटीरियर डिज़ाइन, मैन साइंस एंड सोसाइटी जैसी किताबें लिखीं । उन्होंने “दोज़ वर दि डेज़” नाम से ली कोर्बुज़िए पर संस्मरण भी लिखे।
द ट्रिब्यून के “सैटरडे प्लस” साप्ताहिक परिशिष्ट और वास्तुकला से संबंधित अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेखों से उनके विस्तृत अनुभव का पता चलता है। चूंकि वह फ्रांसीसी भाषा अच्छी तरह जानती थीं, उन्होंने ली कोर्बुज़िए की कृति “द थ्री ह्यूमन एस्टाब्लिशमेंट” का अंग्रेज़ी में अनुवाद भी किया।
दिलचस्प बात यह है, कि सन 1983 में वह आलियॉस फ़्रॉसैज़ डी चंडीगढ़ की पहली अध्यक्ष बनीं। ये उस आलियॉस फ़्रॉसैज़ नेटवर्क नामक अंतर्राष्ट्रीय संगठन का एक हिस्सा है, जो दुनियाभर में फ्रांसीसी संस्कृति और भाषा को बढ़ावा देता है।
यूली चौधरी का 20 सितंबर सन 1995 को एक बीमारी के कारण निधन हो गया। भारत में महिला वास्तुकारों के लिए यूली ने एक नया रास्ता बनाया। आज चंडीगढ़ में कई भवन उनके असाधारण करियर और आधुनिक वास्तुकला में उनके योगदान के गवाह हैं।
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