भगवद् गीता भारत का एक महत्वपूर्ण धर्मग्रंथ तो है ही, लेकिन इंटरनेट की वजह से भगवद् गीता को आज सारी दुनिया में पढ़ा जा सकता है। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि अंग्रेजी भाषी दुनिया पहली बार 18 वीं शताब्दी में, एक ब्रिटिश प्राच्यविद (ओरिएंटलिस्ट) चार्ल्स विल्किंस के अनुवाद के कारण ही गीता पढ़ पाई थी? हरफ़नमौला व्यक्तित्व के मालिक विल्किंस ने दुनिया भर में भारतीय संस्कृति के प्रसार में बहुमूल्य योगदान किया था।
सन 1749 में समरसेटशर में जन्में सर चार्ल्स विल्किंस एक अंग्रेज़ टाइपोग्राफ़र और प्राच्यविद थे। उन्होंने काग़ज़ पर छपाई की खास प्रशिक्षण लिया। विल्किंस सन 1770 में भारत आये थे, और ईस्ट इंडिया कंपनी में बतौर लेखक के रूप में काम करते थे। बाद में वह मालदा (पश्चिम बंगाल) में कंपनी फ़ैक्ट्री के अधीक्षक के सहायता बन गये।
विल्किंस का भाषाओं के प्रति एक स्वाभाविक रुझान था। उन्होंने बंगाली और फ़ारसी भाषाएं सीखीं और जल्द ही दोनों भाषाओं पर महारत हासिल कर ली।
अपने पेशेवर और भाषाई ज्ञान का उपयोग करते हुए विल्किंस ने बंगाली आविष्कारक पंचानन कर्माकर की सहायता से बंगाली में छपाई के लिये अक्षरों का सबसे पहला सेट तैयार किया, जिनका इस्तेमाल अनुवादक एन.बी. हालहेड के “ए ग्रामर ऑफ़ द बंगाली लैंग्वेज” छापने के लिए किया गया था। बंगाली के अलावा, उन्होंने फ़ारसी में भी छपाई के लिये अक्षर तैयार किये, जिनका उपयोग स्कॉटिश अधिकारी बाल्फ़ोर के “फ़ॉर्म्स ऑफ़ हर्कर्न” को छापने के लिये किया गया, जो फ़ारसी भाषा में लिखे गये पत्रों का एक संग्रह था। उन पत्रों को पत्राचार के आदर्श के रूप में देखा गया था। शुरु में इन दोनों तरह के अक्षरों को विल्किंस ने अपने हाथों से तैयार किया था।
विल्किंस की तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के साथ गहरी दोस्ती थी। हेस्टिंग्स ने विल्किंस के भाषाई कौशल को देखकर उन्हें बनारस भेजा, जहां उन्होंने मशहूर ब्राह्मण पंडित कालीनाथ के मार्गदर्शन में संस्कृत सीखी। यह उनके जीवन के साथ-साथ भारत के सांस्कृतिक इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।
संस्कृत ज्ञान से लैस विल्किंस ने महान महाकाव्य महाभारत का अनुवाद शुरू किया। इस अनुवाद का मात्र एक तिहाई काम पूरा करने के बाद उन्होंने “भगवद् गीता या कृष्ण और अर्जुन के संवाद” शीर्षक से भगवद् गीता के अनुवाद का काम शुरू किया। इस दौरान उन्हें हेस्टिंग्स का ख़ूब समर्थन मिला। पुस्तक से अत्यधिक प्रभावित वारेन हेस्टिंग्स ने ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक मंडल से, इस पुस्तक को इंगलैंड से प्रकाशित करने की पुरज़ोर सिफ़ारिश की। हेस्टिंग्स ने पुस्तक के लिए तारीफों से भरी प्रस्तावना भी लिखी। सन 1785 में ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक मंडल ने पुस्तक को अपने ख़र्चे से प्रकाशित और वितरित किया। विल्किंस का यह उल्लेखनीय काम भगवद गीता का अंग्रेजी में पहला अनुवाद बन गया।
विल्किंस के अनुवाद से पहली बार भगवद् गीता का परिचय पश्चिमी दुनिया से हुआ और इसे दुनिया भर में ज़बरदस्त प्रशंसा मिली। उनके अनुवाद की वजह से पश्चिमी दुनिया को समझ में आया, कि गीता, हिंदू धर्म का सार है। जल्द ही फ़्रांसीसी भाषा के विद्वान जे.पी.पैरॉड ने इसका अनुवाद फ़्रांसीसी भाषा में किया। कुछ दिनों बाद ही जर्मन और रूसी जैसी अन्य भाषाओं में भी इसका अनुवाद हुआ।
विल्किंस की विभिन्न धर्मों के बारे में जानने की भी रुचि थी। वह भारत के कई पूजा-स्थलों को देखने भी गये।
उन्होंने इस्लाम धर्म का भी अध्ययन किया और सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह के जन्म स्थान पटना साहिब का भी दौरा किया। उन्होंने “सिख्स एंड देअर कॉलेज ऐट पटना” नामक किताब में अपनी यात्रा का विस्तृत विवरण लिखा।
विल्किंस ने पुरालेख के क्षेत्र में भी बहुमूल्य योगदान दिया। उन्होंने बिहार और बंगाल क्षेत्र में मिले पाल राजाओं (8वीं-12वीं सदी ई.पू.) के शिलालेखों की भी व्याख्या की। उन्होंने मौखरि राजा अनंतवर्मन के समय की बिहार में बराबर गुफा-परिसर में स्थित गोपिका गुफा शिलालेख का बिल्कुल सही अनुवाद किया। इन शिलालेखों को “नागार्जुनी गुफा शिलालेख” के रूप में भी जाना जाता है।
अपने शानदार योगदान के अलावा विल्किंस, बंगाल की प्रतिष्ठित एशियाटिक सोसाइटी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। सन 1784 में ब्रिटिश वकील और प्राच्यविद् सर विलियम जोन्स ने चार्ल्स विल्किंस की मदद से कलकत्ता में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की। इस सोसायटी का उद्देश्य प्राच्यवादी अध्ययन को बढ़ावा देना था।
सर चार्ल्स विल्किंस सन 1786 में इंग्लैंड वापस चले गए। इस क्षेत्र में उनका काम फिर भी जारी रहा। इंग्लैंड वापसी के बाद विल्किंस ने सन 1787 में क्लासिक संस्कृत की उपदेश देने वाली कहानियों के संकलन “हितोपदेश” का अनुवाद भी किया। उन्हें सन 1788 में रॉयल सोसाइटी के फेलो के रूप में चुना गया। सन 1800 में उन्हें इंडिया हाउस लाइब्रेरी के पहले निदेशक बनने के लिये आमंत्रित किया गया, जिसकी स्थापना ईस्ट इंडिया कंपनी ने की थी। बाद में ये लाइब्रेरी, इंडिया ऑफ़िस हाउस के रूप में प्रसिद्ध हुई, जो अब ब्रिटिश लाइब्रेरी- यानी ओरिएंटल संग्रह का एक हिस्सा है।
सन 1805 में, हैलीबरी में ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना के बाद विल्किंस को ओरिएंटल (प्राच्य) विभाग में एक विज़िटर के रूप में नियुक्त किया गया। दिलचस्प बात यह है, कि संस्कृत इस संस्थान के पाठ्यक्रम का एक अनिवार्य हिस्सा थी, जिसके लिए उन्हें सशक्त संस्कृत व्याकरण की आवश्यकता थी। इस तरह विल्किंस ने सन 1808 में संस्कृत भाषा की व्याकरण पर किताब लिखी और प्राकाशित की। इसके अलावा, उन्होंने जॉन रिचर्डसन के फ़ारसी और अरबी भाषा के शब्दकोश के नये संस्करण ,‘ए वोकेब्लरी परशियन, अरेबिक एंड इंग्लिश’ का अनुवाद भी किया, और सर विलियम जोन्स द्वारा इकट्ठा की गईं पांडुलिपियों की एक विस्तृत सूची भी तैयार की।
सर चार्ल्स विल्किंस की सन 1836 में मृत्यु हुई। सन 1833 में ओरिएंटल अध्ययन में उनके अमूल्य योगदान के लिए उन्हें किंग जॉर्ज IV से रॉयल गुएलफ़िक ऑर्डर का बैज (सम्मान) मिला और उनकी सेवाओं के लिए नाइटहुड यानी सर का ख़िताब भी मिला। उनका किया हुआ भगवद् गीता का अनुवाद आज भी भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में मील का पत्थर है।
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