देहरादून का बासमती चावल अपनी ख़ुशबू और स्वाद के लिए मशहूर है। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि बासमती चावल की ये ख़ास क़िस्म अफ़ग़ानिस्तान के कोनार प्रांत में उगाई जाती थी। इसे अफ़ग़ान के उन राजाओं की प्लेटों में सजाया जाता था ,जिन्हें अंग्रेज़ों ने,19वीं सदी में निर्वासित करके देहरादून में रखा था । चावल की इस क़िस्म का देहरादून और अफ़ग़ानिस्तान के साथ दिलचस्प संबंध रहा है।
हिमालय के मैदानी इलाक़े में स्थित देहरादून घने जंगलों से घिरा हुआ है। इसका नाम गुरु हरि राय (सिखों के 7वें गुरु) के बड़े पुत्र गुरु राम राय द्वारा स्थापित ढेरे के नाम पर पड़ा है। गुरु राम राय ने 17वीं सदी के मध्य में यहां आश्रम स्थापित किया था । देहरादून सन 1803 तक टिहरी-गढ़वाल साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। उस समय जनरल अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखाओं ने कुमाऊं और गढ़वाल पर हमला किया था। एक दशक बाद एंग्लो-गोरखा युद्ध (1814-1816) में गोरखाओं की पराजय के बाद देहरादून अंग्रेज़ों के नियंत्रण में हो गया था। समय के साथ देहरादून और मसूरी अंग्रेज़ों के लोकप्रिय हिल स्टेशन हो गए, जो उत्तर भारत की गर्मी से राहत पाने के लिए यहां आते थे।
अफ़ग़ानिस्तान का ‘बड़ा खेल’
19वीं सदी के मध्य में जहां देहरादून एक लोकप्रिय हिल स्टेशन के रुप में विकसित हो रहा था वहीं ब्रिटिश, फ़्रांसीसी और रुसी साम्रार्ज्यों के बीच मध्य एशिया को लेकर सत्ता संघर्ष चल रहा था,और इस सत्ता संघर्ष के केंद्र में था अफ़ग़ानिस्तान।
अहमद शाह दुर्रानी (1722-1772), जिसे अहमद शाह अब्दाली के नाम से भी जाना जाता है, के नेतृत्व में अफ़ग़ानिस्तान एक शक्तिशाली साम्राज्य के रुप में स्थापित हो गया था। दुर्रानी राजवंश का अंतिम शासक शाह शुजा (1785-1842) था जो सन1801 में शासक बना था। लेकिन सन 1809 में उसके प्रतिद्वंदी मेहमूद शाह ने उसे अपदस्थ कर दिया और शाह शुजा को सन 1813 में लाहौर के महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में शरण लेनी पड़ी।
ये शाह शुजा ही था, जिसने सन 1813 में महाराजा रणजीत सिंह को कोहीनूर हीरा भेंट किया था।
मेहमूद शाह के निधन के बाद दोस्त मोहम्मद ख़ान (1793-1863) अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बन गया। इस दौरान ख़ीवा, समरक़ंद और बुख़ारा जीतने के बाद रुस का मध्य एशिया में प्रभाव बढ़ रहा था। अंग्रेज़ों को डर था कि रुसी, अफ़ाग़ानिस्तान के रास्ते भारत पर हमला कर सकते हैं और इसलिए वे अफ़ग़ानों और सिखों के साथ गठबंधन करना चाहते थे।
सन 1836 में सिखों के ख़िलाफ़ गठबंधन के लिए दूत के रुप में कैप्टन अलेक्ज़ेंडर बर्न्स को अफ़ग़ानिस्तान भेजा गया । क्योकि अंग्रेज़, सिखों को एक गंभीर ख़तरा मानते थे। लेकिन गठबंधन के बदले में जब अफ़ग़ानों ने पेशावर शहर की मांग की, तो गठबंधन टूट गया। इस बीच रुस और पर्शिया(ईरान) ने हेरात पर हमला कर दिया, जिसे उस समय मध्य एशिया का “अन्न भंडार” माना जाता था।
इसके बाद कंपनी और महाराजा रणजीत सिंह की संयुक्त सेना और दोस्त मोहम्मद ख़ां के नेत़त्व वाली सेना के बीच प्रथम एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध (1838-1842) हुआ। युद्ध के दौरान, सन 1839 में अंग्रेज़ों और सिखों ने दोस्त मोहम्मद ख़ां को अपदस्थ कर, शाह शुजा को, अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बनाने का फ़ैसला किया।
दोस्त मेहम्मद ख़ां को अपदस्थ कर मसूरी के बार्लोगंज क्षेत्र में रखा गया था, जिसे आज देहरादून ज़िला कहा जाता है। उनके निवास स्थान को ‘बाला हिसार’( ऊंचा महल) कहा जाता था, जिसका नाम काबुल के एक पुराने क़िले के नाम पर रखा गया था। यहां वह दो साल तक रहा और स्वदेश वापस जाने की योजना बनाता रहा। इसी दौरान दोस्त मोहम्मद ख़ां के लोग बासमती चावल की अफ़ग़ान क़िस्म का बीज देहरादून घाटी लेकर आए, जो बाद में ‘देहरादून बासमती चावल’ के नाम से मशहूर हो गया।
इस बीच अफ़ाग़ानिस्तान में हालात बदतर होते जा रहे थे। शाह शुजा बहुत ही ज़ालिम इंसान था, जो छोटी-छोटी ग़लतियों पर लोगों के कान, नाक और हाथ-पैर कटवा देता था। इससे अत्याचार से तंग आकर अमीरों के एक वर्ग ने सन 1842 में उसकी हत्या कर दी। अफ़ग़ानिस्तान में अराजकता का माहौल था और ऐसे में अंग्रेज़ों ने दोस्त मोहम्मद ख़ां को काबुल वापस जाकर सत्ता संभालने की इजाज़त दे दी। दोस्त मोहम्मद ख़ां ने सत्ता संभाली और वह सन 1863 तक अफ़ाग़ानिस्तान का शासक बना रहा।
बार्लोगंज में दोस्त मोहम्मद ख़ां का निवास बाला हिसार बाद में वेनबर्ग एलन स्कूल बन गया।
मसूरी, महाराजा दिलीप सिंह (1838-1893) का अंतिम ठिकाना रहा था। वह लंदन रवाना होने के पहले, सन 1852-53 के बीच यहां रहे थे।
लेकिन देहरादून का अफ़ग़ानिस्तान के साथ संबंध यहीं समाप्त नहीं होते। सन 1870 के दशक में अंग्रेज़ साम्राज्य और शेर अली (दोस्त मोहम्मद ख़ां का पुत्र और उत्तराधिकारी) के बीच संबंध बिगड़ने लगे, जिसकी वजह से दूसरा एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध (1878-1880) हुआ। इस युद्ध में अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानिस्तान के काफ़ी हिस्सों पर कब्ज़ा कर लिया और शेर अली के पुत्र मोहम्मद याक़ूब ख़ां (1849-1923) को 26 मई सन 1879 को अफ़ग़ानिस्तान में गंदमक शहर में, अपमानजनक शर्तों पर संधि करनी पड़ी थी।
अंग्रेज़ों ने शेर अली को अपदस्थ कर उसके पुत्र मोहम्मद याक़ूब ख़ां (1849-1923) को भारत में निर्वासित कर दिया। अपने दादा की तरह मोहम्मद याक़ूब ख़ां भी अपने परिवार और नौकर-चाकरों के साथ सन 1879 में देहरादून में बस गया।
याक़ूब के साथ देहरादून आए, शाही अफ़ग़ान परिवार के वंशजों में से एक मोहम्मद असलम ख़ां ने एक निजी बातचीत में बताया कि याक़ूब के परिवार को देहरादून का ठंडा मौसम बहुत पसंद था, क्योंकि ये मसूरी के नज़दीक था। गर्मियों में याक़ूब और उनके सेनापति मसूरी चले जाते थे। सर्दियों में वापस देहरादून आ जाते थे और अपनी निशानेबाज़ी आज़माने के लिए शिकार करने जाते थे। देहरादून में सर्वे चौक के पास काबुल हाउस, पूर्वी कनाल रोड पर मकान और कर्णपुर पुलिस स्टेशन के अवशेष देखे जा सकते हैं। ये पुलिस स्टेशन याक़ूब का गार्ड रुम हुआ करता था। काबुल पैलेस, जहां याक़ूब के वंशज रहा करते थे, में सन 1962 में, मंगला देवी इंटर कॉलेज खोल दिया गया था ।
सन 1919 में अफ़ग़ानिस्तान के आज़ाद होने के बाद, कुछ अफ़ग़ानी वापस अपने वतन चले गए और कुछ देहरादून में रुक गए । याक़ूब के वंशज यहां की मुख्यधारा में घुलमिल गए और उन्होंने देहरादून और इसके आसपास कई ज़मीनें ख़रीदीं। बाद में ज्यादातर ज़मीनें सरकारी दफ़्तर और स्कूल बनाने के लिए राज्य सरकार को दान कर दी गईं।
भारत की आज़ादी के बाद भी अफ़ग़ानों का देहरादून के साथ क़रीबी संबंध जारी रहा। अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी की दादी ने अपनी शुरूआती ज़िंदगी देहरादून में गुज़ारी थी । सन 2015 में अपनी भारत-यात्रा के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बातचीत में उन्होंने कहा-
“मैं टैगोर की बात इसलिए करता हूं ,क्योंकि देहरादून में रहवेवाली मेरी दादी, मुझे टैगोर के बारे में बताया करती थीं।”
अफ़ग़ान शाही परिवार के वंशजों का घर होने के अलावा देहरादून आज भी अन्य अफ़ग़ान नागरिकों के लिए स्वर्ग की तरह है । भारत की स्वतन्त्रता के बाद, अफ़ग़ानिस्तान उन अफ़्रीकी-एशियाई देशों में से एक बना, जिसके सैन्य-छात्रों ने भारतीय सैन्य अकादमी (IMA) में दाख़िला लिया और यहां से प्रशिक्षित सैन्य अफ़सर बनकर निकले। सन 2019 में अफ़ग़ानिस्तान ऐसा देश बन गया जिसके सबसे ज़्यादा यानी 46 जवान ‘फ़ॉरेन जेंटलमैन कैडेट’ (विदेशी सैन्य छात्र) यहां से पास होकर निकले।
सन 2017 में, क्रिकेट खेलने वाले देश के रूप में, पूर्ण सदस्यता पाने के बाद अफ़ग़ान क्रिकेट टीम, खेल के विभिन्न रुपों (टेस्ट मैच, वनडे, टी20) में अपनी जगह बना रही है। अफ़ग़ानिस्तान की क्रिकेट टीम विभिन्न देशों में अभ्यास करती रही है। लेकिन देहरादून का राजीव गांधी इंटरनैशनल स्टेडियम उसका दूसरा घरेलू मैदान बन गया, जहां अफ़ग़ानिस्तान ने सन 2019-20 में बांग्लादेश और आयरलैंड क्रिकेट टीमों की मेज़बानी की।
इस तरह बासमती चावल से लेकर क्रिकेट तक, देहरादून, भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच एक ख़ास कड़ी बना रहा है।
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