दो वीर फौजियों की दास्ताँ 

भारतीय सेना की बहादुरी के क़िस्सों से कौन नहीं वाक़िफ़ है। आज़ादी के बाद भारतीय सेना ने हर क्षेत्र में अपने साहस, शौर्य और वीरता का बेहतरीन उदहारण पेश किया है. अपनी मातृभूमि की रक्षा के ख़ातिर शहीद हुए फ़ौजियों की बात करें, तो इनमें से बहुत से शहीद, लोगों के लबों पर , लोगों के ज़ेहन में, लोगों की यादों में, या फिर स्मारकों, मार्गों, चौराहों, स्कूलों या किसी और तरह ज़िंदा रहते हैं। ……

मगर ज़रा सोचिये, अगर इन शहीदों के नाम पर कोई मंदिर बने, जहां वो हमेशा ज़िंदा रहें…तो आपको सुन कर कैसा लगेगा ?

हम बात कर रहे हैं दो ऐसे जांबाज़ों की, जिन्होंने उत्तर – पूर्व भारत में चीनी फ़ौज से जम कर टक्कर ली और वीरगति प्राप्त की और बहादुरी के प्रेरणास्रोत बनने के साथ, भगवान का दर्जा भी प्राप्त किया। ये थे कैप्टेन हरभजन सिंह और राइफ़लमैन जसवंत सिंह रावत।

राइफ़लमैन जसवंत सिंह रावत

उत्तराखंड के, गढ़वाल क्षेत्र से ताल्लुक़ रखने वाले राइफ़लमैन जसवंत सिंह रावत 4-गढ़वाल राइफ़ल्स पलटन का हिस्सा थे. नेफ़ा (आज अरुणाचल प्रदेश) में सन 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान जसवंत की टुकड़ी को नुरानांग भेजा गया. वहाँ पहुँचते ही, जसवंत की टुकड़ी ने चीनी सेना को उनकी दो अलग चढ़ाईयों पर खदेड़ा. मगर तीसरी चढ़ाई के दौरान, इस बार चीनी सेना अपनी मीडियम मशीन गन के साथ अंधाधुंध फ़ायरिंग कर रही थी. राइफ़लमैन जसवंत ने अपने साथियों के साथ उस एमएमजी पर क़ाबू पाने के लिए चढ़ाई की. इस कोशिश में, उनके साथी लांस नायक त्रिलोक ने बचाव के लिए कवर-अप फ़ायरिंग की. फिर जसवंत सिंह और उनके दूसरे साथी राइफ़लमैन गोपाल सिंह गुसाईं एक साथ आगे बढ़े और दोनों ने मिलकर हथगोले फैंके, जिसमें पांच चीनी जवान मारे गए थे, मगर वहीँ गोपाल और त्रिलोक भी शहीद हो गए. राइफ़लमैन जसवंत गम्भीर रूप से जख़्मी हुए. लेकिन उन्होंने चीनी सैनिकों से छीने गए हथियार अपने साथ ला कर ही दम तोड़ा.

मगर ये इस कहानी का अंत नहीं था. जसवंत ने दो मोनपा लड़कियों: नूरा और सेला की सहायता से हथियारों को अलग-अलग जगहों पर लगवाया । उन हथियारों से हुई भारी फ़ायरिंग को देखकर चीनी सोच में पड़ गए कि ये किसी एक आदमी का काम नहीं हो सकता , बल्कि यह पूरी पलटन की करतूत है. जसवंत को रसद पहुँचाने वाले जवान को पकड़ लेने के बाद चीनियों को जसवंत के ठिकाने का पता लग गया. इसीलिए जसवंत ने, पकड़े जाने के डर से ख़ुद को गोली मार दी . सेला नाम की लड़की ग्रेनेड अटैक में मारी गयी और दूसरी लड़की नूरा को गिरफ़्तार कर लिया गया था.

जसवंत के सिर को धड़ से अलग करके चीनी फ़ौजी उसे अपने साथ ले गये. लेकिन उनकी बहादुरी के कारनामों से प्रभावित होकर एक चीनी कमांडर ने जसवंत की मूर्ति बनवाई. जो आज भी उनके स्मारक के रूप में विराजमान है.

इस जंग में 300 चीनी फ़ौजी ढ़ेर हुए । वहीँ 4-गढ़वाल राइफ़ल्स ने अपने 3 बहादुर जवान खोए और 8 जवान ज़ख़्मी हुए.

राइफ़लमैन जसवंत की इसी बहादुरी को देखते हुए, भारतीय सेना ने भी नुरानांग में उनकी याद में एक स्मारक बनवाया और नाम रखा गया “जसवंतगढ़”. दिलचस्प बात तो ये है कि शहादत के बाद, आज भी जसवंत अपनी ड्यूटी करते हैं और उनको प्रमोशन भी मिलता है. तवांग से 21 किलोमीटर दूर, इस स्मारक पर अरुणाचल प्रदेश से लगीं चीनी सरहदों पर तैनात भारतीय फ़ौजी और सैलानी एक बार मत्था ज़रूर टेकते हैं.

इस जंग के बाद 4-गढ़वाल राइफ़ल्स को नुरानांग के युद्ध के लिए बैटल ऑनर से नवाज़ा भी गया था.

कैप्टेन हरभजन सिंह

“नाथुला के हीरो” कहे जाने वाले कैप्टेन हरभजन सिंह का जन्म विभाजन से पहले पाकिस्तान के सदराना में हुआ था . सन 1965 में पंजाब रेजिमेंट में 21 साल की उम्र में भरती होने वाले हरभजन की शहादत के बारे में अलग अलग बातें कही जाती हैं. एक ये है कि कैप्टेन हरभजन सिंह सन 1968 में नाथुला में चीनी फ़ौजियों के साथ हुई मुठभेड़ में शहीद हुए. लेकिन आधिकारिक तौर पर यह कहा जाता है कि कैप्टेन हरभजन सन 1965 में चीनी सेना के साथ मुठबेड़ के दौरान नाथुला में शहीद हुए.

यह भी माना जाता है कि कैप्टेन हरभजन रसद से लदे ख़च्चरों की टोली को एक पोस्ट तक पहुंचाने निकले थे। लेकिन वह रास्ते में एक ग्लेशियर में डूब गए थे. कहा जाता है कि उनकी आत्मा ने, उनके शव को तलाश करने में उनके साथी फ़ौजियों की मदद की थी.

कैप्टेन से “बाबा” की उपाधि हासिल कर चुके हरभजन की आत्मा, चीन की तरफ़ से होनेवाले आक्रमण की चेतावनी, हमेशा तीन दिन पहले दे देती है. भारतीय और चीनी फ़ौजियों की बैठकों के दौरान, चीनी फौजी, हरभजन के सम्मान में हमेशा एक कुर्सी अलग रखते हैं. ऐसा अक्सर होता है कि जो फ़ौजी अपने कपड़े साफ़-सुथरे नहीं रखता, उसको हरभजन की आत्मा थप्पड़ रसीद कर देती है. डिस्प्ले में रखे गए उनके कपड़ों को साफ़ करने की अनुमति किसी को भी नहीं है, क्यूंकि कहा जाता है कि उनकी आत्मा ही उनके कपड़े साफ़ रखती है.

“संत बाबा” के ख़िताब से नवाज़े गए हरभजन का सामान हर साल 11 सितम्बर को आर्मी जीप से न्यू जलपाईगुड़ी (पश्चिम बंगाल) रेलवे स्टेशन लाया जाता है और ट्रेन से उनके गाँव कपूरथला ज़िले (पंजाब) के कूका गाँव भेजा जाता है. इस ट्रेन में बाबा के लिए अच्छी ख़ासी जगह रिज़र्व की जाती है.साथ में तीन सैनिक भी शामिल होते हैं. नाथुला में तैनात सैनिक आज भी अपनी कमाई से कुछ पैसा बचाकर हरभजन के परिजनों को हर महीने भेजते हैं.

इन कहानियों को सुनकर प्रेरणा तो मिलती ही है लेकिन साथ ही उन शहीदों के बारे में और जानने कि जिग्यासा भी बढ़ती है। ख़ास बात यह है कि फौजी तो शहीद हो जाते हैं लेकिन उनकी बहादुरी की गाथाएं ही उन्हें हमाशा ज़िंदा रखती हैं।

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