दरिया-ए-नूर:रौशनियों का दरिया

वैसे भारत का सबसे मशहूर हीरा कोह—ए-नूर है वह एक ऐसा दिव्य-चरित्र है जो महात्वकांशा और परिकल्पना दोनों को समान रूप से झझकोर के रख देता है।लेकिन तेहरान में आपको, अपनी ख़ूबसूरर्ती से हैरान करनेवाला एक और हीरा यानी दरिया-ए-नूर देखने को मिल सकता है। यह हीरा तेहरान मे,सेंट्रल बैंक आफ़ ईरान के तेहख़ाने में रखा हुआ है। यह हीरा, दुनिया का सबसे बड़ा गुलाबी हीरा है। यह कोह-ए-नूर से भी ज़्यादा क़ीमती है।इसकी जड़ें भी भारत में ही हैं। इससे बढ़कर यह कि कोह-ए-नूर सिर्फ़ 105 कैरेट का है जबकि कोह-ए-दरिया 186 कैरेट का है।वह आकार में भी कोह-ए-नूर से दुगना है।

यह प्राकृतिक रूप से बना गुलाबी हीरा, एक नायाब हीरा है। सादे और बेरंग हीरों के मुक़ाबले इसकी क़ीमत कई गुना ज़्यादा होती है।इस बात को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। सन 2013 में 34.65 कैरेट का गुलाबी हीरा 39 मिलियन डालर यानी लगभग 200 करोड़ रूपये में बिका था।यह हीरा हैदराबाद के निज़ाम के पास था। जब 34.65 कैरेट के गुलाबी हीरे की क़ीमत इतनी हो सकती है तो, ज़रा अंदाज़ लगाई कि 186 कैरेट के गुलाबी हीरे की क़ीमत क्या होगी। फिर इसमें कोह-ए-दरिया के इतिहासिक महत्व की क़ीमत शामिल नहीं है।

कोह-ए-नूर और दरिया-ए-नूर दोनों हीरों के पूर्वज एक ही हैं।माना जाता है कि दोनों हीरे, गोलकुंडा की मशहूर खानों से निकाले गए थे। यह खानें, मौजूदा आंध्राप्रदेश में कृष्णा और गोदावरी नदियों के किनारों पर स्थित हैं।ऐसा लगता है कि दोनों हीरे, क़ुतुब शाही की राजधानी गोलकंडा से ही मुग़ल दरबार तक पहुंचे होंगे। इस हीरे का सबसे पहले ज़िक्र, जीन बैप्टिस्ट टवरनियर की पत्रिका में आया था। फ़्रासीसी रत्न-विज्ञानी जीन बैप्टिस्ट ने 17वीं सदी में भारत के कई क्षेत्रों की यात्रा की थी और उसने भारत में रत्नों के व्यापर के बारे में लिखा था।सन 1642 में प्रकाशित अपनी पत्रिका में उसने एक बड़े चोकोर गुलाबी हीरे के बारे में लिखा था जो उसने गोलकुंडा में देखा था और उसका नाम दिया था “ ग्रैट टेबल डायमंड”। यह हीरा गोलकुंडा से शाहजहां के ख़ज़ाने में पहुंच गया। कैसे पहुंचा यह किसी को पता नहीं है।

यह ग्रैट टेबल डायमंड यानी दरिया-ए-नूर सन 1739 में परशिया के शासक नादिर शाह के साथ ईरान पहुंचा। नादिर शाह दिल्ली से दरिया-ए-नूर के साथ कोह-ए-नूर और तख़्त-ए-ताऊस भी लूट कर ले गया था। नादिर शाह की मृत्यू के बाद यह हीरा दोबारा तराशा गया और दरिया-ए-नूर के नाम से ईरान के ख़ज़ाने में शामिल कर लिया गया।नसीर अल-दीन शाह क़ाजर( 1831-1896) को भी यह हीरा बहुत पसंद था। उसने इसका उपयोग बाज़ूबंद की तरह किया। वह इसे ग़लती से फ़ारस (ईरान) राजवंश स्थापित करनेवाले राजा साइरस की मिल्कियत मानता था। उसके बाद ईरान के अंतिम बादशाह, शाह आफ़ ईरान के पिता रज़ा शाह पहलवी( 1878-944) ने इसे सजावट की चीज़ मानकर अपने ताज पर लगा लिया था।

जब ग्रेट टेबल डायमंड को तराशा गया तो उसमें से एक छोटा टुकड़ा अलग कर दिया जिसे नूर-उल-ऐन हीरा कहा गया। नूर-उल-ऐन हीरा 60 कैरेट का है। दरिया-ए-नूर के बाद इसे दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गुलाबी हीरा माना जाता है।यह भी ईरानी हुकूमत के हीरों का हिस्सा है।सन 1958 में शाह रज़ा पहलवी की शादी के मौक़े पर इस हीरे को मल्का फ़राह दीबा के ताज पर ज़ड़ दिया गया था यह भव्य हीरा आज भी उनके ताज पर लगा हुआ है।

भारत में आज भी जेकब हीरा और निज़ाम के हीरे स्ट्रांग रूम में पड़े धूल चाट रहे हैं।लेकिन दरिया-ए-नूर और नूर-उल-ऐन हीरे जनता की नुमाइश के लिए रखे गए हैं।इन्हें इस्लामिक रिपब्लिक आफ़ ईरान की “राष्ट्रीय ज़ैवरात ख़ज़ाना” में देखा जा सकता है।

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