दिल्ली के सिनेमाघरों की कहानी

भारत जैसे सिनेमा-प्रेमी देश में सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमाघर सिर्फ़ सिनेमा देखने की जगह ही नहीं हुआ करते थे बल्कि इनका प्रयोग और भी कई चीज़ों के लिए होता था। उस समय सिनेमाघर मनोरंजन का प्रमुख साधन थे, वे सामाजिक बदलाव के स्रोत और राजनीतिक तथा सामाजिक स्थिति को भापने का मापदंड हुआ करते थे। इसके अलावा ये सिनेमाघर उनके दर्शकों के बारे में भी बहुत कुछ बताते थे और जहां तक अभिनेताओं का सवाल है, तो इन सिनेमाघरों में जुबली मानाने वाली फ़िल्मों ने उन्हें रातों रात अमर स्टार बना दिया।

आज मल्टीप्लैक्स सिनेमाघरों का ज़माना है जो एक जैसे होते हैं लेकिन सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों की अपनी अलग ख़ासियत होती थी और लोग इन्हें बहुत पसंद भी करते थे। दुख की बात ये है कि मल्टीप्लैक्स के आने से ये सिनेमाघर लगभग ख़त्म होने की कगार पर हैं। कई सिनेमाघर तो स्थानीय इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं। मुंबई, चैन्नई और कोलकता में सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के बंद होने के बारे में काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है लेकिन दिल्ली के सिनेमाघरों की अपनी दिलचस्प कहानी है।

सबसे पहले हम सिनेमा के इतिहास पर एक नज़र डालते हैं। भारत में सिनेमा सात जुलाई सन 1896 स शुरू हुआ था। तब लुमीएरे बंधुओं ने बॉम्बे के वॉटसन होटल में छह लघु फ़िल्में दिखाईं थीं। जल्द ही बॉम्बे, चैन्नई और कलकत्ता में फ़िल्में दिखाईं जाने लगीं। सन 1899 में एच.एस. भाटवडेकर नामक एक भारतीय व्यक्ति ने “द् रेस्लर्स” शूट की थी और इसे बॉम्बे के हैंगिंग गार्डन्स में दिखाया गया था। इस फ़िल्म में कुश्ती का मैच दिखाया गया था। इसे पहली भारतीय वृत्तचित्र (documentary) फ़िल्म माना जाता है।

कुछ सालों के बाद दादा साहेब फ़ाल्के ने सन 1913 में पहली भारतीय फ़ीचर फ़िल्म राजा हरीशचंद्र बनाई और तीन साल बाद तमिल में पहली मूक फ़िल्म कीचक वधम (1916) बनी। सन 1919 में पहली बांग्ला मूक फ़िल्म बिलवामंगल रिलीज़ हुई। इसके साथ ही बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता फ़िल्म-उद्योग के बड़े केंद्र बन गए और आज भी यहां आंधी-तूफ़ान की रफ़्तार फ़िल्में बन रही हैं।

लेकिन एक तरफ़ जहां पूरे देश में फ़िल्में बन रहीं थीं, वहीं फ़िल्म बनाने के मामले में दिल्ली का हाल ठेरे हुए पानी की तरह था। यहां फ़िल्म बनाने के लिए कोई हलचल नहीं थी। उस समय दिल्ली में दो एकदम अलग और लगभग समानांतर विश्व होते थे- पुरानी दिल्ली या शाहजानाबाद और अंग्रेज़ बहुल सिविल लाइंस। फ़िल्म इतिहासकारों की लाख कोशिशों के बावजूद अब तक ये पता नहीं चल सका है कि दिल्ली में पहली फ़िल्म कब दिखाई गई थी।

फ़िल्म इतिहासकार सविता भाखड़ी और आदित्य अवस्थी की किताब “हिंदी सिनेमा और दिल्ली” के अनुसार अस्थिर राजनीतिक माहौल की वजह से दिल्ली फ़िल्म के मामले में पिछड़ गया था। सदियों तक दिल्ली राजनीति का प्रमुख केंद्र रहा है। लगातार बदलते राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समीकरणों की वजह से यहां फ़िल्म उद्योग पनप नहीं पाया।

उदाहरण के लिये, सन 1857 की बग़ावत के बाद दिल्ली ने देश के राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र के रुप में अपना मर्तबा खो दिया था । अंग्रेज़ों ने इसे एक सैन्य कैंप में तब्दील करके रख दिया। बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता जैसे शहरों को फ़िल्म निर्माण में स्थानीय लोगों का समर्थन और संरक्षण मिलता था। दूसरी तरफ़, दिल्ली की स्थानीय आबादी न के बराबार हो गई थी क्योंकि ज़्यादातर लोग बाहर से यहां आए थे। विभाजन के बाद यहां शरणार्थियों के आने से स्थितियों में बहुत बड़ा बदलाव आया।

बड़ी दिलचस्प बात है, हालंकि यह दिल्ली जैसे सरकारी शहर के लिये कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि सिनेमाघरों के खुलने का संबंध स्थानीय राजनीति से था। अंग्रेज़ों ने सन 1927 में कलकत्ता को छोड़कर नई दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया था और जल्द ही शहर में राजनीतिक गहमागहमी शुरू हो गई थी । दिल्ली में आरंभिक सिनेमाघर सन 1920 के दशक में, शाहजानाबाद (पुरानी दिल्ली) और कनॉट प्लेस (नई दिल्ली) में खुले थे, दरअसल वह असैंबली हॉल हुआ करते थे जिनका इस्तेमाल राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों के लिए किया जाता था। फिर इन जगहों पर फ़िल्में भी दिखाई जाने लगीं और समय के साथ साथ ये स्थाई सिनेमाघर बन गए। मूक फ़िल्मों के बाद जब ध्वनि और संवाद वाली फ़िल्मों का दौर शुरु हुआ तो इन्हें टॉकीज़ कहा जाने लगा। कई सिनेमाघरों ने अपने नाम के आगे टॉकीज़ लगाना शुरु कर दिया जैसे मोती टॉकीज़, रॉबिन टॉकीज़ और जगत टॉकीज़।

पुरानी दिल्ली कभी दिल्ली के पारंपरिक संभ्रांत लोगों और पुराने मुस्लिम अभिजात वर्ग का केंद्र हुआ करता था लेकिन आज यह बिजली के सामान और व्यावसायिक बाजारों के लिये मशहूर है। इसी पुरानी दिल्ली में मशहूर सिनेमाघर जगत, मोती, डिलाइट, रिट्ज़, मैजेस्टिक, मिनरवा, गोल्चा और नॉवेल्टी आदि हुआ करते थे। फ़िल्म स्कॉलर रवि वासुदेवन अपने लेख “सिनेमा इन अर्बन स्पेस” में लिखते हैं कि सार्वजनिक स्थानों में सिनेमा के महत्व के बारे में पता करते समय, वर्ग और सामाजिक अंतर्विरोध को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

प्रत्येक सिनेमाघर में समाज के एक विशेष वर्ग के दर्शक होते थे। जामा मस्जिद के पास वाले जगत टॉकीज़ में मुस्लिम समुदाय फ़िल्म देखने जाया करता था जबकि उसी क्षेत्र की हिंदू आबादी की पसंद मोती टॉकीज़ होता था। 1930 के दशक में कनॉट प्लेस बनने के बाद वहां कई नए सिनेमाघर खुल गए जिनमें रीगल, सबसे प्रमुख था। प्लाज़ा सिनेमाधर बहुत लोकप्रिय हो गया था क्योंकि वहां दर्शकों को कोल्ड कॉफ़ी पिलाई जाती थी जो उस समय एक नई बात थी।

दिल्ली में ओडियन पहला सिनेमाघर था, जो पूरी तरह वातानुकूलित था।

दिल्ली में फ़िल्मों की लोकप्रियता बढ़ने के साथ ही फ़िल्म वितरक और सिनेमाघरों के मालिक फ़िल्मों के प्रचार के लिये नायाब तरीक़े अपनाने लगे। उदाहरण के लिये फ़िल्मों के विज्ञापन में अंग्रेज़ी, हिंदी और उर्दू में लिखा जाने लगा क्योंकि दर्शकों का एक वर्ग सिर्फ़ उर्दू जानता था जबकि दूसरे वर्ग को सिर्फ़ हिंदी आती थी। प्रताप, पंजाब केसरी और वीर अर्जुन जैसे स्थानीय अख़बार आने वाली फ़िल्म की जानकारी देते थे। 1960 के दशक तक, ख़ासकर पुरानी दिल्ली में फ़िल्मों का प्रचार साइकल रिक्शे पर किया जाता था।

सन 1947 में अंग्रेज़ों से आज़ादी और विभाजन की विभीषिका का दिल्ली के सिनेमाघरों पर बहुत ज़बरदस्त असर पड़ा। फ़िल्म इतिहासकार ज़िया उस्सलाम अपनी किताब “देहली 4 शोज़: टॉकीज़ ऑफ़ यस्टरईयर (2016)” में सिनेमा के बढ़ते प्रभाव के संदर्भ में कहते हैं, “एक लोकतंत्र के रुप में जब नया आज़ाद देश आगे बढ़ा रहा था तब सिनेमा ने समांता या बराबरी का एहसास पैदा करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका अदा की – ग़रीब और अमीर लोग एक ही समय में, एक ही जगह पर, एक ही फ़िल्म देख रहे थे।”

लाहौर और पेशावर से बड़ी संख्या में शरणार्थियों की आमद से दिल्ली में सिनेमा को नए दर्शक मिल गए। पुरानी और नई दिल्ली के नुक्कड़ पर स्थित दरियागंज में डिलाइट सिनेमाघर देशभक्ति की फ़िल्में दिखाने के लिये मशहूर था। ये सिनेमाघर उस स्थान पर बना था जहां कभी पुराने शहर शाहजानाबाद की पुरानी दीवार हुआ करती थी। सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर के लिये इस दीवार का एक हिस्सा गिरा दिया गया था। सन 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान डिलाइट सिनेमाधर स्थानीय लोगों की धुरी हुआ करता था क्योंकि दिल्ली में तब ये एकमात्र ऐसा सिनेमाघर था जहां न सिर्फ फिल्में दिखाई जा रहीं थीं बल्कि मध्यांतर में युद्ध के बारे में समाचार भी दिये जाते थे।

जंग के बारे में ख़बरे देने के लिये उन्होंने दो मध्यांतरों का रिवाज भी शुरू कर दिया था।

1960 के दशक में दिल्ली के पहाड़गंज इलाक़े के शीला सिनेमाघर में अंग्रेज़ी फ़िल्में दिखाईं जाती थीं। ये 70 एमएम स्क्रीन वाला भारत का पहला सिनेमाघर था। आपातकाल के दौरान शीला सिनेमाघर को उसकी ‘अनुपयुक्तता’ की वजह से सरकार ने बंद कर दिया था। लेकिन सही कारण ये था कि इसके मालिक डी.सी. कौशिक ने स्थानीय ग़ुंडों-बदमाशों को वसूली देने से मना कर दिया था। डी.सी. कौशिक ने अख़बारों में एक इश्तहार छपवाया जिसमें उन्होंने कहा कि “दिल्ली का सबसे शानदार सिनेमा हॉल गंदी स्थितियों की वजह से बंद हो रहा है।” इसे लेकर जब हंगाम मचा तो सरकार ने इसे फिर खोलने का आदेश दे दिया।

साठ और सत्तर के दशक या उससे पहले भी लोग पुराना शहर छोड़कर जाने लगे थे। इसी वजह से पुराने शहर के सिनेमाघरों के दर्शकों की संख्या कम होने लगी थी। यहां बस मज़दूर तबक़ा ही रह गया था जो सी-ग्रेड फ़िल्में पसंद करता था। शाहजानाबाद एक बाड़ा बनकर रह गया था और प्रशासन ने भी इस तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया। 1970 के दशक में टेलीविज़न के आने से भी सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों की लोकप्रियता पर असर पड़ा। कुछ सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर थे जिन्होंने सुधार की कोशिश कीं लेकिन ए-ग्रेड या आर्ट-मूवी की मांग कम होने की वजह से वे भी धीरे धीरे बरबाद हो गए।

सन 1980 और सन 1990 के दशक में वीडियो, टीवी और फिर मल्टीप्लेक्स के आने से सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर चौपट हो गए। अब इंटरनेट और मनोरंजन के अन्य साधनों की वजह से कभी बहुत महत्वपूर्ण और चहल-पहल से भरे ये सिनेमाघर अब दिल्ली के सिनेमा के इतिहास में फुटनोट बनकर रह गए हैं।

शीर्षक चित्र यश मिश्रा

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