क्या आपने कभी सोचा है, कि भारत के छावनी वाले शहरों में कैसी-कैसी कहानियाँ दबी पड़ी हैं? हिमाचल प्रदेश के सोलन ज़िले में कसौली और धरमपुर के पास ऐसा ही एक शहर है दग़शाई, जहां ढ़ेरों कहानियां छिपी हुई हैं।
लोकप्रिय कथाओं में बताया गया है, ‘दग़शाई’ नाम दाग़-ए-शाही से बना है। अगर इसका शाब्दिक अनुवाद किया जाए, तो मतलब होता है “शाही दाग़”। मुग़ल, कुख्यात अपराधियों को यहाँ भेजते थे, तो उनके माथे पर एक निशान लगा होता था, जो सज़ा और शर्मिंदगी का प्रतीक माना जाता था। शायद ये निशान लोगों को चेतावनी देने के लिए होता था, कि जो लोग यहां लाये गये थे, उनका कभी भला नहीं हो सकता।
19वीं सदी में, भारत में बहुत तेज़ी से बदलाव हो रहे थे। अंग्रेज़ तपेदिक़ की बीमारी से पीड़ित लोगों के लिए एक अरोग्य आश्रम या सेहतगाह बनाना चाहते थे। सन 1847 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह ने पांच गांव दब्बी, बढ़तालिया, चुनवाद, जवग और दग़शाई दे दिये। अंग्रेज़ों ने इस काम के लिये दग़शाई को चुना, क्योंकि इसका स्थान सामरिक दृष्टि से तो सही था ही, इसके अलावा ये पांचों गांवों में सबसे बड़ा गांव भी था। इसके संस्थापक मगदला के लॉर्ड रॉबर्ट नेपियर थे, जिन्होंने पहले और दूसरे एंग्लो-सिख युद्धों के अलावा सन 1857 के विद्रोह में अहम भूमिका निभाई थी।
भारत को जब तक आज़ादी नहीं मिली थी, तब दग़शाई विद्रोह का गढ़ बन चुका था। सवाल यह है कि…ये हमें कैसे पता चला? ये जानने के लिये आपको बस दग़शाई सेंट्रल जेल देखने की ज़रुरत है, जो अब जेल संग्रहालय बन गया है। सन 1847-49 के बीच कभी बनी दग़शाई सेंट्रल जेल में अंग्रेज़ उन लोगों को रखते थे, जो उनका विरोध करने की जुर्रत दिखाते थे। 54 काल-कोठरियों में से 16 कोठरियों में उन लोगों को रखा जाता था, जिन्हें कड़ी-से-कड़ी सज़ा दी जाती थी। एक कोठरी में सिर्फ़ एक ही क़ैदी को रखा जाता था। 20 फ़ुट ऊंची छत वाली 8×12 की कोठरी में रहना बहुत मुश्किल होता था। इस कोठरी में हवा लगभग नहीं के बराबर आती थी, औऱ रौशनी भी नहीं होती थी। ऐसे हालात में रहने वाले क़ैदियों की मानसिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा होगा, इसके बारे में कई कहानियां सुनने में आती हैं।
सिर्फ़ यह कहने से कि सज़ाएं बेहद सख़्त हुआ करती थीं, उन भयानक यातनाओं की मुकम्मिल तस्वीर सामने नहीं आती थी। वहॉ लगी एक पट्टी का भी ज़िक्र मिलता है, जिस पर लिखा था “नॉवेल पनिशमेंट टेक्निक्स” यानी “सज़ा देने के नए तरीक़े”। उसमें यह बताया गया था, कि कथित अनुशासनहीनता के लिए कैसे-कैसे अमानवीय दंड दिये जाते थे, जैसे क़ैदी को कोठरी के दो दरवाज़ों के बीच खड़ा कर दिया जाता था। फिर दोनों दरवाज़ों को बंद कर दिया जाता था, और इस तरह क़ैदी घंटों तक दो दरवाज़ों के बीच खड़ा रहता, और उसे ज़रा भी आराम नहीं मिलता था।
इसमें कोई ताज्जुब नहीं, कि इसी जेल से प्रेरित होकर अंडमान जेल बनाई गई होगी जिसका निर्माण सन 1890 के दशक के अंत से 1900 के प्रारंभ में राजनीतिक क़ैदियों को रखने के लिये किया गया था। उस समय अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पूरे देश में आंदोलन चल रहे थे। वैसे सन 1857 के बाद, पूरे देश के राजनीतिक क़ैदियों को यहॉ लाकर रखा जाता था। एक तस्वीर के साथ जेल का वर्णन कुछ इस तरह किया गया है:
“सेंट्रल जेल आज भी इस बात की गवाह है, कि ब्रिटिश शासक अपने क़ानूनों को थोपने के लिए क्या क्या करते थे। सन1857 में कसौली, सुबाथू और जुतोघ में जब प्रसिद्ध नसीरी रेजिमेंट के गोरखा सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था, तब उस विद्रोह को कुचलकर कुछ गोरखा सैनिकों को सेना के गढ़ दग़शाई लाया गया था। उन्हें फांसी दिए जाने से पहले इसी जेल में रखा गया था।”
एक अन्य तस्वीर से अंग्रेज़ों की दिलचस्प मानसिकता का पता चलता है। अंग्रेज़ों को डर था कि गोरखा, सिख और अफ़ग़ान उनके शासन के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ सकते हैं, इसी डर की वजह से दगशाई को छावनी बनाया गया। एक छावनी बनाने का एकमात्र उद्देश्य पहाड़ी और पड़ोसी क्षेत्रों के सरदारों और शासकों के बीच संभावित ‘संकट पैदा करने वालों’ पर नज़र रखना था जो सामरिक दृष्टि से ज़रुरी भी था।
20वीं शताब्दी में तब एक महत्वपूर्ण मोड़ आया, जब इस छोटी-सी छावनी में तीन ऐतिहासिक घटनाएं हुईं। सन 1914 में बाबा गुरदित सिंह जापानी जहाज़ कोमागाटा मारू से कनाडा रवाना हुए। उनके साथ 350 सिख जो सभी सेना के पूर्व जवान थे, जो कनाडा (तब एक ब्रिटिश उपनिवेश) में बसना चाहते थे। गुरदित सिंह को कनाडा में नस्लवादी क़ानूनों के बारे में जानकारी थी। इन क़ानूनों के तहत वहॉ एशियाई मूल के लोगों के प्रवेश पर पाबंदी थी। वह इन क़ानूनों को चुनौती देना चाहते थे। जैसा कि अपेक्षित था, कनाडा सरकार को मालूम था, कि जहाज़ पर ग़दर पार्टी से जुड़े कई भारतीय राष्ट्रवादी लोग हैं, और उसने उन्हें कनाडा में उतरने की इजाज़त नहीं दी। जब वे कलकत्ता वापस आए, तो उनमें से कई को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद दंगे हो गए। अंग्रेज़ों ने गिरफ़्तारी को ये कहकर सही ठहराया, कि इन लोगों ने क़ानून तोड़ा है और ये सब ख़तरनाक राजनीतिक आंदोलनकारी हैं। जेल संग्रहालय की तस्वीरें में दिखाया गया है कि कैसे चार नेताओं को दग़शाई जेल में फांसी दी गई।
एक और भुला दिया गया अध्याय 23वीं घुड़सवार सेना के सिख सैनिकों की शहादत से जुड़ा है। 13 मई, सन 1915 को घुड़सवार सेना के सिख सैनिकों को उत्तर प्रदेश में युद्ध के मोर्चे पर रवाना किया गया था। इससे पहले वे नगांव छावनी (असम) में तैनात थे। रेलवे स्टेशन पर दफ़ेदार वाधवा सिंह का सामान गिर गया। उनके सामान के अंदर एक हथगोला रखा था, जो फट गया। इसकी वजह से अधिकारियों ने उनके सामान की गहन तलाशी ली, जिसमें और भी हथगोले मिले। फिर ग़दर पार्टी के साथ उनके संबंध भी उजागर हो गये। उसके बाद दगशाई में उन फौजियों का कोर्ट-मार्शल किया गया। इनमें से बारह को मौत की सज़ा सुनाई गई और फायरिंग दस्ते ने उन्हें गोलियों से भून दिया। इनमें से छह लोगों को अंडमान द्वीप भेजा गया था। के.एस.सरकारिया की किताब “द फॉरगॉटन शहीद ऑफ़ दगशाई” में इस बात की पुष्टि का गई है।
सन 1920 में एक और विद्रोह हुआ। सबसे बड़ी बात ये है, कि इस बार महात्मा गांधी ने स्थिति का जायज़ा लेने और एकजुटता दिखाने के लिए जेल में एक रात बिताई। चूंकि वे राष्ट्रवादी आंदोलन के एक बड़े नेता थे, इसलिये जेल में उनकी कोठरी बाक़ी कोठरियों की तुलना में बड़ी थी।
27 जून को पहला आयरिश विद्रोह जालंधर के ब्रिटिश बैरक में हुआ। विद्रोही कनॉट रेंजर्स की पहली बटालियन (“द डेविल्स ओन”) से थे। 200 मील दूर, सोलन स्थित रेजीमेंट का एक हिस्सा इसमें शामिल हो गया। इसका नेतृत्व 22 वर्षीय सैनिक जेम्स डेली कर रहा था। उसने अधिकारी के मेस के बाहर परेड करते हुए कहा, कि वह इनका नेता है और यह परेड “आयरलैंड में ब्रिटिश अत्याचारों के विरोध में है।” शुरु में विद्रोह शांतिपूर्ण रहा। क्योंकि प्रदर्शनकारी आयरिश राष्ट्रवादी गीत गा रहे थे।
मामला तब बढ़ गया जब दो आयरिश सैनिक स्मिथ और पीटर सियर्स मारे गए थे। इसके बाद 75 विद्रोहियों को दग़शाई जेल में क़ैद कर दिया गया,, जहां कठोर परिस्थितियों के कारण प्राइवेट जॉन मिरांडा की मृत्यु हो गई। सितंबर में विद्रोहियों का कोर्ट मार्शल किया गया, जहां चौदह को मौत की सज़ा दी गई और बाक़ी को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। बाद में 13 लोगों की मौत की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया।
2 नवंबर को, जेम्स डेली को फायरिंग दस्ते ने गोली से उड़ा दिया। अपनी मां को लिखे अंतिम पत्र में जेम्स डेली ने लिखा, “यह सब आयरलैंड के लिए है। मैं मरने से नहीं डरता।” उसके बाद,किसी सैन्य अपराध के लिए फांसी दिए जाने वाले ब्रिटिश सेना के अंतिम सदस्य के रुप में उनका नाम और अमर हो गया । उन्हें दग़शाई क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया था, लेकिन सन 1970 में उनके अवशेष आयरलैंड ले जाये गये, जहां उनका पूरे सैनिक सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया।
दग़शाई जेल के साथ गांधी के संबंध ख़त्म नहीं हुये, क्योंकि वह हमेशा वहॉ के क़ैदियों के साथ खड़े रहे। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा, कि बाद में महात्मा गॉधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को भी यहीं लाया गया था। कुछ दिनों बाद गोडसे को सन 1949 में अंबाला सेंट्रल जेल में ले जाया गया, जहां उनको फांसी भी दी गई थी।
दग़शाई को अब “क्लासिकी विक्टोरियाई टेल ऑफ़ लव एंड लॉस” की प्रसिद्ध चरित्र मैरी रेबेका वेस्टन की भटकती बेचैन आत्मा की डरावनी कहानी के लिए भी याद किया जाता है, जिसे यहॉ ‘मेम की क़ब्र’ के रूप में जाना जाता है। वो बात जो अमूमन नज़रअंदाज़ कर दी जाती है, वह यह है, कि कैसे ये छोटा-सा छावनी-शहर ऐतिहासिक घटनाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा बना गया।
दग़शाई सेंट्रल जेल की दीवारें आज भी मानव कुरुपता की दास्तां बयां करती हैं।
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