सन 1892 में इसी दिन दादाभाई नौरोजी ने वो कर दिखाया था जो असंभव था। वह बहुत मेहनत से, कांटे के मुक़ाबले में बहुत कम अंतर से चुनाव जीतकर ब्रिटिश संसद पहुंचे ते। 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में ग़रीब पारसी परिवार के एक युवक का बॉम्बे से लेकर लंदन तक का सफ़र दुश्वारियों से भरा रहा होगा। ब्रिटिश सम्राज्य के चरम पर लंदन के एक व्यापारी का भारतीयों के अधिकारों के लिये परचम लहराना, पूर्वाग्रहों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना और लंदन के एक चुनाव क्षेत्र से जीतकर ब्रिटिश संसद में पहुंचना किसी दुस्साहस से कम नहीं था। ये तो बस शुरुआत थी। इसके बाद वह स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों के सलाहकार बन गए और नौरोजी को “ग्रांड ओल्ड मैन आफ़ इंडिया” यानी भारत के पितामाह का ख़िताब मिल गया। महात्मा गांधी ख़ुद उन्हें राष्ट्र के पिता मानते थे।
नौरोजी का जन्म बॉम्बे (मुंबई) के एक ग़रीब पारसी परिवार में, 4 सितंबर सन 1825 में हुआ था। वह जब चार साल के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था और उनकी मां ने उन्हें बेहद ग़रीबी की हालत में पाला पोसा। उन्होंने एलफ़िंस्टोन इंस्टीट्यूट (अब एलफ़िंस्टोन कॉलेज) में दाख़िला लिया। वह पढ़ाई में बहुत होशियार थे। कामा एंड कंपनी का कामकाज देखने के लिये वह पहली बार सन 1855 में लंदन गए। कामा एंड कंपनी पहली भारतीय कंपनी थी जिसका लंदन में ऑफ़िस था। उन्होंने कामकाज बहुत अच्छे से संभाला और फिर दादाभाई नौरोजी एंड कंपनी नाम से कपड़े की अपनी ख़ुद की कंपनी खोल ली। दिलचस्प बात ये है कि कई तरह के कारोबार संभालने के साथ साथ वह सन 1856 और सन 1865 के दौरान लंदन में एक विश्वविद्यालय में गुजराती भाषा के प्रोफ़ेसर के रुप में पढ़ाने लगे थे।
लंदन में रहते हुए दादाभाई नौरोजी ने भारत में अर्थ व्यवस्था पर अंग्रेज़ शासन के प्रभाव के अध्यन में दिलचस्पी लेनी शुरू की।। दरअसल वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस तरफ़ ध्यान दिया। सन 1867 में उन्होंने “अर्थव्यवस्था का प्रवाह” का अपना सिद्धांत स्थापित किया जिसका अक्सर हवाला दिया जाता था। इस सिद्धांत में उन्होंने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था का पच्चीस प्रतिशत हिस्सा अंग्रेज़ हड़प जाते हैं और इसलिये भारत आर्थिक रुप से कमज़ोर होता जा रहा है। नौरोजी के सिद्धांत के अनुसार सन 1814 और सन 1845 के बीच,350 मिलियन स्टर्लिंग पौंड रक़म भारत से इंग्लैंड पहुंचाई जा चुकी है।
नौरोजी जितना अध्ययन करते गए उतना ही उन्हें लगने लगा कि इस मामले में भारत की आवाज़ सुनी जानी चाहिये। लंदन में उन्होंने लंदन इंडियन सोसाइटी और फिर ईस्ट इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की जिसने अंग्रेज़ साम्राज्य में भारतीयों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई।
सन 1885 में अंग्रेज़ साम्राज्य में इंडियन नैशनल कांग्रेस की स्थापना हुई जिसके संस्थापक सदस्यों में से एक नौरोजी भी थे। इसका उद्देश्य अंग्रेज़ साम्राज्य में भारतीयों को एक बड़ा मंच मुहैया कराना था। नौरोजी और इंडियन नैशनल कांग्रेस के अन्य सदस्यों का मानना था कि भारतीयों को अंग्रेज़ संस्थानों में शामिल होना चाहिये ताकि वे वहां आवाज़ उठा सकें। उसी साल नौरोजी ने तय किया कि लड़ाई लंदन तक लेकर लेजाई जाए, जहां चुनाव होने थे। सन 1885 में उन्होंने लिखा कि संसद (लंदन) में ही हमारी मुख्य लड़ाई लड़ी जानी चाहिये। उन्होंने चुनाव लड़ने की ठान ली थी और वह भारत से लंदन रवाना हो गए। उन्होंने लिबरल पार्टी के उम्मीदवार के रुप में सन 1886 में होलबोर्न चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। उनके पक्ष में 1950 जबकि विरोधी उम्मीदवार के पक्ष में 3651 वोट पड़े।
हार के बावजूद नौरोजी के हौसले पस्त नहीं हुए और न ही उनके ख़िलाफ़ नस्लवादी आलोचना ख़त्म हुई। प्रधानमंत्री लॉर्ड सैलिसबरी ने,अपने एक सार्वजनिक भाषण में कहा था कि अंग्रेज़ जनता अभी एक अश्वेत-व्यक्ति को चुनने के लिये तैयार नहीं हैं। लेकिन उम्मीदों के बरख़िलाफ़, इससे नौरोजी का संकल्प और मज़बूत हुआ।
नौरोजी के समर्थकों ने लिबरल पार्टी पर दबाव डाला कि उन्हें 1892 चुनाव में फिर लड़ाने का मौक़ा दिया जाए। इस बार वह लंदन के सैंट्रल फ़िन्सबरी क्षेत्र से चुनाव में खड़े हुए। वह कामगारों का इलाक़ा था, जिन्हें भारतीय कर्मचारियों की बदहाली का अहसास था और वह उनके हितेषी माने जाते थे।
नौरोजी के लिये बड़ी संख्या में भारतीयों और अंग्रेज़ों ने प्रचार किया। बड़ौदा के महाराजा सायाजीराव गायकवाड ने भी बड़ी आर्थिक मदद की। इस चुनाव को जितवाने में एक छात्र ने अपना पूरा दमख़म लगा दिया था जिसका नाम था मोहम्मद अली जिन्ना जो उस समय लंदन में पढ़ रहा था। जिन्ना के अलावा प्रसिद्ध बंगाली नेता चितरंजन दास नें भी नौरोजी के लिए चुनाव बहुत मेहनत की।
चुनाव में सिर्फ़ भारतीयों ने ही नहीं बल्कि स्थानीय लोगों ने भी मदद की। नौरोजी के समर्थकों में से एक प्रमुख समर्थक थीं फ़्लोरेंस नाइटिंगैल जिन्हें नर्सिंग का संस्थापक माना जाता था। नाइटिंगैल दादाभाई की पुरानी सहयोगी थीं और उनका मानना था कि ब्रिटिश संसद में भारतीयों की आवाज़ उठाने के लिये नौरोजी सबसे बेहतर व्यक्ति हैं। सन 1886 के चुनाव में उन्होंने नौरोजी के समर्थन में खुलकर प्रचार किया और उन्हें टिकट दिलाने के लिये भी लिबरल पार्टी में अपने संपर्कों का इस्तेमाल किया। नाइटिगेल ने चुनाव के दौरान भी नौरोजी की बहुत मदद की।
अंग्रेज़ और भारतीय दोस्तों तथा समर्थकों के प्रयासों से दादाभाई तीन वोट से चुनाव जीत गए। इस तरह वह ब्रिटिश संसद में पहले अश्वेत और पहले एशियाई सांसद बन गए। उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र के लोगों की ख़ूब सेवा की और लिबरल पार्टी के सिद्धांतो तथा चुनावी घोषणा-पत्र के वादों के प्रति वफ़ादार रहे। उन्होंने ब्रिटिश संसद में नारी मताधिकार, भारत में मानवाधिकार की स्थिति और दक्षिण अफ़्रीका में भारतीय मज़दूरों की स्थिति जैसे कई विषय उठाये। सन 1894 में गांधी जी ने उन्हें लिखा, “भारतीय लोग आपकी तरफ़ ऐसे ही देखते हैं जैसे बच्चे अपने पिता की तरफ़ देखते हैं। यहां लोग ऐसा ही मेहसूस करते हैं।”
सन 1895 और सन 1907 में दादाभाई ने चुनाव जीतने के दो प्रयास और किये लेकिन सफल नहीं हो सके।इसके बाद वह भारत लौट आए। भारत में वह, बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे अपने समकालीन नेताओं के साथ मिलकर, नेताओं की भावी पीढ़ी के गुरू बन गए। महात्मा गांधी और जिन्ना दोनों ही उनका बहुत सम्मान करते थे।
30 जून सन 1917 को, मुंबई के वरसोवा में, अपने निवास स्थान पर दादाभाई नौरोजी का 92 की उम्र में निधन हो गया। उन्हें ग्रांड ओल्डमैन आफ़ इंडिया के साथ ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का पितामाह भी कहा जाता है।।
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