दर्शन विलास कोठी- अवधी और फ्रांसीसी वास्तुकला का शानदार नमूना

लखनऊ शहर का गौरवपूर्ण अतीत रहा है। आप यहां कई ऐतिहासिक स्मारक देख सकते हैं जिससे पता चलता है कि लखनऊ के लिए इनकी क्या अहमियत है। कभी भारत में 18वीं सदी के अंतिम वर्षों का सबसे संपन्न शहर लखनऊ प्रतिष्ठित स्मारकों, बाग़ों और महलों से भरा पड़ा है जो नवाबी दौर और अंग्रेज़ों के ज़माने के हैं। यहां मुग़ल, अवधी से लेकर औपनिवेशिक वास्तुकला के स्मारक हैं लेकिन यहां एक ऐसा भी स्मारक हैं जिसमें आप अवधी और फ्रांसीसी वास्तुकला का मिश्रण देख सकते हैं और ये स्मारक है शहर के बीचों बीच छिपा कोठी दर्शन विलास।

नवाब असाफ़उद्दौला (1775-1797) ने सन 1775 में फ़ैज़ाबाद को छोड़कर लखनऊ को अपनी राजधानी बना लिया था। इसी दौरान शहर में सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव की शुरुआत हुई थी।

उवध के पहले बादशाह नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर की मृत्यु के बाद, सन 1827 में उनके बेटे नवाब नसरउद्दीन हैदर अवध के शासक बने। नसीरउद्दीन हैदर ऐशो-आराम की ज़िंदगी के लियए जाने जाते थे और हमेशा अपने यूरोपीय दोस्तों से घिरे रहते थे । उन अंग्रेज़ों का उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर बहुत प्रभाव था। यही वजह थी कि उनके शासनकाल में अवध में यूरोपीय ज़िंदगी का असर नज़र आता था। नसीरउद्दीन हैदर अपना ज़्यादातर वक़्त औरतों के साथ बिताते थे और माना जाता है कि वह लापरवाह प्रशासक थे और इसीलिए रियासत और उसकी रियाया की हालत ख़राब हो गई थी। बहरहाल, सन 1837 में उनके अपने दोस्तों और प्रिय लोगों ने उन्हें ज़हर दे दिया था। उसी के के साथ ही उनके शासनकाल का अंत हो गया।

यूरोपीय रुचि से सराबोर नवाब नसीरउद्दीन हैदर की अंग्रेज़ी तौर-तरीक़ों और रहन सहन के लिए हमेशा आलोचना की जाती थी। उनकी यूरोपीय जीवन शैली की झलक तारावाली कोठी या दर्शन विलास महल में भी दिखाई देती है। तारावाली कोठी, जहां इंग्लैंड की ग्रीनविच वेधशाला की तर्ज़ पर बनवाई गई थी वहीं दर्शन विलास महल की वास्तुकला शैली यूरोपीय थी। दर्शन विलास महल क़ैसरबाग़ के फ़रहत बक्श परिसर में बनवाया गया था।

क़ैसरबाग़ परिसर में स्थित दर्शन विलास कोठी का निर्माण सन 1832 में शुरू हुआ और 1837 तक यह तय्यार हो गया था। ये कोठी इस मायने में आनोखी है कि इसमें विभिन्न वास्तुकला शैलियों का मिश्रण दिखाई देता है जो शहर के अन्य 3 महलों से से लिया गया है। ये महल नवाब की बेगमों के रहने के लिए बनवाया गया था और उस समय इसे क़ुदसिया महल के नाम से जाना जाता था । क़ुदसिया बेगम नवाब नसीरउद्दीन हैदर की पत्नी थीं।

दिलचस्प बात ये है कि यह महल उस समय लखनऊ के अन्य ऐतिहासिक भवनों की वास्तुकला शैली का मिश्रण है जिसकी वजह से ये अनोखा दिखाई पड़ता है। महल के तीन हिस्से जहां दिलकुशा महल, कोठी फ़रहत बक्श और मूसा बाग़ के प्रतिरुप हैं, वहीं चौथे हिस्से में इन तीनों की मिली-जुली झलक नज़र आती है। इसीलिए इस इमारत को चौरुख़ी कोठी के नाम से भी जाना जाता है। इस महल के शानदार गुंबद वास्तुशिल्पीय भव्यता के उदाहरण हैं।

लखनऊ के इतिहासकार रौशन तक़ी का कहना है, “पहले कोठी दर्शन विलास छोटी छत्तर मंज़िल का हिस्सा हुआ करती थी लेकिन छोटी छत्तर मंज़िल चूंकि अब नहीं है इसलिए जो कुछ बचा रह गया है वो चौरुख़ी कोठी ही है। सन 1858 में अवध में विद्रोह को कुचलने के बाद अंग्रेज़ो ने छत्तर मंज़िल के दो और लाल बारादरी के कुछ हिस्सों को छोड़कर फ़रहत बक्श या छत्तर मंज़िला परिसर के मुख्य हिस्से और पास की क़ैसर बाग़ इमारत को ढ़हा दिया था। साठ के दशक में छत्तर मंज़िल ढ़ह गई और इस तरह अकेला दर्शन विलास महल ही बचा रह गया।“

औपनिवेशिक शासनकाल के दौरान इस महल में इंजीनियर रहते थे और बाद में इसे उत्तर प्रदेश सरकार के मेडिकल स्वास्थ निदेशालय को आवंटित कर दिया गया। किसी समय उत्कृष्ट और अनोखी वास्तुकला के लिए मशहूर रही दर्शन विलास कोठी काफ़ी लंबे समय तक जर्जर हालत में रही और ये लगभग गुमनामी के अंधेरे में खोने ही जा रही थी कि हाल ही में सरकार ने इसे स्मार्ट सिटी परियोजना में शामिल कर लिया। सरकार ने क़ैसरबाग़ के स्मारकों को भी इस परियोजना में शामिल किया है।

आजकल इस भवन की मरम्मत का काम चल रहा है और इस तरह से ये महल बरबाद होने से शायद बच जाए और लखनऊ की समृद्ध विरासत का हिस्सा बना रहे। इसमें कोई शक़ नहीं कि दर्शन विलास शहर की वास्तुशिल्पीय वंशावली का एक हिस्सा है । आने वाली पीढ़ी की ख़ातिर, इसे देखने, जानने और शहर के गौरवपूर्ण अतीत को समझने के लिए हर क़ीमत पर सहेज कर रखा जाना चाहिए।

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