चाइल्ड-वार – जब अंग्रेज़ों को झुकना पड़ा

दौलत के धनी, महत्वकांक्षा तथा लालच से घिरी चालाक ईस्ट इंडिया कंपनी ने 200 साल तक इस महाद्वीप के समृद्ध संसाधनों को लूटा। इसीलिए शहंशाह के सामने सूट-बूट वाले अंग्रेज़ों का, घुटने के बल झुककर माफ़ी मांगने की कल्पना करना असंभव लगता है। लेकिन ये सत्य है । चाइल्ड-वार, पहला एंग्लो-इंडियन युद्ध था, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। ये युद्ध अंग्रेज़ हार गए थे।

अंग्रेज़ों की शर्मनाक हार 17वीं शताब्दी के आरंभ में हुई थी जिसका असर पूरे महाद्वीप पर पड़ा था। शाहजहां के निधन के बाद मुग़ल साम्राज कमज़ोर पड़ने लगा था और स्थानीय आदिवासी और मराठा, जाट तथा रोहिल्ला जैसे समुदाय सिर उठाने लगे थे। इस दौरान डच, फ़्रैंच, पुर्तगाली और अंग्रेज़ जैसी यूरोपीय शक्तियां व्यापार पर कब्ज़े के लिए एक दूसरे से लड़ रहीं थीं।

इस लड़ाई में अंग्रेज़ बाद में कूदे । इसके पहले वे पश्चिमी भारतीय तटों के कुछ हिस्सों से ही व्यापार कर रहे थे वो भी मुग़लों की देखरेख में। लेकिन अब वे भारत में पांव जमाना चाहते थे। दूसरी तरफ़ पुर्तगाली भारत के पूर्वी तट ख़ासकर हुगली में व्यापार से बेतहाशा कमाई कर रहे थे। इसे देख ईस्ट इंडिया कंपनी ने सन 1682 में विलियम हेजेस को औरंगज़ेब के मामू और बंगाल के मुग़ल सूबेदार शाइस्ता खां से मिलने भेजा। कंपनी चाहती थी कि सूबेदार शाही फ़रमान जारी करके, कम्पनी को पूरी मुग़ल सल्तनत में व्यापार करने की इजाज़त दे। लेकिन इजाज़त नहीं मिली। हेजेस ये भी चाहता था कि सूबेदार सोने के आयात पर लगने वाला कर बंद करें क्योंकि कंपनी को आयात के लिए कर के रुप में सोना देना पड़ता था।

इस मसले पर कंपनी के लंदन स्थित मुख्यालय में ज़ोरदार बहस हुई और लंदन में कंपनी के गवर्नर सर जोसिया चाइल्ड, जो बॉम्बे के गवर्नर और सूरत के प्रेसीडेंट थे, ने मामले की बागडोर अपने हाथों में ले ली। अंग्रेज़ों के तेवर देखकर औरंगज़ेब ने ग़ुस्से में बातचीत बंद कर दी।

चाइल्ड इस तरह की फटकार का आदी नहीं था और चिढ़कर उसने औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने का फ़ैसला किया। कुछ साल बाद सन 1685 में अंग्रेज़ों ने मुग़ल जहाज़ों पर हमले शुरु कर दिए। ये जहाज़ व्यापार वाले भी थे और वो भी थे जिनमें लोग हज के लिए मक्का जाते थे। दंभी चाइल्ड ने औरंगज़ेब को ये कहकर धमकी दे डाली कि “वो उसे अपने पाद से उड़ा देगा।”

लेकिन ये तो बस एक शुरुआत थी। कंपनी ने चिट्टगांव के बंदरगाह पर कब्ज़ा करने के लिये, वहां के अमीर ज़मींदारों को अपनी तरफ़ मिलाने, टकसाल लगाने और अरेकैन से संधि के लिए एडमिरल निकोल्सन को जॉब शरनॉक के साथ चिट्टगांव भेजा। मुग़लों ने चट्टगांव से अरेकैन छीना था। निकोल्सन जंगी जहाज़ों का बेड़ा, गोला-बारुद और 600 अंग्रेज़ तथा 400 स्थानीय सैनिकों को लेकर मद्रास से रवाना हो गया।

लेकिन क़िस्मत निकोल्सन के साथ नहीं थी जहाज़ों का बेड़ा तेज़ हवाओं और समंदर में उफ़ान की वजह से टूट गये और जहाज़ चिट्टगांव की बजाय हुगली पहुंच गए।

अंग्रेज़ों के हुगली पहुंचने से शाइस्ता ख़ान चौकन्ना हो गया । हालंकि उसने बातचीत की पेशकश की लेकिन बातचीत टूट गई। बंदेल के बाज़ार में तीन अंग्रेज़ सैनिकों और मुग़ल अधिकारियों के बीच झड़प हो गई थी और निकोल्सन ने अपने सैनिकों को स्थानीय लोगों पर गोली चलाने के आदेश दे दिए। इसके  बाद क़रीब 500 मकान नष्ट हो गए या जला दिए गए और कई लोग हताहत हो गए।

बातचीत का दौर चलता रहा और मुग़लों ने, जो समंदर की जगह ज़मीन पर ज़्यादा शक्तिशाली थे, इस समय का इस्तेमाल जमा होने और जहाज़ों को सुरक्षित करने में इस्तेमाल किया। इस बीच कंपनी के जहाज़ के कमांडर शेरनॉक अपने सैनिकों के साथ इंगलीस द्वीप लौट गया। दलदल से उत्पन्न महामारी में शेरनॉक के आधे सैनिक मारे गए।

सन 1688 में अरब सागर में अंग्रेज़ अपने जहाज़ों से मुग़ल जहाज़ों पर हमले करते रहे। इस बार कैप्टन हीथ बालासोर पहुंचा। उसने शहर पर बमबारी करके पूरे शहर को नष्ट कर दिया। उसने चिट्टगांव पर भी बमबारी करने की कोशिश की लेकिन पुख़्ता क़िलेबंदी की वजह से वह ऐसा नहीं कर सका और वापस मद्रास लौट गया।

औरंगज़ेब को इसी वक़्त का इंतज़ार था। उसने उपमहाद्वीप में अंग्रेज़ों की सभी संपत्तियों को ज़ब्त करने का आदेश दे दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी के पास सिर्फ़ बॉम्बे और मद्रास में व्यापार संबंधी ऑफ़िस रह गए।

इसके बाद औरंगज़ेब ने अंग्रेज़ों के ताबूत में आख़िरी कील ठोक दी। सन 1689 में उसने जंजीरा में सिद्दी एडमिरल याक़ूत ख़ान को बम्बई में अंग्रेज़ों के बंदरगाह पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया। अंग्रेज़ों पर दोहरी मार पड़ी-एक तो नाकाबंदी एक साल चली और महामारी में सैकड़ों लोगों की जानें चली गईं।

कंपनी ने आख़िरकार हार मान ली और माफ़ी मांगने और मुआवज़ा भरने के लिए अपने दूत औरंगज़ेब के पास भेजे। उन्होंने भविष्य में तमीज़ से पेश आने की भी बात की! लेकिन हम सब जानते हैं कि कंपनी ने इस शर्मनाक हार से कोई सबक़ नहीं सीखा। सन 1690 में शरनॉक ने कलकत्ता शहर बनाया और पलासी के युद्ध के बाद सन 1757 में अंग्रेज़ों ने बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया।

यह बात सबको पता है, कंपनी ने इस शर्मनाक हार से कोई सबक़ सीखने के बजाय उसका बदला लेनी की ठान ली थी । सन 1690 में शरनॉक ने कलकत्ता शहर बनाया और सन 1757 में अंग्रेज़ों ने पलासी के युद्ध के बाद बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद हुई हर घटना ने ईस्ट इंडिया कंपनी को और शक्तिशाली बनाया और उसकी जीत के क़सीदे पढ़े गए लेकिन चाइल्ड की शर्मनाक पराजय लोगों के ज़हन से न जाने कब ग़ायब हो गई।

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