आम इंसान के इतिहास की खोज 

आम इंसान के इतिहास की खोज 

जब भी हम इतिहास के बारे में सोचते हैं, हमारे ज़हन में विशाल राजघरानों, राजाओं,रानियों, महलों और क़िलों की तस्वीरें ही उभर कर आती हैं लेकिन हमारा ध्यान उस समय के आम लोगों की तरफ़ जाता ही नही है। हम जब 1947 के बारे में सोचते हैं तो हमारे दिमाग़ में स्वतंत्रता संग्राम, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत, भारत का विभाजन और उन नेताओं के नाम आते हैं जिनकी नुमाइंदगी में आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी। उस समय आम लोग कैसे रह रहे थे, ये बात हमारे ज़हन में आती ही नही है। इसी दिशा में सिटीज़नस आर्काइव ऑफ़ इंडिया (CAI) इसी कमी को दूर करने की कोशिश कर रहा है।

हमारे दादा-दादी, नाना-नानी के पास इतिहास से जुड़ी कहानियों का भंडार होता है लेकिन अक्सर उन्हें इस बात का श्रेय नहीं मिलता । जबकि वे इसके सच्चे हक़ादार हैं। आज कई संग्रहालय, मौखिक इतिहासकार और अभिलेखागार इस ग़लती को सुधारने में लगे हैं और सिटीज़नस आर्काइव ऑफ़ इंडिया इन्हीं में से एक है।

सिटीज़नस आर्काइव ऑफ़ इंडिया की स्थापना व्यापारी और इतिहास में दिलचस्पी रखने रोहण पारिख ने आज़ादी की 70वीं वर्षगांठ के कुछ ही पहले की थी। इसकी स्थापना के पीछे उनका निजी अनुभव रहा है। पारिख पहली बार पिता बनने वाले थे तभी उनकी दादी का देहांत हो गया। इस दुखद घटना के बाद उन्हें मेहसूस हुआ कि हम एक पीढ़ि को खोते जा रहे हैं जिसके पास उनके समय की अनेक कहानियां हैं जो हमें मालूम होनी चाहिये। गुज़रे ज़माने की कहानियां को, भविष्य के लिए संजोने के मक़सद से ही इस अभिलेखागार की स्थापना 2016 में की गई।

सिटीज़नस आर्काइव ऑफ़ इंडिया में अभी बहुत कम लोग हैं, फिर भी वह, महज़ कुछ साल में वो 230 लोगों से बात-चीत कर चुके हैं और उस बातचीत की रिकॉर्डिंग 350 घंटे की है। इस छोटी सी टीम ने हिंदी, अंग्रेज़ी, गुजराती, तमिल, कच्छी और मराठी भाषा में लोगों के इंटरव्यू किए हैं। इस संस्था से 2017 में जुड़ने वाली मालविका भाटिया अभिलेखागार की निदेशक हैं।

सिटीज़नस आर्काइव ऑफ़ इंडिया की हार्लिंन होमन कमला भूषण के साथ | सिटीज़नस आर्काइव ऑफ़ इंडिया

सिटीज़न आर्काइव ऑफ़ इंडिया ने मौखिक इतिहास की प्रमाणिकता साबित करने के लिए उस बीते युग की तस्वीरें और अन्य सामग्री भी एकत्र की है। संस्था के पास ऐसी 1300 तस्वीरें और अन्य सामग्री है।

सिटीज़न आर्काइव ऑफ़ इंडिया ने हाल ही में मुंबई में एक प्रदर्शनी में अपनी कई कहानियों की नुमाइश लगाई थी। ये प्रदर्शनी केमोल्ड प्रेसकॉट रोड आर्ट गैलरी में 14 से 16 नवंबर तक आयोजित की गई थी। इस प्रदर्शनी का विषय ‘लाइफ़ ऐज़ दे न्यू इट: स्टोरीज़ फ्रॉम इंडियाज़ फ़र्स्ट सिटिज़न’ था जिसमें उस ज़माने के लोगों की कहानियों से रुबरु हुआ गया।

यो लोग आज़ाद भारत और लोकतांत्रिक देश के पहले आज़ाद नागरिक थे और जो संक्रमण काल के गवाह रहे हैं। प्रदर्शनी के दौरान लोगों ने इनकी ज़िंदगी के विभिन्न पहलुओं से जुड़े क़िस्से बहुत चाव से सुने।

डूंगरसी श्यामजी जोशी सिंध के गवर्नर के साथ | सिटीज़नस आर्काइव ऑफ़ इंडिया

ऐसा नहीं कि इन कहानियों या क़िस्सों का संबंध हमेशा राजनीति से हो बल्कि अधिकतर कहानियों का रिश्ता सीधे उनके निजी जीवन से है। इनमें उनके जन्म-स्थान, उनके जीवन की दिलचस्प घटनाएं, उनकी शिक्षा, शादी आदि के दिलचस्प वर्णन हैं।

संस्था की वेबसाइट पर आप इस तरह की ढ़ेरों दिलचस्प कहानियां देख-पढ़ सकते हैं। इस वेबसाइट पर संस्था ने तरह-तरह की कहानियां पोस्ट की हैं और यहां एक ऐसा भी सेक्शन है जहां आप संस्था से किसी व्यकति विशेष का तर्जुबा रिकॉर्ड करने का आग्रह कर सकते हैं।

आज़ादी की लड़ाई की अगुवाई करने वाले नेहरु, गांधी, पटेल, आंबेडकर और यहां तक कि जिन्ना भी आज किवदंतियां बन गए हैं लेकिन हम भूल जाते हैं कि आख़िरकार वे भी इंसान ही थे। संस्था द्वारा एकत्र की गई कुछ कहानियों से पता चलता है कि कैसे इन महान लोगों के जीवन का आम लोगों पर प्रभाव पड़ा।

मुंबई में 1937 में जन्मी आशा पात्रावालिस की कहानी भी इन्हीं में से एक है। उनके क़िस्से से पता चलता है कि कैसे देश के कुछ पढ़े-लिखे लोग भी पूर्वाग्रह और भेदभाव की भावना से ग्रसित थे। वह बताती हैं कि 1941 में डॉ. आंबेडकर उनके ससुर से मिलने घर आए थे जो धारवाड़ में कर्नाटक कॉलेज के प्रिंसिपल थे।

आशा जी के अनुसार ससुर डी.पी. पात्रावालिस डॉ. आंबेडकर के साथ बैठकर बातचीत कर रहे थे। इस बीच उन्होंने उनकी मां और पत्नी से चाय लाने को कहा लेकिन चाय नहीं आई। पात्रावालिस की मां ने आंबेडकर को उनकी जाति की वजह से चाय पिलाने से इंकार कर दिया था। इसके बाद आंबेडकर चले गए।

हम हालंकि अपने शहरी जीवन में जाति आधारित भेदभाव की अवधारणा को ख़ारिज करते रहते हैं लेकिन उस घटना से पता लगता है कि ये अवधारणा कैसे हमारे समाज में व्याप्त है और कैसे, डॉ. आंबेडकर जैसे नामी-गिरामी व्यक्ति को एक पढ़े-लिखे घर में भी पूर्वाग्रह से दो चार होना पड़ा था।

इस उपमहाद्वीप में मोहम्मद अली जिन्ना की स्थिति अजीब है। सीमा के एक तरफ़, जहां उन्हें खलनायक माना जाता है वहीं दूसरी तरफ़ वह नायक हैं। कराची में 1028 में जन्में जयंत शाह की कहानी सुनकर जिन्ना का एक मानवीय चेहरा सामने आता है। 1940 के दशक में जयंत शाह एक दिन जिन्ना का ऑटोग्राफ़ लेने उनकी एक रैली में गए। उन्होंने खादी के कपड़े पहने हुये थे और खादी महात्मा गांधी की पहचान थी। जिन्ना ने उन्हें खादी के लिबास में देखकर ऑटोग्राफ़ देने से न सिर्फ़ इनकार कर दिया था बल्कि इस तरह के पहनावे पर फटकार भी लगाई।

बहरहाल, फटकार खाने के बावजूद शाह अगले दिन फिर जिन्ना से मिलने उनके घर कुछ दोस्तों के साथ पहुंच गए और दिलचस्प बात ये रही कि वह तब भी खादी के कपड़े पहन हुये थे। लेकिन इस बार जिन्ना ने उनका गर्मजोशी के साथ स्वागत किया और सेब भी खिलाए। दोनों के बीच काफ़ी देर गुजराती में बातचीत हुई। इस कहानी से पता लगता है कि जिन्ना का सार्वजनिक और निजी जीवन के लिए अलग अलग चेहरा था।

शहरों में रहने वाली महिलाओं का पढ़ना-लिखना रोज़मर्रा की बात है लेकिन एक ज़माने में यह इतना आसान नहीं था। श्रीमती रविप्रभा बर्मन की कहानी से पता चलता है कि कैसे पढ़ी-लिखी महिलाओं को समाज में पूर्वाग्रह और भोदभाव का सामना करना पड़ता था, फिर भी श्रीमती बर्मन ने कॉलेज तक पढ़ाई की थी।

मथुरा में 1927 में जन्मी श्रीमती बर्मन का संयुक्त परिवार रुढ़िवादी था जहां छठी कक्षा के आगे लड़कियों को नहीं पढ़ाया जाता था। लेकिन श्रीमती बर्मन पढ़ाई में बहुत अच्छी थीं और पढ़ाई जारी रखना चाहती थीं। उनके परिवार के पुरुष और समाज उनकी पढ़ाई के ख़िलाफ़ था लेकिन उनकी मां और ताईजी ने उनका साथ दिया। श्रीमती बर्मन ने स्कूल की पढ़ाई पूरी की। तभी उनके स्कूल में ही कॉलेज खुल गया तो उन्होंने कालेज में दाख़िला ले लिया। उनके इस फ़ैसले से उनके समुदाय में हड़कंप मच गया और बड़े बुज़ुर्ग तो परिवार के बहिष्कार की बात करने लगे। यही नहीं उनके घर की दीवारों पर पोस्टर लगाकर बुरा भला भी कहा गया। लेकिन इसके बावजूद उनकी मां और ताई उनके साथ खड़ी रहीं हालंकि घर के बुज़ुर्ग इससे बेहद नाराज़ थे।

श्रीमती बर्मन के अनुसार घर के बुज़ुर्गों से पर्दा करने वाली उनकी मां बहुत दबंग थीं। वह बड़ों की बात सुन तो लिया करती थीं लेकिन अपनी बेटी का लगातार समर्थन भी करती रहती थीं। तमाम विरोधों के बावजूद श्रीमती बर्मन ने बनारस हिंदु विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. कर लिया था।

‘जनरेशन 1947’ प्रोजेक्ट की वजह से इस तरह की कई कहानियां और क़िस्से समाने आए हैं। इसके अलावा सिटीज़नस आर्काइव ऑफ़ इंडिया का एक और छोटा प्रोजेक्ट है ‘दिल्ली की खिड़की’। ये प्रोजेक्ट मौखिक इतिहासकार और विरासत-पेशेवर एकता चौहान के साथ मिलकर कर किया जा रहा है जो दिल्ली के खिड़की गांव की रहनेवाली हैं।

दिल्ली का खिड़की गांव  | विकिमेदिअ कम्मोंस 

दिल्ली आज भले ही देश का एक बड़ा महानगर बन गया हो, जो तेज़ी से और विकसित हो रहा है लेकिन इसके बावजूद दिल्ली शहर में आज भी कई गांव बसे हुए हैं। ये गाव लाल डोरा क्षेत्र में आते हैं। इन गांवों में एक पूरी दुनियां बसती है। कहा जा सकता है दिल्ली में आधुनिक और ग्रामीण दो तरह के शहर बसते हैं।

इन्हीं गांवों में एक है खिड़की गांव जो साउथ दिल्ली के साकेत क्षेत्र के क़रीब है। माना जाता है कि यह गांव,13वीं शताब्दी में बसा था। आज यहां किराये पर रहने वाले छात्र और युवा पेशेवरों की अच्छी ख़ासी संख्या है क्योंकि यहां किराया कम है। दूसरी तरफ़ गांव के युवा तेज़ी से अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। लेकिन गांव के बड़े-बुज़ुर्गों के पास ग्रामीण- जीवन और विकस्त होती दिल्ली के दिलचस्प क़िस्से हैं।

खिड़की गांव के नाथू राम भट्ट गांव और गांव के लोगों की वंशावली तथा इतिहास का लेखा-जोखा रखते हैं और उनकी कहानी बेहद दिलचस्प है। खिड़की गांव के ज़्यादातर लोगों के उपनाम चौहान हैं। भट्ट ने इसी गांव से संबंध रखने वाली और उनका इंटरव्यू कर रही एकता चौहान को बतायी है कि उनका उपनाम चौहान नहीं हो सकता क्योंकि उनका संबंध तो भाल वंश के सूर्यवंश राजपूतों से है । इसलिये उनका चौहान वंश से कोई लेना देना नही है। उन्होंने आगे कहा कि चौहान उपनाम वे राजपूत रखते थे जो गंगा और यमुना के बीच रहते थे और पृथ्वीराज चौहान से प्रेरित थे। अगर हम अपने अपने गांवों के रिकॉर्ड खंगाले तो पता नहीं अपने ख़ुद के बारे में क्या तस्वीर सामने आजाये।

लगभग 80 साल के खिड़की गांव के करतार सिंह के अनुसार वे लोग पहले चाय नहीं पीते थे लेकिन चाय की आदत अंग्रेज़ों ने डाल दी। उन्होंने बताया कि जब वह युवा थे तब दिल्ली में मान सिंह रोड/ तुग़लक रोड पर चाय के साथ मुफ़्त में बिस्कुट भी मिलते थे। वह अपने दोस्तों के साथ बस में बैठकर चाय पीने जाते थे ताकि फ़्री में बिस्कुट भी मिल सकें।

शुरु में संस्था ने लोगों से मिलने वाले सुझावों के आधार पर इंटरव्यू लिए थे लेकिन बाद में सोशल मीडिया पर लोग संस्था से संपर्क करने लगे। फ़िलहाल संस्था के पास ज़्यादातर कहानियां मुंबई और दिल्ली से हैं लेकिन अब अभिलेखागार में अन्य गांवों और शहरों के लोगों की भी कहानियां-क़िस्से शामिल करने के प्रयास हो रहे हैं। संस्था की वेबसाइट में एक ऐसी जगह भी है जहां कोई भी इंटरव्यू के लिए किसी व्यक्ति के नाम की सिफ़ारिश कर सकता है।

मौखिक इतिहास को एकत्र करना और उसे संरक्षित करना एक लंबी प्रक्रिया है। इसमें सिर्फ 30 प्रतिशत ही इंटरव्यू होते हैं। जिस व्यक्ति का इंटरव्यू हो रहा होता है, उसे सहज करने का प्रयास किया जाता है और उससे ऐसा कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता जिसका जवाब वो न देना चाहता हो। इंटरव्यू रिकार्ड करने के बाद उसे लिखा जाता है और अन्य भाषाओं में उसका अनुवाद होता है। इसके बाद इंटरव्यू का सार लिखा जाता है और “ “ की वर्ड्स “ के साथ नामावली बनाई जाती है ताकि लोग वेबसाइट पर इसे खोजकर पढ़ सकें।

यह कहानियां हमे अलग दौर में ही ले जाती हैं। कई बार यह बहुत छोटी होती हैं। कई बार इनमें भोलापन होता है।लेकिन वह होती महत्वपूर्ण हैं । संस्था द्वारा किये जा रहे इस काम से हमें अपने इतिहास को समझने में मदद मिलती है। इसीलिए इसके पहले कि ये कहानियां-क़िस्से समय के साथ खो जाएं, इनको रिकॉर्ड करना बहुत ज़रुरी है जो ये संस्था कर रही है।

सिटीज़नस आर्काइव ऑफ़ इंडिया की वेबसाइट :https://citizensarchiveofindia.org/

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