नाना चले घर से आगे, धीरे-धीरे चल के गए
मदिरा की दुकान में दोनों जाके बैठे,
नाना चले आगे-आगे, नानी गोइंग बिहाइंड
नाना ड्रिंकिंग वाइट रम एंड नानी ड्रिंकिंग वाइन
भारतीय मूल के, सूरीनाम के गायक सुंदर पोपो ने जिस संगीत शैली में इन पंक्तियों को अपना सुर दिया है, उसे चटनी संगीत के नाम से जाना जाता है। ये शैली भारतीय लोक संगीत, कैलिप्सो, सोका और नये बॉलीवुड गीतों का मिश्रण है। इस लोकगीत की कहानी कैरिबियन द्वीपों में पहुंचे भारतीय मज़दूरों के जीवन और समय से जुड़ी हुई है। यह मज़दूर 19वीं और 20वीं सदी में, रोज़ी-रोटी की तलाश में कैरिबियन द्वीप पहुंचे थे।
ऐतिहासिक रूप से देखें, तो चटनी संगीत कला, क्रांति और अभिव्यक्ति की एक समृद्ध बंदिश है, जिसे वर्षों से दुनिया भर में सराहा जाता रहा है, और जिसने हिंदी संगीत को लोकप्रिय बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
चटनी की कहानी सन 1830 के दशक में शुरू होती है, जब अंग्रेज़ों ने ग़ुलामी प्रथा को समाप्त कर दिया था, और अफ़्रीक़ी मज़दूरों को बाग़ानों से निकालकर, भारतीयों के लिए ठेका- मज़दूरी की व्यवस्था शुरू की थी। इन भारतीय मज़दूरों को त्रिनिदाद, टोबेगो, गुयाना और फिजी जैसे कैरिबियन और प्रशांत महासागर के दूर-दराज के द्वीपों में गन्ने और केले के खेतों में काम करने के लिये भेजा जाता था। सन 1860 के दशक में इस परंपरा का पालन करते हुये डचों ने भी दक्षिण अमेरिका में सूरीनाम जैसे अपने औपनिवेशिक देशों में भारतीय मज़दूरों को ले आये। इन मज़दूरों के साथ-साथ उनके गांवों की लोक-संस्कृति और लोक-गीत भी आये, जो उनकी पहचान का हिस्सा प्रमुख हिस्सा थीं।.
ब्राउन हिस्ट्री के एक पॉडकास्ट (इंटरनेट रेडियो) इंडो-कैरेबियन म्यूज़िक में ईस्ट इंडियन म्यूज़िक इन द वेस्ट इंडीज़ (1999) के लेखक पीटर मैनुएल बताते हैं, कि इन मज़दूरों में लगभग 85 फ़ीसदी मज़दूर किसान परिवारों से आये थे, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी क्षेत्र से थे। इनमें से कुछ मज़दूर पेशेवर संगीतकार थे, जबकि कुछ को संगीत के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी थी। उनके पास रागों और कुछ लोक गीतों से संबंधित गीतों की किताबें भी होती थीं।
कुछ समय बाद भारतीय मज़दूरों को अपमान और शोषण का शिकार होना पड़ा। वे ग्रामीण क्षेत्रों में दयनीय स्थिति में रहते थे, और उन्हें निर्धारित समय से ज़्यादा समय तक काम करना पड़ता था। इस तरह उनका शोषण होने लगा। इन कठिनाइयों ने उन्हें एकजुट किया जहां उन्होंने लोक, भक्ति और स्थानीय शास्त्रीय गीत में अपने दुखों और तकलीफ़ों को ज़ाहिर किया। इस तरह बयानिया “बिरहा” और “बैठक गीत” की शुरुआत हुई। कई विद्वानों का दावा है, कि चटनी संगीत का आधार यह था।
लेकिन कई विद्वानों का दावा है, कि इस संगीत का मर्म सामयिक, पारंपरिक और शास्त्रीय गीतों में छुपा हुआ था। महिलाएं जहां विवाह, जन्म और त्योहार के मौक़े पर देसी गीत गाती थीं, वहीं पुरुष, शास्त्रीय और पारंपरिक गीत गाते थे, जिसमें क़व्वाली और क़सीदे भी शामिल कर लिये गये थे। ये राग वो नहीं थे, जो ये मज़दूर अपने देश में गाया करते थे, बल्कि इन रागों में कई तब्दीलियां भी की गई थीं। इस तरह गायन का एक नया रूप तैयार हुआ, जिसमें गीत को तैयार करने के लिये राग में बदलाव किये जाते थे।
जैसे-जैसे पलायन होता गया, संगीत शब्दावली में, लोक गीतों और धार्मिक गीतों की पुस्तिकाएं शामिल होने लगीं। बाद के वर्षों में इन प्रवासों के दौरान प्रसिद्ध बिहारी कवि महेंद्र मिश्रा की कविताओं पर धुनें बनने लगीं, जिनमें दर्द और अलगाव का मर्म होता था और जो ठेका- मज़दूरों के बीच लोकप्रिय हो गईं थीं। ये गीत आज भी सुने जा सकते हैं, जिनमें गिरमिटिया मज़दूर (ठेका मज़दूर के लिए स्थानीय शब्द) की भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है।
सन 1917 में जब ठेका-मज़दूरी ख़त्म कर दी गई, और भारतीय मज़दूरों को बाग़ानों से निकालकर उन्हें ज़मीन दे दी गई, जहां ज़्यादातर मज़दूर ख़ुद, या फिर साझेदारी में चावल की खेती करने लगे। इससे पूर्वी भारतीयों के लिए समाज में एक तरह के अलग तबक़े बन गये। उनका संगीत और संस्कृति ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित रहा। हालांकि सन 1940 के दशक तक इन गीतों की कोई आधिकारिक रिकॉर्डिंग नहीं थी, लेकिन फिर भी कहा जा सकता है, कि संगीत की ये मौखिक परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही थी।
सन 1950 के दशक के अंत में कहीं जाकर रामदेव चैतो और द्रुपति जैसे सूरीनाम के संगीतकारों ने अपना संगीत रिकॉर्ड करवाना शुरु किया। रामदेव ने जहां धार्मिक गीत गाये,वहीं द्रुपति ने शादी के गीत गाये। इन गीतों का हर ट्रैक ऐसा था, जिस पर डांस किया जा सकता था। पहली बार ऐसा इंडो-कैरिबियन संगीत पैदा हुआ, जो न तो भारतीय था और न ही यूरोपीय/अमेरिकी शैली का था।
सन 1960 के दशक में त्रिनिदाद को दो प्रोमोटरों शाम और मोईन मोहम्मद ने अपने रेडियो कार्यक्रमों में रामदेव और द्रुपति से गीत गवाये। यह पहली बार था, जब संगीत की इस शैली की पहचान के लिए ‘चटनी’ शब्द गढ़ा गया। इन भाइयों ने इस संगीत को भारतीय रेडियो शो में और सार्वजनिक नृत्यों के ज़रिये प्रचारित किया। इन दोनों विधाओं की वजह से उनका रुतबा बढ़ गया।
लेकिन सन 1969 में एक और मोड़ तब आया, जब मोईन ने युवा कलाकार सुंदर पोपो का गाना रिकॉर्ड किया, जिसने अपने संगीत में पश्चिमी गिटार और इलेक्ट्रॉनिक्स को पहली बार शामिल करके संगीत को आधुनिक बनाया। उन्होंने “नाना और नानी” शीर्षक से एक गाना रिकॉर्ड किया, जो एक बुज़ुर्ग इंडो-त्रिनबागोनियन जोड़े और उनके हास्यपूर्ण नटखट हरकतों के बीच रोमांस का वर्णन करने वाला एक गीत था, जिसे सभी लोगों ने बहुत पसंदा किया। सुंदर ने ये गाना हिंदी और अंग्रेज़ी बोली में गाया था ,जिसमें पारंपरिक वाद्य-यंत्रों का उपयोग किया था, जिसकी वजह से लोगों को ये आसानी से समझ में आ गया। उनके इन गानों की वजह से उन्हें चटनी संगीत का बादशाह कहा जाने लगा।
सन 1960 और सन 1970 में जब कैरेबियन प्रशांत द्वीप समूह औपनिवेशिक बंधनों से मुक्त होने लगे, तब भारतीय मूल के कई लोग अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और नीदरलैंड जैसे देशों में चले गये, जहां से चटनी संगीत दुनिया में फैलने लगा। कई अप्रवासी भारतीयों ने अपनी खुद की रिकॉर्ड कंपनियां खोल लीं, जो सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त थीं। उन्होंने न्यूयॉर्क और टोरंटो जैसे प्रमुख शहरों में नाइट क्लब भी खोले, जिन्होंने विदेश में चटनी संगीत को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
चटनी संगीत के इतिहास के साथ एक दिलचस्प पहलू भी जुड़ा हुआ है। सन 1950 के दशक से नृत्य भी इसका हिस्सा बन गया, जहां पुरुष नयी चटनी धुनों पर नृत्य करते थे। बाद में अधेड़ महिलाएं भी इन धुनों पर नृत्य करने लगीं। हालांकि वे अपने वतन से दूर थे, लेकिन फिर भी वहां की रूढ़िवादिता का प्रभाव यहां भी दिखने लगा। धार्मिक संगठन पुरुषों और महिलाओं का एक साथ नृत्य करना ठीक नहीं मानते थे, और उन्होंने चटनी गीतों को कामुक और धर्मविरेधी घोषित कर दिया। इसके बावजूद सन 1970 के दशक में पुरुषों और महिलाओं के एक साथ नृत्य करने की परंपरा लोकप्रिय होती गई, जिसकी वजह से चटनी ब्रास फ़ेस्टिवल और चटनी-सोका मोनार्क जैसे समारोह बड़े पैमाने पर होने लगे, जो आज भी बहुत धूमधाम से आयोजित किये जाते हैं।
चटनी संगीत सिर्फ़ पार्टियों, शादियों या समारहों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि यह सामाजिक जागरूकता पैदा करने और पूर्वी भारतीयों की कठिनाइयों को समझने में भी समान रूप से सहायक बना। उदाहरण के लिए सन 1970 के दशक के अंत में निशा बेंजामिन के “ओ’मनिंगा” ने गुयाना में राजनीतिक और आर्थिक स्थिति के साथ-साथ शकर-क्षेत्र (सुगर एस्टेट) में काम करने और रहने वाली एक महिला की कठिनाइयों का भी वर्णन किया।सन 1980 के दशक के उत्तरार्ध में द्रुपति रामगूनाई ने अपना एकल “पेपर पेपर” गीत बनाया, जहां उन्होंने एक पूर्वी भारत की गृहिणी होने की कठिनाई का वर्णन किया। इस हास्यपूर्ण गीत में वह कहती है कि कैसे वह अपने पति से बदला लेने की योजना बना रही हैं, क्योंकि शादीशुदा जीवन में, पति की बेरुख़ी ने, उसे पागल कर दिया है।
सन 1980 और सन 1990 के दशक में चटनी संगीत में सोका की एक अनूठी शैली जुड़ी, जो पारंपरिक वेस्ट इंडियन कैलिप्सो और अमेरिकन रिदम और ब्लूज़ के मिश्रण से बनी शैली से प्रेरित थी। इसके नतीजे में चटनी संगीत में भारतीय सोका या चटनी सोका की शैली का मिश्रण हुआ, जिसमें स्टील पैन और सिंथेसाइज़र, और यहां तक कि, इलेक्ट्रिक गिटार का कैलिप्सो प्रभाव शामिल था।
ज़्यादातर गीत वेस्ट इंडियन क्रियोल (इंग्लिश, फ़्रैंच, पुर्तगाली और स्थानीय भाषा) में गाये जाते थे जिनमें थोड़े बहुत हिंदी के शब्द भी हुआ करते थे। इसके बाद मूल चटनी संगीत शैली में अन्य विधाओं को जोड़ा गया, और इसमें नये संगीत वाद्य यंत्रों का समावेश किया गया। इससे राग चटनी, चटनी-भांगड़ा, चटनी हिप-हॉप और सोका-भांगड़ा सहित संगीत की अन्य उप-शैलियां बनीं।
जैसे-जैसे कैरिबियन द्वीप समूह और अन्य देशों में रिकॉर्डिंग स्टूडियो खुलने लगे, चटनी संगीत भारत में भी लोकप्रिय होने लगा। इसका प्रभाव कई इंडी-पॉप गीतों और हाल के दिनों में, कई लोकप्रिय भोजपुरी और हिंदी फ़िल्मों में देखा गया। इनमें प्रमुख हैं ‘दबंग-2’ (2012) का ‘द चटनी सॉंग’ और ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ (2012) का ‘आई एम ए हंटर’ गीत।
आज, चटनी संगीत लोगों में बहुत लोकप्रिय है। आदेश समरू, रवि बी और रिक्की जय जैसे कलाकारों ने वतन से दूर रहते हुये भी अपने पूर्वजों की, तीन सौ साल पहले शुरू हुई परंपरा को ज़िंदा रखा हुआ है।
मुख्य चित्र: गिरमिटिया मज़दूर, अपने बैठक गीत के दौरान – प्रोजेक्ट गटेनबर्ग
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