यह एक छोटे से मेडिकल स्कूल के रूप में शुरु हुआ था जिसमें सिर्फ़ चार विद्यार्थी थे। वही स्कूल देखते देखते, महिलाओं का मेडिकल कॉलेज बन गया। उन दिनों महिलाओं के लिये चंद ही मेडिकल कॉलेज थे। यह उनमें से एक था। और आज ये एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज है। उत्तर-पश्चिम दिल्ली से क़रीब 300 कि.मी. दूर पंजाब के लुधियाना शहर में क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज एक सौ साल से ज़्यादा पुराना है। सन 1894 में स्थापित ये कॉलेज भारत में मेडिकल मिशनरियों, ख़ासकर अंगरेज़ डॉक्टर और शिक्षक डॉ. एडिथ मेरी ब्राउन के प्रयासों से बना था।
इस कॉलेज का इतिहास जानने के पहले हमें लुधियाना का इतिहास और मेडिकल मिशनेरियों के काम को समझना होगा। लुधियाना शहर की स्थापना दिल्ली सल्तनत के लोधी वंश के समय हुई थी। सिकंदर लोधी (1489-1517) के दो प्रमुखों- यूसुफ़ ख़ान और निहंग ख़ान को लुधियाना भेजा गया था तब उसे मीर होटा कहा जाता था। यूसुफ़ ख़ान सतलुज नदी को पार कर सुलतानपुर में बस गए।
निहंग ख़ान ने मीरा होटा को बसाया और उसे लुधियाना या लोधियों के शहर का नाम दिया। कहा जाता है कि लुधियाना शब्द लोधी-आना का अपभ्रंश है।
निहंग ख़ान के पोते जलाल ख़ान के शासनकाल में शहर ख़ूब फलाफूला लेकिन सन 1526 में मुग़ल बादशाह बाबर ने लोधी वंश का तख़्ता पलट दिया। उस समय लुधियाना भी मुग़ल साम्राज्य के अंतर्गत आ गया था। मुग़लों ने पंजाब के सरहिंद में एक सशक्त शासन क़ायम कर दिया और लुधियाना को उसमें एक महल अथवा परगने के रुप में शामिल कर लिया।
मुग़लों के पतन के बाद सन 1760 में लुधियाना पर राजपूत शासकों रायों का कब्ज़ा हो गया। यहां कुछ समय तक राय शासकों ने शासन किया और सन 1806 में सिख साम्राज्य के महाराजा रणजीत सिंह ने अंतिम राय शासक की पत्नी भागभरी से शहर और लुधियाना के क़िले का क़ब्ज़ा लेकर पंजाब में जिंद के राजा भाग सिंह को दे दिया। लेकिन सन 1809 में महाराजा रणजीत सिंह और अंगरेज़ों के बीच अमृतसर संधी हुई जिसके तहत सतलुज नदी को सीमा माना गया। इस तरह उत्तर की तरफ़ के क्षेत्र महाराजा के और दक्षिण वाले क्षेत्र अंगरेज़ों के हो गए। संधी के तहत लुधियाना अंगरेज़ हुक़ुमत का हिस्सा हो गया। शहर के सामरिक महत्व को देखते हुए इसे छावनी के रुप में विकसित किया गया।
सन 1843 में अंगरेज़ों ने लुधियाना में आठ गांवों को मिलाकर इसे राजस्व ज़िला बना दिया। लेकिन सन 1849 में अंगरेज़ों ने पूरे पंजाब पर कब्ज़ा कर लिया और लुधियाना ज़िला बनाया गया। इसे अंगरेज़ों ने अपना मुख्यालय बनाकर इसका विस्तार किया। हालंकि सन 1857 की बग़ावत का असर लुधियाना पर भी काफ़ी पड़ा लेकिन इसके बाद ये शहर एक विकसित क्षेत्र के रुप में उभरने लगा।
18वीं और 19वीं शताब्दी में क्रिश्चियन मिशनेरियों ने भारत में सामाजिक, ख़ासकर शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के मामले में काफ़ी योगदान किया। सुधार के साथ साथ क्रिश्चियन मिशनेरियों ने अपने धर्म का भी प्रचार किया लेकिन उन्होंने महिला शिक्षा तथा पश्चिम की तर्ज़ पर स्वास्थ सेवा पर भी ध्यान दिया। सन 1880 के दशक के बाद विदेश से काफ़ी संख्या में क्रिश्चियन मिशनेरियां एशिया आईं। इनमें से ज़्यादातर भारत आए थे। उन्होंने शिक्षा तथा चिकित्सा को बढ़ावा दिया और अनाथालय, बुज़ुर्गों के लिये घर और कान्वेंट स्कूल आदि के विकास के लिए काम किया । अंगरेज़ों के भारत और पंजाब के संयुक्त प्रांतों के शहरों में ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़े यूरोप के लोगों की स्थानीय समितियों को मिशनेरी सोसाइटी में बुलाया जाता था ।
19वीं शताब्दी और 20वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में पश्चिमी देशों की महिला डॉक्टरों की कोशिशों से भारत में कुछ बहुत अच्छे मिशन अस्पताल और मेडिकल शैक्षिक संस्थान खुले। इन महिला डॉक्टरों ने मातृक स्वास्थ व्यवस्था को बेहतर बनाया और नर्सों तथा अन्य मेडिकल स्टाफ़ को ट्रेनिंग दी। सन 1849 में अंगरेज़ों द्वारा प्रांत पर कब्ज़े के बाद सन 1851 में क्राइस्ट मिशन सोसाइटी ने पंजाब में काम शुरु कर दिया। लेकिन महिलाओं के लिये काम किया ज़नाना बाइबिल और मेडिकल मिशन तथा चर्च ऑफ़ इंग्लैंड ज़नाना मिशनेरी सोसाइटी ने। ज़नाना बाइबिल एवं मेडिकल मिशन की सारह हेवलेट ने अम़तसर में काफ़ी काम किया। उन्होंने सेंट कैथरिन अस्पताल की स्थापना की जिसमें महिलाओं के लिये छह बिस्तर होते थे। इसके अलावा उन्होंने सन 1884 में सहायक के रुप में भारतीय युवतियों की ट्रेनिंग देनी शुरु की।
लेकिन लुधियाना में मेडिकल मिशनेरी का काम स्कॉटलैंड की मिशनेरी बहनों- रोज़ ग्रीनफ़ील्ड और के ग्रीनफ़ील्ड ने शुरु किया। ये दोनों बहनें सन 1874 में भारत आई थीं। रोज़ ग्रीनफ़ील्ड ने लुधियाना ज़नाना मिशन की स्थापना की। मुख्य रुप से उनका काम ज़नाना की महिलाओं को पढ़ाना और बच्चों के लिये स्कूल खोलना होता था। लेकिन स्वास्थ की ख़राब सुविधा को देखते हुए उन्होंने स्वच्छता पर ज़ोर देते हुए आम बीमारियों का इलाज शुरु कर दिया हालांकि मेडिकल क्षेत्र में उन्हें कोई ट्रेनिंग हासिल नहीं थी। सन 1881 में उन्होंने छोटे छोटे स्कूल खोले और एक कमरे का दवाख़ाना बनाया। बाद में उन्होंने शेर्लोट नाम का दस बिस्तरों वाला एक अस्पताल खोला।
बाद में रोज़ ग्रीनफ़ील्ड की भेंट डॉ. एडिथ मेरी ब्राउन से हुई और उन्होंने लुधियाना में एक मेडिकल कॉलेज खोलने में उनकी मदद की। डॉ. ब्राउन का जन्म इंग्लैंड में कम्बरलैंड के व्हाइटहेवन नामक स्थान में 24 मार्च सन 1864 में हुआ था। उन्होंने 1886-91 के दौरान गिर्टन, कैम्ब्रिज से साइंस की डिग्री ली और फिर महिलाओं के लंदन स्कूल ऑफ़ मेडिसिन तथा रॉयल फ़्री हॉस्पिटल, लंदन से मेडिकल की पढ़ाई पूरी की। सन 1891 में एडिनबर्ग में उन्हें रॉयल कॉलेज ऑफ़ फ़िजीशियन्स और सर्जन का लाइसेंस मिल गया। सन 1891 में ब्रुसेल्स से प्रसूति विज्ञान और स्त्रीरोग विज्ञान में विशेषज्ञता हासिल करने के बाद उन्हें फ़ेलो ऑफ़ द रॉयल कॉलेज ऑफ़ सर्जरी, इंग्लैंड (FRCSE) जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित किया गया।
सन 1891 में बैपटिस्ट मिशनेरी सोसाइटी के तहत डॉ. ब्राउन को भारत भेजा गया था। यहां आने के बाद सन 1891-92 के बीच उन्होंने लुधियाना में शेर्लोट अस्पताल में बतौर डॉक्टर इंचार्ज काम किया। इसके बाद उन्होंने दिल्ली के पास पलवल जैसे गांवों में बतौर डॉक्टर काम किया। गांवों में काम करने के दौरान उन्हें कई मुश्किलों और ख़राब परिस्थितियों का सामना करना पड़ा जिसका महिलाओं के स्वास्थ पर बुरा असर पड़ रहा था। पलवल में उन्होंने देखा कि महिलाएं मेडिकल कर्मचारियों के बजाय स्थानी हकीमों और दाईयों पर ज़्यादा भरोसा करती थीं। वहां प्रशिक्षित महिला मेडिकल कर्मचारी न के बराबर थीं और पुरुष डॉक्टरों से प्रसव या अन्य स्त्री रोग का इलाज करवाने को लेकर महिलाओं में हिचक थी। लुधियाना वापस लौटने पर डॉ. ब्राउन को जब शिशु जन्म के जटिल मामले मिले तो उन्होंने इन मौक़ों को ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार कर लिया।
डॉ. ब्राउन ने जब यहाँ पहली सर्जरी की तब उनकी मदद के लिये कोई प्रशिक्षित व्यक्ति नहीं था और उन्हें सर्जरी अकेले ही करनी पड़ी। डॉ. ब्राउन के समय में लुधियाना आने वाली लेखिका एम. एडिथ क्रास्क ने अपनी किताब “ सिस्टर इंडिया ” में लिखा है-“उनके पास एक भारतीय लड़की को लाया गया जिसका फ़ौरन ऑपरेशन होना था लेकिन वहां कोई ऑपरेशन थिएटर नहीं था। ऑपरेशन के लिये क्लोरोफ़ार्म देना ज़रुरी था लेकिन कोई अनेस्थिटिस्ट भी नहीं था। कोई प्रशिक्षित नर्स भी नहीं थी और लड़की की ज़िंदगी का सारा दारोमदार ऑपरेशन पर निर्भर था। ऐसी स्थिति में एक कोने को साफ़ कर चारों तरफ पर्दे लगाए गए। साथ की एक मिशनेरी को लगा कि वह क्लोरोफ़ॉर्म दे सकती है, बशर्ते वह ऑपरेशन न देखे। इस तरह दो लड़कियों ने महिला मरीज़ के चेहरे के आगे पर्दे की तरह टॉवेल पकड़ लिया ताकि वह ऑपरेशन न देख सके। डॉ. ब्राउन को बीच बीच में अनाड़ी अनेस्थिटिस्ट को निर्देश देने पड़ रहे थे। बहरहाल, ऑपरेशन सफल रहा और लड़की ठीक हो गई।”
दूसरे शहरों में भी मेडिकल सेंटरों में ऐसी स्थिति देखकर डॉ. ब्राउन को प्रशिक्षित महिला सहायकों की ज़रुरत मेहसूस हुई। आगरा और लाहौर जैसे शहरों में भी मेडिकल स्कूलों में माहौल लड़कियों की अच्छी पढ़ाई के लायक़ नहीं था। मेडिकल स्कूलों में पुरुष छात्रों और शिक्षकों की संख्या ज़्यादा थी जिसकी वजह से छात्राएं और उनके परिजन असहज मेहसूस करते थे। लड़कियों को, मरहम पट्टी का काम करनेवाले क्लिनिकल क्लर्क या ड्रेसर्स जैसे पदों पर भी काम करने की इजाज़त नहीं थी।
दिल्ली में बैपटिस्ट मिशन स्कूल से मदद लेने की कोशिश करने के बाद डॉ.ब्राउन ने ख़ुद ही महिलाओं को ट्रेनिंग देने का बीड़ा उठा लिया। उन्होंने दिसंबर सन 1893 में महिला मेडिकल मिशनेरियों का एक सम्मेलन आयोजित किया। तीन दिवसीय सम्मेलन में पंजाब, दिल्ली औऱ राजपूताना की सात मिशनेरी सोसाइटियों की 14 महिला प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। सन 1894 में चर्च ऑफ़ इंग्लैंड ज़नाना मेडिकल सोसाइटी (CEZMS) ने एक प्रस्ताव पारित कर योग्य मेडिकल महिलाओं द्वारा लड़कियों और महिलाओं को प्रशिक्षित करने का एक कॉलेज खोलने को मंज़ूरी दे दी। इस कॉलेज का किसी धर्म विशेष से कोई संबंध नहीं था। मिशनेरी सोसाइटी और अपने दोस्तों से वित्तीय सहायता लेने के बाद डॉ. ब्राउन ने सन 1894 में लुधियाना में नॉर्थ इंडिया स्कूल फ़ॉर मेडिसिन फ़ॉर क्रिश्चियन वीमेन खोला जिसे आज हम क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के नाम से जानते हैं।
कॉलेज के लिये लुधियाना को इसलिये चुना गया क्योंकि वहां पहले से ही मिशनेरी ज़नाना का केंद्र था और रोज़ ग्रीनफ़ील्ड ने शेर्लोट अस्पताल का काम भी स्कूल को सौंप दिया था। कई कमरों वाले एक ख़ाली भवन में स्कूल की स्थापना हुई। एडिथ क्रास्क लिखती हैं, “जब स्कूल खुला तब वहां चार मेडिकल छात्र थे और दवा देने वाले दो व्यक्ति थे। स्टाफ़ में प्रिंसपल डॉ. एडिथ ब्राउन और अमेरिकन प्रेसबायटेरियन मिशन के दो डॉक्टर थे। ये दोनों डॉक्टर भारत आए थे और यहां की भाषा सीख रहे थे। वे रोज़ एक घंटे छात्रों को पढ़ाते थे। ग्रीनफ़ील्ड के एक डॉक्टर खजांची के काम के साथ साथ दवा देने वाले दोनों व्यक्तियों को दाई का भी काम सिखाता था।” शेर्लोट अस्पताल छात्रों के प्रशिक्षण का केंद्र बन गया था। पांच साल बाद चारों छात्र परीक्षा देने लाहौर गए और चारों के चारों पास हो गए।
बहुत जल्द कॉलेज की पहचान बनने लगी। पढ़ाई अंगरेज़ी भाषा में होती थी लेकिन दाई का कोर्स उर्दू में होता था। पढ़ाई के दौरान मूल्यों और सिद्धांतों पर ज़ोर दिया जाता था और बाइबिल का पाठ रोज़ होता था। कुछ ही सालों में परिसर में डिस्पेंसरी और एक बड़ा अस्पताल बन गया औरअलग-अलग मिशनेरियों से वित्तीय दान भी मिलने लगा। सन 1904 में सरकार ने कॉलेज को वार्षिक अनुदान देना शुरु कर दिया। डॉ. ब्राउन ने ख़ुद भी दाईयों को ट्रेनिंग देने का कार्यक्रम चलाया।
सन 1912 में कॉलेज का नाम बदलकर वीमेन्स क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज कर दिया गया। सन 1915 में महिला मेडिकल छात्राओं को गवर्मेंट मेडिकल कॉलेज लाहौर से लुधियाना भेज दिया गया और कॉलेज के दरवाज़े ग़ैर क्रिश्चियन लड़कियों के लिये भी खोल दिए गए। कॉलेज का ख़र्चा अनुदान और चंदे से चलता था। डॉ. ब्राउन अमीर पंजाबी परिवारों का इलाज करती थीं और इससे होने वाली आय से भी मदद मिलती थी। वह मलेरकोटला और जिंद जैसी रियासतों की रानियों का भी इलाज करती थीं जो कॉलेज के रखरखाव में वित्तीय रुप से मददगार साबित होता था।
डॉ. ब्राउन के कुशल नेतृत्व में कॉलेज बुलंदियों पर पहुंचा। ये मेडिकल छात्रों, नर्सों, दाईयों और औषधिवितरण स्टाफ़ की ट्रेनिंग के बड़े केंद्रों में से एक बन गया। पूरे उत्तर भारत में अस्पताल को मिस ब्राउन अस्पताल के नाम से जाना जाता था। सन 1952 में एक बार फिर कॉलेज का नाम बदलकर क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज कर दिया गया। यहां अब लड़के और लड़कियों के लिये एमबीबीएस के कोर्स शुरु हो गए थे। इस कोर्स में पहला दाख़िला सन 1953 में शुरु हुआ था।
सन 1931 में डॉ.ब्राउन को डेम कमांडर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पायर की उपाधि से सम्मानित किया गया। सन 1942 में सेवानिवृत्ति के बाद वह कश्मीर जाकर रहने लगीं। कुछ समय तक बीमार रहने के बाद छह दिसंबर सन 1956 को, 92 साल की उम्र में, श्रीनगर में उनका निधन हो गया।
लुधियाना में आज क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज का एक विशाल परिसर है और इसे मेडिकल कौंसिल ऑफ़ इंडिया से मान्यता भी प्राप्त है। यहां मेडिकल साइंसेज़ में पूर्वस्नातक, स्नाकोत्तर और चिकित्सक के कोर्स हैं। एक संस्थान के रुप में इसने शहर में मेडिकल मिशनेरियों के कामों और डॉ. एडिथ मेरी ब्राउन के महान योगदान को आज भी संजो कर रखा हुआ है।
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