कर्नाटक में आज कूर्ग एक हिल-स्टेशन के रूप में प्रसिद्ध है। वो कॉफ़ी बाग़ानों के लिए भी जाना जाता है। यहाँ कभी हलेरी साम्राज्य का शासन होता था, जिसने 17वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी के मध्य तक राज किया था। हम पंजाब के अंतिम महाराज दलीप सिंह के लंदन में निर्वासन के बारे में तो जानते हैं, लेकिन कम ही लोगों को पता है, कि कूर्ग के अंतिम राजा चिक्का वीरा राजेंद्र भी अपना राज्य वापस पाने और अपनी बेटी के सुरक्षित भविष्य की लड़ाई लड़ने लंदन गये थे।
उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लंदन में क़ानूनी लड़ाई लड़ी भी थी। उनकी बेटी को बाद में महारानी विक्टोरिया ने अपनी ‘दत्तक’ पुत्री बना लिया था, जिसका नाम विक्टोरिया गौरम्मा रखा गया था।
कर्नाटक में 17वीं शताब्दी के दौरान कूर्ग के हलेरी एक राजवंश के रूप में उभरे। आठवें राजा दोड्डा वीर राजेंद्र (1780-1809) ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी से हाथ मिला लिया, क्योंकि दोनों की हैदर अली और उसके बेटे टीपू से दुश्मनी थी। इसी तरह तीसरे एंग्लों-मैसूर युद्ध (1790-1792) के बाद हलेरी राजवंश अंग्रेज़ों का संरक्षक बन गया। उसने चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध (1799) के दौरान टीपू सुल्तान के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों के अभियान में कंपनी के सैनिकों को अपने राज्य से गुज़रने में भी मदद की। लेकिन अपने पड़ोसी से मुक्ति पा लेने और राज्य को अच्छी तरह से चलाने के बावजूद कूर्ग के गौरवशाली दिन ज़्यादा नहीं चल पाये। मई सन 1807 में दोड्डा की रानी महादेवम्मा की मृत्यु हो गई, जिसकी वजह से दरबार में उथल-पथल मच गई। इस दौरान शाही परिवार के कुछ सदस्यों को दोड्डा ने या तो मरवा दिया या फिर ग़ायब करवा दिया।
दोड्डा का छोटा भाई लिंगा राजा-द्वितीय, पहले तो भागने में सफल रहा था, लेकिन दो साल बाद सन 1809 में वापस आ गया। उसने दोड्डा की बड़ी बेटी देवम्माजी से सत्ता छीन ली। देवम्माजी ने अपने पिता के बाद राज गद्दी संभाली थी। लिंगा ने नौ वर्षों तक शासन किया और इस दौरान परेशानियों का, बदइंतिज़ामी का और दुश्मनी का बोल-बाला रहा। सन 1820 में लिंगा की मौत के बाद चिक्का वीर राजेंद्र तख़्त पर बैठा लेकिन हालात और बदतर हो गये। वह न केवल ऐश-ओ-आराम में डूबा रहता था, बल्कि उन लोगों को सज़ा भी देता था और मार भी देता था, जो उसे नाराज़ करते थे, या उसके रास्ते की रुकावट बनते थे। अपने राज्य की महिलाओं के प्रति उसके रवैये को कोई पसंद नहीं करता था। चिक्का ऐसे लोगों को भी मरवा देता था।
चिक्का ने देवम्माजी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे लिंगा ने घर में नज़रबंद कर रखा था। लेकिन वह अपने पति चिन्ना बसवा के प्रति वफ़ादार थी। देवम्माजी ने एक रात वहां तैनात पहरेदारों को नशीली दवा पिला कर बेहोश कर दिया और कूर्ग से भागने में सफल रही। लिंगा के कुछ सैनिकों को मारने के बाद देवम्माजी और उसके पति ने कंपनी के संरक्षण में मैसूर में शरण ले ली। बाद में इन्हीं संबंधो की वजह से अंग्रेज़,कूर्ग पर क़ब्ज़ा करने में कामयाब रहे।
सन 1834,कूर्ग के लिए एक निर्णायक वर्ष साबित हुआ । उसी साल जनवरी में, मद्रास के गवर्नर सर एफ़.एडम ने चिक्का को पत्र लिखकर चेतावनी दी और अच्छी सरकार चलाने के तौर-तरीके भी समझाए। इसके अलावा मैसूर में अंग्रेज़ अफ़सर जे.ए. कैसामेजर ने राज्य में सुधार लागू करने के लिए चिक्का से मुलाक़ात की। लेकिन दोनो कोशिशों के बावजूद चिक्का का रवैया नहीं बदला। इस वजह से अंग्रेज़ों ने मामला अपने हाथों में लेकर कूर्ग पर हमला करने का फ़ैसला किया। फ़रवरी सन 1834 में ब्रिगेडियर जनरल लिंडसे के नेतृत्व में 7 हज़ार सैनिक कूर्ग रवाना हो गये। लगभग दो महीने तक चली लड़ाई ,6 अप्रैल सन 1834 को समाप्त हुई। अंग्रेज़ों ने मदिकेरी क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया, और इस तरह लगभग दो शताब्दियों तक शासन करने वाले हलेरी राजवंश का अंत हो गया।
आत्मसमर्पण के बाद, चिक्का को, 24 अप्रैल सन 1834 को उसकी पत्नियों और रखेलों के साथ वेल्लोर (तमिलनाडु) और फिर वहां से उन्हें वाराणसी भेज दिया गया। फ़रवरी सन 1841 में उनकी पांचवीं बेटी गौरम्मा का जन्म हुआ। उसके जन्म के दो दिन बाद ही उसकी मां यानी चिक्का की पत्नी पट्टादरानी देवम्माजी की मृत्यु हो गई। वाराणसी में चिक्का को, क़रीब 14 साल तक,12 हज़ार पाउंड की मासिक पेंशन मिलती रही।
मई सन 1852 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौज़ी की सलाह पर चिक्का अपनी दो पत्नियों ,ग्यारह साल की बेटी गौरम्मा और क़रीबी दोस्त डॉ विलियम जेफ़रसन के साथ कंपनी के ख़िलाफ़ मुक़दमा करने, अपनी रियासत वापस लेने और गौरम्मा के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए इंग्लैंड चला गया। वह पहले, एक रात के लिये, साउथेम्प्टन के एक होटल में ठहरा और अगले दिनलंदन रवाना हो गया। लंदन पहुंचने के बाद वह मै डैहिल वेस्ट इलाक़े में रहने लगा। चिक्का और उसके परिवार के लंदन पहुंचने के एक महीने बाद चिक्का ने अपनी बेटी गौरम्मा की ईसाई धर्म की दीक्षा और अंग्रेज़ों द्वारा शिक्षा दिलवाये जाने के लिये अपील की, जो 30 जून सन 1852 को स्वीकार कर ली गई। बेटी को कैंटरबरी के प्रधान पादरी ने लंदन के बकिंघम पैलेस में ईसाई धर्म की दीक्षा दी। इस मौक़े पर महारानी विक्टोरिया भी मौजूद थीं। गौरम्मा का नाम ‘विक्टोरिया गौरम्मा’ रखा गया।गौरम्मा को बाद में महारानी विक्टोरिया ने अपने दत्तक बच्चों में शामिल कर लिया। कुछ दिनों बाद, गौरम्मा की तरह ही भारतीय शाही परिवार का एक और सदस्य वहां शामिल हुआ, जो पंजाब का महाराज दलीप सिंह था!
अंग्रेज़ शाही परिवार का साथ मिलने से चिक्का ख़ुद को मज़बूत महसूस करने लगा और उसने कंपनी के ख़िलाफ़ एक बड़ी अदालत में मुक़दमा कर देवम्माजी के लिए उसके चाचा दोड्डा के विरासत के रूप में निवेश किए गए 7 लाख रुपये की वसूली की मांग की। उसने सन 1799 में टीपू सुल्तान के ख़िलाफ़ अंतिम युद्ध के दौरान दोड्डा की उपलब्धियां भी गिनवाईं। इस युद्ध में दोड्डा ने अंग्रेज़ों की मदद की थी। चिक्का ने चिन्ना की गिरफ़्तारी की भी मांग की, जिसे वह अपराधी मानता था। उसने चिन्ना पर उसके सैनिकों को मारने और फ़रार होने का आरोप भी लगाया। अंग्रेजों ने चिन्ना की गिरफ़्तारी की मांग ख़ारिज कर दी, क्योंकि वह तब कंपनी के संरक्षण में आ चुका था। चिक्का ने दावा किया, कि कंपनी ने उसके महल पर जबरन कब्जा किया था, और उसकी संपत्ति हथिया ली थी। चिक्का ने एक लाख, 80 हज़ार पाउंड वापस करने की मांग भी की। अधिकारियों को संबोधित एक पत्र में उसने पूरे सम्मान के साथ उसका साम्राज्य उसे वापस करने का अनुरोध किया।
लेकिन सन 1858 में तब चीज़ें चिक्का के हाथों से निकल गईं, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के प्रशासन की बागडोर ब्रिटिश सरकार को सौंप दी। इसके अलावा कूर्ग अब धीरे-धीरे ब्रिटिश शासन के अनुकूल बनता जा रहा था। सरकारी अधिकारियों से आने वाली सूचनाओं से चिक्का अंग्रेज़ो के खिलाफ़ हो गया था । इस तरह उसके द्वारा दायर मुक़दमों का सकारात्मक नतीजे आने की संभावना भी ख़त्म हो गई थी। इस बीच उसकी सेहत ख़राब होने लगी, और 24 सितंबर सन 1859 को चिक्का की मृत्यु हो गई। उसके शरीर को केंसल ग्रीन क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया था। उसकी पत्नियां सन 1859 के अंत तक वाराणसी वापस आ गईं थीं, और मृत्यु तक वहीं रहीं। गौरम्मा की शादी बाद में एक ब्रिटिश अधिकारी से हो गई, जो उससे 30 साल बड़ा था। गौरम्मा ने एक बच्चे के जन्म दिया । उसके बाद सन 1864 में तपेदिक से उसकी मौत हो गई।
हलेरी राजाओं के, गौरवशाली कूर्ग साम्राज्य के, कई अवशेष आज भी यहां देखने को मिलते हैं, जिनमें उनका महल सबसे ख़ास है।
हम आपसे सुनने के लिए उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com