दुर्गाबाई देशमुख बारह साल की उम्र में ही कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता बन गई थीं। 15 साल की उम्र में उन्होंने जवाहारलाल नेहरु को चुनौती दे दी थी और उन्होंने कई ऐसे संस्थानों की नींव डाली जो आज भी मौजूद हैं। स्वतंत्रता सैनानी, वकील, राजनीतिज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता दुर्गाबाई देशमुख (1909-1981) एक ऐसी असाधरण महिला थीं जिन्होंने अपने देश के लिये अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया था।
दुर्गाबाई देशमुख संविधान सभा की सदस्य भी रहीं और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के साथ भी काम किया। उनकी पंडित
जवाहरलाल नेहरु से इतनी अच्छी दोस्ती हो गई थी कि वह उनकी शादी के गवाह भी बन गए थे। दुर्भाग्य से दुर्गाबाई इतिहास की उन कई महिलाओं में से हैं जिनके बारे में लोग कम जानते हैं। पेश है उनके जीवन की कहानी।
दुर्गाबाई 12 साल की उम्र में यानी 1921 में पहली बार सुर्ख़ियों में आईं थीं। जब उन्हें पता लगा था कि महात्मा गांधी एक राजनीतिक सभा को संबोधित करने आंध्र प्रदेश के काकीनाडा शहर आने वाले हैं। उन्होंने सभा के आयोजकों से आग्रह किया कि क्या गांधी जी कुछ समय निकालकर देवदासियों और बुर्क़ापोश मुस्लिम महिलाओं को संबोधित कर सकते हैं। वह चाहती थीं कि गांधी जी उनसे सामाजिक सुधारों के बारे में बात करें।
आयोजकों ने उनका मज़ाक उड़ाने के लिये कहा कि अगर वह गांधी जी को उपहार के रुप में देने के लिये पांच हज़ार रुपये जमा कर सकें तो वह (गांधी जी) उनके लिये दस मिनट का समय निकाल सकते हैं। दुर्गाबाई ने एक हफ़्ते के भीतर इतनी बड़ी रकम एकत्र कर ली। दुर्गाबाई ने जब इस बारे में आयोजकों को बताया तो वे चौंक गए और उन्होंने कहा कि गांधी जी के पास तो अलग से एक मिनट भी नही है। लेकिन दुर्गाबाई टस से मस नही हुईं और उन्होंने आख़िरकार आयोजकों को उनका वादा निभाने के लिये मजबूर कर दिया। कार्यक्रम का आयोजन उनके स्कूल में हुआ जहां गांधी जी ने महिलाओं को आधे घंटे तक संबोधित किया। दुर्गाबाई गांधी जी के पास ही खड़ी थीं और उनके भाषण का उन महिलाओ के लिये तेलुगु भाषा में अनुवाद कर रहीं थीं जिन्हें हिंदी नहीं आती थी।
गांधी जी उनसे इतने प्रभावित हो गए थे कि उन्होंने आंध्र प्रदेश के उनके दौरे पर दुर्गाबाई को दुभाषिये के रुप में अपने साथ चलने को कहा। ये वो समय था कि जब अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था और गांधी जी के साथ चलने पर उनकी गिरफ़्तारी भी हो सकती थी और वह जेल भी हो सकती थी। लेकिन इन बातों का दुर्गाबाई पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। इसके बाद वह कांग्रेस और स्वतंत्रता संग्राम की कई मुहिमों का हिस्सा बनीं।
पहली मुहिम के बाद राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत दुर्गाबाई वापस अपने घर लौटीं और अपना स्कूल छोड़कर अंग्रेज़ों के स्थापित किये गये अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों के ख़िलाफ़ परचम लहरा दिया। उन्होंने हिंदी में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये लड़कियों के लिये बालिका पाठशाला खोली। उन्होंने ऐसे समय में स्कूल चलाया जब ख़ुद उनकी उम्र स्कूल में पढ़ने की थी।
सन 1923 में जब काकीनाडा में नैशनल कांग्रेस ने अपना सम्मेलन किया तब तक दुर्गाबाई एक विश्वासपात्र स्वयंसेवी बन चुकी थी। उन्हें सम्मेलन के दौरान सभा स्थल के पास खादी प्रदर्शनी का इंचार्ज बना दिया गया था। उनकों ज़िम्मेदारी सौंपी गी थी कि कोई भी व्यक्ति बिना टिकट सभा स्थल में दाख़िल न हो पाये। जब नेहरूजी प्रदर्शनी देखने गये तो दुर्गाबआ ने उनसे भी टिकट ख़रीदने के लिये कहा। आयोजकों ने इस बात के लिये उन्हें फटकार लगाई तो दुर्गाबाई ने कहा कि वह तो बस निर्देशों का पालन कर रही हैं। नेहरु ने उनके साहस और कर्तव्यनिष्ठा के लिये उनकी सराहना की। न्याय के प्रति उनकी इसी चेतना ने समाज में उनके योगदान को परिभाषित किया।
दुर्गाबाई का जन्म 15 जुलाई 1909 को आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी ज़िले के काकीनाडा में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। वह दो बच्चों में बड़ी थीं। परिवार के सीमित संसाधनों के बावजूद उनके पिता समाज सेवा करते रहते थे जिसका बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपनी आत्मकथा चिंतमण एंड आई (1980) में अपने पिता के बारे में लिखा- “उन दिनों प्लेग और हैज़ा फैला हुआ था। इन घातक बीमारियों के मरीज़ों की मदद से वह घबराते नहीं थे…इन बीमारियों के शिकार लोगों के शव उठाने की हिम्मत बहुत कम लोगों में होती थी और तब एंबुलेंस भी नहीं होती थीं। मेरे पिता अपने तीन दोस्तों के साथ शव उठाते थे। हालंकि उस समय काकीनाडा की सड़के वीरान रहती थीं लेकिन मेरे पिता मेरी मां, मुझे और मेर छोटे भाई,नारायण राव को चर्च, मस्जिद या फिर शमशान घाट ये दिखाने के लिये ले जाते थे कि शवों का अंतिम संस्कार कैसे होता है। वह शायद हमें मृत्यु का सामना करने के लिये तैयार करना चाहते थे।“
उस समय के रीति रिवाजों के अनुसार दुर्गाबाई का विवाह आठ साल की उम्र में एक ज़मींदार के लड़के कर दिया गया था। उस समय विवाह के बाद लड़कियां एक उम्र तक अपने मात-पिता के घर में ही रहती थीं और बाद में अपने ससुराल जाती थीं। लेकिन जब तक दुर्गाबाई उस उम्र तक पहुंची, वह रीति-रिवाजों को चुनौती देने लगीं थीं और सामाजिक सुधार के बारे में सोचने लगीं थीं। 15 साल की उम्र में वह वैवाहिक बंधन से मुक्त हो गईं। उन्होंने अपने पति को समझाया कि ये परंपरा ग़लत है। उनके इस फ़ैसले को उनके परिवार का भी समर्थन मिला।
अपने नाबालिग काल में ही दुर्गाबाई में न्याय के प्रति चेतना जाग चुकी थी और उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिये लड़ने की ठान ली थी। सन 1930 में अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्होंने गांधी जी के नमक सत्याग्रह के लिये महिला सत्याग्रहियों को जमा किया। इसे लेकर अंग्रेज़ो ने उन्हें गिरफ़्तार कर तीन साल के लिये जेल भेज दिया।
जेल में अन्य महिलाओं से बात करने के बाद उनके जीवन में एक नया मोड़ आ गया और एक नया अर्थ भी मिल गया। उन्हें ये जानकर हैरानी हुई कि उनकी साथी महिला क़ैदियों को ये तक नहीं पता था कि वे जेल में क्यों हैं। उनसे बातचीत के बाद दुर्गाबाई को तीन प्रमुख बातों का एहसास हुआ- महिलाओं को उनके क़ानूनी अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं है, ख़ुद को मुक्त करने के लिये उनके पास संसाधन नही हैं और ये कि प्रशासन इन बातों का ग़लत फ़ायदा उठा रहा है।
जेल से छूटते ही दुर्गाबाई ने तय किया कि वह क़ानून की पढ़ाई करेंगी। वह उन लोगों की मुफ़्त में क़ानूनी मदद मदद करना चाहती थी जिन्हें ग़लत तरीक़े से जेल में डाला गया है। वह इन लोगों के मुक़दमें लड़ना चाहती थीं। उन्होंने क़ानून की पढ़ाई के लिये आंध्र प्रदेश विश्वविद्यालय में आवेदन किया जो उन्हें मिल गया। लेकिन विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर उन्हें दाख़िला देने से हिचक रहे थे क्योंकि तब विश्वविद्यालय में महिलाओं के लिये हॉस्टल नहीं था। ऐसी स्थिति में दुर्गाबाई ने एक तरकीब निकाली।
अपनी आत्मकथा में वह लिखती हैं, “मैंने एक अख़बार में इश्तहार निकाला। इसमें कहा गया था कि वे महिलाएं जो उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहती हैं लेकिन महिला हॉस्टल न होने की वजह से नहीं कर पा रही हैं, वे हॉस्टल बनाने के लिये मुझसे संपर्क करें। इश्तहार का अच्छा जवाब मिला और हम दस महिलाओं ने मिलकर जगह तलाशी तथा वहां हॉस्टल बनाने का इंतज़ाम किया।”
दुर्गाबाई ने राजनीति शास्त्र में स्नातक और स्नाकोत्तर डिग्री ली और फिर मद्रास विश्वविद्यालय से विधि में डिग्री प्राप्त की। सन 1942 तक आते आते वह मशहूर आपराधिक वकील बन चुकी थीं। इस बीच उन्होंने सन 1937 में धन जमा करने के लिये आंध्रा महिला सभा की स्थापना की और महिलाओं के लिये शैक्षिक तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र खोले। आंध्रा महिला सभा ने कई कल्याणकारी योजनाओं की नींव डाली और दुर्गाबाई ने स्कूलों तथा अस्पतालों का एक नेटवर्क खड़ा कर दिया। ये संगठन आज भी सक्रिय है और दक्षिण भारत में महिला के कल्याण तथा शिक्षा के मामले में एक प्रतिष्ठित संस्थान माना जाता है।
सन 1946 में दुर्गाबाई को संविधान सभा में नियुक्त किया गया। 389 सदस्यीय संविधान सभा में तब 15 महिलाएं थीं। एक तरफ़ जहां बड़े बड़े विद्वान भारतीय संविधान की रचना में लगे थे, वहीं दुर्गाबाई हिंदू कोड विधेयक के तहत संपत्ति में महिलाओं के अधिकारों से लेकर न्यायपालिका की स्वायत्तता और अन्य विषयों पर चर्चा कर रही थीं। दुर्गाबाई ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्होंने ख़ुद और सभा के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर चर्चा के दौरान क़रीब 750 संशोधन पेश किये थे।
आज़ादी के बाद सन 1950 में दुर्गाबाई को योजना आयोग का सदस्य मनोनीत किया गया। वह आयोग की एकमात्र महिला सदस्य थीं। आयोग की सदस्य के रुप में उन्होंने सामाज कल्याण पर एक राष्ट्रीय नीति बनाने के लिये समर्थन जुटाया। उन्होंने महिलाओं के लिए अलग अदालतों की ज़रुरत पर ज़ोर दिया। सन 1953 में जब वह चीन गईं थी तब उन्हें इस तरह की अदालत के बारे में पता चला था। उन्होंने इस बारे में बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस एम.सी. छागला, पी.बी. गजेंद्र गाटकर और जवाहरलाल नेहरु से चर्चा की।
सन 1953 में उन्होंने चिंतामण देशमुख से शादी की। तब चिंतामण ने भारतीय रिज़र्व बैंक के पहले भारतीय गवर्नर के रुप में अपना छह साल का कार्यकाल समाप्त किया था। जब उनकी शादी हुई, चिंतामण भारत के वित्त मंत्री थे। दोनों एक दूसरे को कामकाज के सिलसिले में कुछ सालों से जानते थे। ये शादी बहुत साधारण तरीक़े से हुई थी जिसमें जवाहरलाल नेहरु गवाहों में एक थे। अगले दिन दुर्गाबाई अकाल राहत कार्य के लिये पुणे चली गईं और उनके पति बजट बनाने के काम में लग गए।
दुर्गाबाई राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद की पहली अध्यक्ष थीं जिसकी स्थापना भारत सरकार ने सन 1958 में की थी। उनके कार्यकाल में परिषद की समिति ने लड़कियों के लिये प्राथमिक शिक्षा में प्रावधान, कई सेवाओं में सीटों के आरक्षण और प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम जैसे कई सिफ़ारिशें कीं।
सन 1963 में दुर्गाबाई को वाशिंग्टन में वर्ल्ड फ़ूड कांग्रेस की बैठक में हिस्सा लेने वाले प्रतिनिधि मंडल में शामिल किया गया और सन 1965 में शैक्षिक उद्देश्य के लिये एशियन मॉडल का प्रारुप तैयार करना के लिये बतौर यूनेस्कों विशेषज्ञ उन्हें बुलाया गया। शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिये उन्हें यूनेस्कों ने सम्मानित किया और सन 1975 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण सम्मान से नवाज़ा ।
9 मई सन 1981 को दुर्गाबाई का आंध्र प्रदेश के नरासंनापेटा में निधन हो गया। उन्होंने अपने पीछे संस्थानों की एक ऐसी विरासत छोड़ी है जो आज भी हर साल हज़ारों लोगों को शिक्षा और स्वास्थ सेवाएं दे रही हैं। आंध्रा विश्विद्यालय, जहां उन्होंने लड़कियों के लिये हास्टल शुरू किया था, अपने एक विभाग का नाम दुर्गाबाई के नाम पर रखा है जिसे डॉ. दुर्गाबाई देशमुख सेंटर फ़ॉर वीमेन स्टडीज़ कहा जाता है।
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