दिल्ली से जब आप सोनीपत या उसके आगे के इलाक़ों की ओर जा रहे होते हैं, तो कश्मीरी गेट से थोड़ी दूर पर आपके बाईं ओर एक खुला मैदान दिखाई देता है। यहां आपको एक छोटा-सा बाग़, कुछ मूर्तियाँ और उनसे घिरा एक बड़ा स्तम्भ देखने को मिलेगा I इस मैदान के आसपास अक्सर बच्चे क्रिकेट खेलते हुए भी नज़र आएँगे।
दिल्ली के मॉडल टाउन में शान्ति स्वरूप त्यागी मार्ग पर बसा कोरोनेशन पार्क भारतीय इतिहास का वो भुला दिया गया पन्ना है, जहां पर अंग्रेज़ी हुकूमत के राज के साथ-साथ एक शहर के स्थापना की भी नींव रखी गई थी। कोरोनेशन पार्क को यहाँ पर आयोजित दिल्ली दरबार (सन 1877, 1903 और 1911) के लिए आज भी याद किया जाता है I
दिल्ली दरबार की शुरुआत
सन 1857 की क्रान्ति में फ़तह हासिल करने और आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के निधन के बाद, जब तत्कालीन महारानी विक्टोरिया की ब्रिटिश सरकार ने भारत की सत्ता अपने हाथ में ली थी, तब उसके उपलक्ष्य में एक शानदार समारोह करने की बात सोची गई, जिससे ब्रिटिश व्यवस्था और प्रशासन पर ग़ौर किया जा सके I हालांकि अंग्रेज़ों की राजनैतिक राजधानी कलकत्ता थी, मगर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इस समारोह के लिए दिल्ली को चुना गया। वह इसलिए कि प्राचीन काल से लेकर मुग़ल काल तक, दिल्ली को कई बार राजधानी का ताज पहनाया जा चुका था I तभी ताजपोशी समारोह का आयोजन दिल्ली में भारतीय शासकों के दरबारों की तर्ज़ पर मनाना तय हुआ।
बाद में इस स्थान पर अंग्रेज़ों के लिए मनोरंजन और खेल सहित कई कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाने लगा I इसी कारण, लाल क़िले से लेकर दरबार वाले इलाके तक, दिल्ली का क्षेत्रफल 30 स्क्वायर मील बढ़ दिया गया I दिल्ली के लाल क़िले, उसके आस-पास की छावनियाँ और सिविल लाइन्स क्षेत्र से दूर, ये समारोह एक खुले मैदान में आयोजित करने की बात जब तय हो गई, तो इस जगह का नाम कोरोनेशन पार्क रखा गया|
इस स्थान पर दरबार सजाने का एक और कारण ये था, कि इस जगह के क़रीब ही, रिज क्षेत्र में सन 1858 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बाग़ी सिपाहियों के ख़िलाफ़ जंग जीती थी, जिसके बाद भारत पर उनका सम्पूर्ण राज क़ायम हुआ था I
सन 1877 का पहला दिल्ली दरबार
यहाँ पहले दरबार का आयोजन सन 1877 में हुआ, जहां क्वीन विक्टोरिया को “भारत की महारानी” घोषित किया गया था I इस दरबार में अंग्रेज़ों के साथ-साथ, भारत के हर प्रान्त के शाही परिवारों के लोग भी शामिल हुए I हालांकि क्वीन विक्टोरिया समारोह में मौजूद नहीं थीं, मगर उनके सन 1858 के फ़रमान को तत्कालीन वाइसराय लार्ड लायटन ने पूरे भारत को एक ओप्निवेशिक व्यवस्था के भीतर रखने के दृष्टिकोण से सबके सामने सुनाया I साथ ही, क्वीन विक्टोरिया को क़ैसर-ए-हिन्द के खिताब से भी सम्मानित किया गया I
इस दरबार में करीब 70 हज़ार लोग मौजूद थे । समारोह में शामिल हुए हर भारतीय राजा-महाराजा को एक सोने के मैडल से नवाज़ा गया और हर भारतीय नागरिक से वादों के बारे में भी बताया गया, जो दुर्भाग्य से कभी पूरे नहीं हो पाए I
सन 1903 का दूसरा दिल्ली दरबार
सन 1903 और सन 1911 में आयोजित हुए दरबारों में एक बात समान थी, कि दोनों में राजसिंहासन पर नए राजाओं के बिठाने के उपलक्ष्य में दरबार सजाए गए I 1 जनवरी सन 1903 के दिल्ली दरबार का आयोजन इंग्लैंड के नए राजा एडवर्ड-VII के राज्याभिषेक की ख़ुशी मनाने के लिए किया गया था I भारत के तत्कालीन वाइसराय लार्ड कर्ज़न ने इस दरबार के लिए, लाल क़िले से लेकर कोरोनेशन पार्क तक तम्बूओं के साथ-साथ पानी, बिजली आदि की सुविधाएं उपलब्ध कराते हुए, इस समारोह पर एक डाक टिकट भी जारी किया था I
हालांकि किंग एडवर्ड इसमें शरीक नहीं हुए थे, मगर उनके भाई , ड्यूक ऑफ़ कनाट एंड स्ट्रेथर्न कार्यक्रम में ज़रूर शरीक हुए थे I इस दरबार में एक लाख लोग शामिल हुए थे। दरबार तक पहुँचने के लिए लार्ड कर्ज़न हाथी पर सवार थे, जो लाल क़िले से चांदनी चौक तक गया था फिर जामा मस्जिद का चक्कर लगाकर टाउन हॉल से होते हुए कोरोनेशन पार्क तक गया I
सन 1911 का तीसरा दिल्ली दरबार
सन 1911 का दिल्ली दरबार पिछले दो दरबारों से ज़्यादा शानदार और यादगार भी था I ये दरबार इंग्लैंड के नए राजा जॉर्ज-V के राज्याभिषेक के लिए सजाया गया था, जिसमें राजा और उनकी रानी ब्रिटेन से दिल्ली आए थे I 7 दिसम्बर से लेकर 16 दिसम्बर तक इस समारोह में शरीक होने के लिए जॉर्ज-V एक शाही ट्रेन द्वारा मुंबई से दिल्ली पहुंचे थे। इस दरबार के लिए तैयारियाँ एक साल पहले से ही शुरू हो गईं थीं I सिविल लाइन्स से लेकर मॉडल टाउन तक 80 स्क्वायर मील वाले क्षेत्र को पूरा साफ़ किया गया था, जहां बसे गाँवों को ध्वस्त करके, विशाल तम्बू लगवाए गए थे। यह सब इसलिए कि राजा और रानी को इसी रास्ते से गुज़रना था I इस इलाक़े को किंग्सवे कैंप का नाम दिया गया, जो आज गुरु तेग बहादुर नगर के नाम से जाना जाता है I व्यवस्था यह बनाई गई थी, कि दरबार की कार्रवाई के दौरान हर भारतीय राजा, इंग्लैंड के राजा के सामने आकर तीन बार सिर झुकाएगा और वापस जाने से पहले बिना मुड़े तीन क़दम पीछे जाएगा I
हैदराबाद के निज़ाम के बाद बारी थी महाराज सयाजी गायकवाड़-III की, जिन्होंने ऐसा करने की बजाए राजा के सामने आकर बिना झुके हँसते-हँसते पीठ दिखाई और चले गए | उनकी इस हरकत ने सबको हैरान कर दिया I कहा जाता है, कि इस हरकत के बाद महाराज से माफ़ी मंगवाई गई, उसी के बाद सन 1919 में उन्हें “नाइट ग्रैंड कमांडर” की उपाधि दी गई I लेकिन इस घटना ने, देशभक्ति की पहली चिंगारी जगा दी थी I
दरबार के अंत में, किंग जॉर्ज ने कलकत्ता के मौसम और बढ़ती राजनैतिक गतिविधियों के मद्देनज़र, भारत की राजधानी दिल्ली को बनाने की घोषणा की I तब तक अंग्रेज़ समझ गए थे, कि यह क़दम सामरिक दृष्टि से उनके लिए लाभदायक था, क्योंकि बेहतर शासन-प्रबंध के लिए और दिल्ली के ऐतिहसिक वजूद को मिटाने के लिए इससे बड़ा क़दम और कोई नहीं हो सकता I इस घोषणा के बाद, दिल्ली को नए सिरे से बनाने की नींव रखी गई । जिस स्थान पर जॉर्ज-V अपनी रानी के साथ बैठे थे, आज वहाँ एक विशाल स्तंभ है, जो ग्रेनाइट का बना हुआ है I ये स्तंभ चारों-ओर से सीढ़ियों से घिरा हुआ है Iइस स्तंभ के नीचे मूर्ति की चौखट पर लिखा है:
“12 दिसम्बर के दिन, यहाँ भारत के सम्राट जॉर्ज पंचम और उनकी महारानी ने सभी गवर्नर , राजकुमारों और लोगों को, 12 जून , 1911 को इंग्लैंड में सम्पन्न हुए अपने राजतिलक समारोह की घोषणा की और प्रजा से उनको अत्यधिक सम्मान प्राप्त हुआ.”
सन 1947 से लेकर सन 1960 के बीच ब्रिटेन के राजाओं और उनके उच्च अधिकारियों की मूर्तियाँ दिल्ली के राजनैतिक भवनों से हटाकर लाल बलुआ से बने मूर्तितलों के साथ कोरोनेशन पार्क में लगाईं जा चुकी हैं I
कई सालों तक यहां चोरियां होती रहीं और मूर्तियों को नुक़सान पहुंचाया गया। सन 2011 से सन 2017 तक दिल्ली विकास प्राधिकरण और इंटेक के सहयोग से इस पार्क को एक नया रूप दिया गया, जिसके तहत अब यहाँ बाग़ और कुछ नए स्थानों के निर्माण के साथ सिर्फ़ पांच मूर्तियों को लगाया गया है। एक वरिष्ठ अंग्रेज़ अधिकारी गाए फ़्लीटवुड , भारत में रहे वाइसराय हार्डिंग, इरविन और विलिंग्डन की मूर्तियों को अर्ध-गोलाकार तरीक़ से रखा गया है और बीच में जॉर्ज-V की विशाल मूर्ति रखी गई है |
जॉर्ज-V की इस मूर्ति का ज़िक्र मशहूर लेखक विलियम डैलरिम्प्ल ने अपनी किताब “सिटी ऑफ़ जिन्स”में किया है, जहां उसने इस मूर्ति को मिस्र के फ़ेरो और रोम के एक शासक की मूर्ति से मिलते-जुलते होने की बात कही है|
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